श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सोरठि महला १ ॥ जिसु जल निधि कारणि तुम जगि आए सो अम्रितु गुर पाही जीउ ॥ छोडहु वेसु भेख चतुराई दुबिधा इहु फलु नाही जीउ ॥१॥ मन रे थिरु रहु मतु कत जाही जीउ ॥ बाहरि ढूढत बहुतु दुखु पावहि घरि अम्रितु घट माही जीउ ॥ रहाउ ॥ अवगुण छोडि गुणा कउ धावहु करि अवगुण पछुताही जीउ ॥ सर अपसर की सार न जाणहि फिरि फिरि कीच बुडाही जीउ ॥२॥ अंतरि मैलु लोभ बहु झूठे बाहरि नावहु काही जीउ ॥ निरमल नामु जपहु सद गुरमुखि अंतर की गति ताही जीउ ॥३॥ परहरि लोभु निंदा कूड़ु तिआगहु सचु गुर बचनी फलु पाही जीउ ॥ जिउ भावै तिउ राखहु हरि जीउ जन नानक सबदि सलाही जीउ ॥४॥९॥ {पन्ना 598}

पद्अर्थ: जल निधि = पानी का खजाना (जैसे आग बुझाने के लिए पानी चाहिए वैसे ही तृष्णा की आग शांत करने के लिए नाम-जल की आवश्यक्ता है), अमृत का खजाना। जगि = जगत में। पाही = पास। वेसु = पहरावा। वेसु भेख = धार्मिक भेष का पहरावा। चतुराई = चालाकी। दुबिधा = दो रुखी।1।

कत = कहाँ बाहर। मतु जाही = ना जाना। घरि = घर में। घट माही = हृदय में। रहाउ।

धावहु = दौड़ो। करि = कर के। सर अपसर = अच्छा और बुरा। सार = समझ। कीच = कीचड़ में। बुडाही = तू डबता है।2।

काही = किसलिए? अंतरि = तेरे अंदर। अंदर की = अंदर की (शब्द ‘अंतरि’ और ‘अंतर’ में फर्क समझें)। ताही = तब ही।3।

परहरि = त्याग के। सचु फलु = सदा टिके रहने वाला फल। पाही = हासिल करेगा। सालाही = मैं सलाहता रहूँ।4।

अर्थ: हे मेरे मन! (अंदर ही प्रभू चरणों में) टिका रह, (देखना, नाम-अमृत की तलाश में) कहीं बाहर ना भटकते फिरना। अगर तू बाहर ढूँढने निकल पड़ा, तो बहुत दुख पाएगा। अटल आत्मिक जीवन देने वाला रस तेरे घर में ही है, हृदय में ही है। रहाउ।

(हे भाई!) जिस अमृत के खजाने की खातिर तुम जगत में आए हो वह अमृत गुरू की ओर से मिलता है; पर धार्मिक भेष का पहरावा छोड़, मन की चालाकी भी छोड़ दे (बाहर की सूरति धर्मियों वाली और अंदर से दुनिया को ठगने वाली चालाकी) इस दुविधा भरी चाल में उलझे रह के ये अमृत फल की प्राप्ति नहीं हो सकती।1।

(हे भाई!) अवगुण छोड़ के गुण हासिल करने का यतन करो। अगर अवगुण ही करते रहोगे तो पछताना पड़ेगा। (हे मन!) तू बार-बार मोह के कीचड़ में डूब रहा है, तू अच्छे-बुरे की परख करनी नहीं जानता।2।

(हे भाई!) अगर अंदर (मन में) लोभ की मैल है (और लोभ के अधीन हो के) कई ठॅगी के काम करते हो, तो बाहर (तीर्थ आदि पर) स्नान करने के क्या लाभ? अंदर की ऊँची अवस्था तभी बनेगी जब गुरू के बताए हुए रास्ते पर चल के सदा प्रभू का पवित्र नाम जपोगे।3।

(हे मन!) लोभ त्याग, निंदा और झूठ त्याग। गुरू के बचनों में चलने से ही सदा स्थिर रहने वाला अमृत-फल मिलेगा।

हे दास नानक! (प्रभू दर पर अरदास कर और कह–) हे हरी! जैसे तेरी रजा हो वैसे ही मुझे रख (पर ये मेहर कर कि गुरू के) शबद में जुड़ के मैं तेरी सिफत सालाह करता रहूँ।4।9।

सोरठि महला १ पंचपदे ॥ अपना घरु मूसत राखि न साकहि की पर घरु जोहन लागा ॥ घरु दरु राखहि जे रसु चाखहि जो गुरमुखि सेवकु लागा ॥१॥ मन रे समझु कवन मति लागा ॥ नामु विसारि अन रस लोभाने फिरि पछुताहि अभागा ॥ रहाउ ॥ आवत कउ हरख जात कउ रोवहि इहु दुखु सुखु नाले लागा ॥ आपे दुख सुख भोगि भोगावै गुरमुखि सो अनरागा ॥२॥ हरि रस ऊपरि अवरु किआ कहीऐ जिनि पीआ सो त्रिपतागा ॥ माइआ मोहित जिनि इहु रसु खोइआ जा साकत दुरमति लागा ॥३॥ मन का जीउ पवनपति देही देही महि देउ समागा ॥ जे तू देहि त हरि रसु गाई मनु त्रिपतै हरि लिव लागा ॥४॥ साधसंगति महि हरि रसु पाईऐ गुरि मिलिऐ जम भउ भागा ॥ नानक राम नामु जपि गुरमुखि हरि पाए मसतकि भागा ॥५॥१०॥ {पन्ना 598}

पद्अर्थ: पंच पदे = पाँच पाँच बंदों वाले शबद।

घरु = आत्मिक जीवन। मूसत = चुराया जा रहा है। की = क्यों? जोहन लागा = ताक रहा है, छेद ढूँढ रहा है।1।

अन रस = और रसों में। अभागा = भाग्यहीन। रहाउ।

हरख = खुशी। नाले = साथ ही। भोगि = भोग में। अनरागा = राग रहित, निर्मोह।2।

ऊपरि = बढ़िया। जिनि = जिस ने। त्रिपतागा = तृप्त हो गया। खोइआ = गवा लिया। जा = जा के। साकत = माया ग्रसित मनुष्य।3।

जीउ = जीवात्मा, आसरा, जिंद। पवन = प्राण। देही = देह का मालिक। देही = शरीर। देउ = प्रकाश रूप प्रभू। गाई = मैं गाऊँ।4।

गुरि = गुरू से। मिलिअै = मिल के। गुरि मिलिअै = अगर गुरू मिल जाए। मसतकि = माथे पर।5।

अर्थ: हे मन! होश कर, किस बुरी मति में लग गया है? हे अभागे! परमात्मा का नाम भुला के अन्य ही स्वादों में मस्त हो रहा है, (समय बीत जाने पर) फिर पछताएगा। रहाउ।

हे मन! तेरा अपना आत्मिक जीवन लुटा जा रहा है उसे तू बचा नहीं सकता, पराए ऐब क्यों फरोलता फिरता है? अपना घर-बार (लुटे जाने से तभी) बच सकेगा अगर तू प्रभू के नाम का स्वाद चखेगा। (नाम-रस वही) सेवक (चखता है) जो गुरू के सन्मुख रहके (सेवा में) लगता है।

हे मन! तू आते धन को देख के खुश होता है, जाते को देख के रोता है, ये दुख और सुख तेरे साथ ही चिपका चला आ रहा है (पर तेरे भी क्या वश?) प्रभू खुद ही (जीव को उसके किए कर्मों के अनुसार) दुखों और सुखों के भोग में उलझा के (दुख-सुख) भोगाता हूँ। (सिर्फ) वह मनुष्य ही निर्मोही रहता है जो गुरू के बताए हुए रास्ते पर चलता है।2।

(हे मन!) परमात्मा के नाम के रस से बढ़िया और कोई रस कहा नहीं जा सकता। जिस मनुष्य ने ये रस पिया है वह (दुनिया के और रसों की ओर से) तृप्त हो जाता है। पर जिस मनुष्य ने माया के मोह में फंस के यह (नाम-) रस गवा लिया है वह माया-ग्रसित लोगों की कुबुद्धि में जा लगता है।3।

जो प्रकाश-रूपपरमात्मा हमारे मन का सहारा है, प्राणों का मालिक है, शरीर का मालिक है, वह हमारे शरीर में ही मौजूद है (पर हमें ये समझ नहीं आता, हम बाहर ही भटकते रहते हैं)। हे प्रभू! अगर तू खुद मुझे अपने नाम का रस बख्शे तो ही मैं तेरे गुण गा सकता हूँ। जिस मनुष्य की सुरति हरी-सिमरन में जुड़ती है उसका मन माया की ओर से तृप्त हो जाता है।4।

हे नानक! साध-संगति में परमात्मा के नाम का रस प्राप्त हो सकता है (साध-संगति में) अगर गुरू मिल जाए तो मौत का (भी) डर दूर हो जाता है। जिस मनुष्य के माथे पर अच्छे लेख उघड़ आएं, वह गुरू के बताए हुए राह पर चल के परमात्मा का नाम सिमर के परमात्मा के साथ मिलाप हासिल कर लेता है।5।10।

सोरठि महला १ ॥ सरब जीआ सिरि लेखु धुराहू बिनु लेखै नही कोई जीउ ॥ आपि अलेखु कुदरति करि देखै हुकमि चलाए सोई जीउ ॥१॥ मन रे राम जपहु सुखु होई ॥ अहिनिसि गुर के चरन सरेवहु हरि दाता भुगता सोई ॥ रहाउ ॥ जो अंतरि सो बाहरि देखहु अवरु न दूजा कोई जीउ ॥ गुरमुखि एक द्रिसटि करि देखहु घटि घटि जोति समोई जीउ ॥२॥ चलतौ ठाकि रखहु घरि अपनै गुर मिलिऐ इह मति होई जीउ ॥ देखि अद्रिसटु रहउ बिसमादी दुखु बिसरै सुखु होई जीउ ॥३॥ पीवहु अपिउ परम सुखु पाईऐ निज घरि वासा होई जीउ ॥ जनम मरण भव भंजनु गाईऐ पुनरपि जनमु न होई जीउ ॥४॥ ततु निरंजनु जोति सबाई सोहं भेदु न कोई जीउ ॥ अपर्मपर पारब्रहमु परमेसरु नानक गुरु मिलिआ सोई जीउ ॥५॥११॥ {पन्ना 598-599}

पद्अर्थ: सिरि = सिर पर। धुराहु = धुर से ही। अलेखु = जिस पर किए कर्मों के संस्कारों का प्रभाव नहीं (अ+लेख)। करि = पैदा करके, बना के। देखै = संभाल करता है। सोई = वह प्रभू स्वयं ही।

अहि = दिन। निसि = रात। सरेवहु = सेवा करो। भुगता = भोगने वाला। गुर = सबसे बड़ा मालिक। रहाउ।

गुरमुखि = गुरू के द्वारा, गुरू के बताए हुए रास्ते पर चल के। ऐक द्रिसटि = एक प्रभू को ही देखने वाली नजर। करि = बना के। समोई = समाई हुई, मौजूद।2।

चलतौ = भटकते (मन) को। ठाकि = रोक के। घरि = घर में। मति = अकल। रहउ = मैं रहता हूँ ।।

(नोट: इस शबद के निम्नलिखित शब्द ध्यान से पढ़ें–जपहु, सरेवहु, देखहु, रखहु, पीवहु। ये सारे शब्द हुकमी भविष्यत, मध्यम पुरुष, बहुवचन हैं। पर शब्द ‘रहउ’ वर्तमानकाल, उक्तम पुरुष व एकवचन है।)

बिसमादी = हैरान, विस्माद अवस्था में।3।

अपिउ = अंम्रित, अटल आत्मिक जीवन देने वाला रस। पाईअै = पा लिया जाता है। निज घरि = अपने घर में। जनम मरन भव भंजनु = वह पेंभू जो जनम मरण नाश करने वाला है, जो संसार चक्रनाश करने वाला है। पुनरपि = पुनः+अपि, पुनः दुबारा। अपि = भी। (बार बार)।4।

ततु = सारे जगत का असल। निरंजनु = माया कालिख से रहित। सबाई = सब जगह। सोहं = सोहै, शोभा दे रही है। भेदु = दूरी। अपरंपर = परे से परे। गुर मिलिआ = (जो मनुष्य) गुरू को मिल पड़ा है।5।

अर्थ: हे मेरे मन! सदा राम का नाम जपो (नाम जपने से) आत्मिक सुख मिलेगा। दिन-रात उस सबसे बड़े मालिक के चरणों का ध्यान धरो, वह हरी (खुद ही सब जीवों को दातें) देने वाला है, (खुद ही सबमें व्यापक हो के) भोगने वाला है। रहाउ।

धुर से ही (परमात्मा की रजा अनुसार) सब जीवों के माथे पर (अपने-अपने किए कर्मोंके संस्कारों का) लेख (उकरा हुआ) है। कोई जीव ऐसा नहीं है जिस पर इस लेख का प्रभाव ना हो। सिर्फ परमात्मा खुद इस (कर्म) लेख से स्वतंत्र है, जो इस कुदरत को रच के इसकी संभाल करता है, और अपने हुकम में (जगत की कार्रवाही) चला रहा है।1।

हे मेरे मन! जो प्रभू तेरे अंदर बस रहा है उसको बाहर (सारी कायनात में) देख। उसके बिना (उस जैसा) और कोई नहीं है। गुरू के बताए हुए राह पर चल कर उस एक को देखने वाली नजर बना (फिर तुझे दिख जाएगा कि) हरेक शरीर में एक परमात्मा की ही ज्योति मौजूद है।2।

(हे भाई!) इस (बाहर) भटकते (मन) को रोक के अपने अंदर (बसते प्रभू में) टिका के रख। पर गुरू को मिल के ही ये मति आती है। मैं तो (गुरू की कृपा से) उस अदृश्य प्रभू को (सब में बसता) देख के विस्माद अवस्था में पहुँच जाता हूँ। (जो भी ये दीदार करता है, उसका) दुख मिट जाता है उसको आत्मिक आनंद मिल जाता है।3।

(हे भाई!) अटल आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पी, (ये नाम-रस पीने से) सबसे ऊँचा आत्मिक आनंद मिलता है, और अपने घर में ठिकाना हो जाता है (भाव, सुखों की खातिर मन बाहर भटकने से हट जाता है)। (हे भाई!) जनम-मरण का चक्कर नाश करने वाले प्रभू की सिफत-सालाह करनी चाहिए (इस तरह) बार-बार जनम (मरण) नहीं होता।4।

(हे भाई!) परमात्मा सारे जगत की अस्लियत है (असल मूल तत्व है), (खुद) माया के प्रभाव से रहित है, प्रभू पारब्रहम परे से परे है और सबसे बड़ा मालिक है। हे नानक! जो मनुष्य गुरू को मिल लेता है उसको (दिखाई दे जाता है कि) उस प्रभू की ज्योति हर जगह शोभायमान है (और उसकी व्यापकता में कहीं) कोई भेद-भाव नहीं है।5।11।

नोट! ये 11शबद ‘घरु १’ हैं। आगे 1शबद ‘घरु ३’ का है। तभी उसका अलग से अंक 1 दे के सारा जोड़ 12 लिखा है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh