श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सोरठि महला १ घरु ३    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

जा तिसु भावा तद ही गावा ॥ ता गावे का फलु पावा ॥ गावे का फलु होई ॥ जा आपे देवै सोई ॥१॥ मन मेरे गुर बचनी निधि पाई ॥ ता ते सच महि रहिआ समाई ॥ रहाउ ॥ गुर साखी अंतरि जागी ॥ ता चंचल मति तिआगी ॥ गुर साखी का उजीआरा ॥ ता मिटिआ सगल अंध्यारा ॥२॥ गुर चरनी मनु लागा ॥ ता जम का मारगु भागा ॥ भै विचि निरभउ पाइआ ॥ ता सहजै कै घरि आइआ ॥३॥ भणति नानकु बूझै को बीचारी ॥ इसु जग महि करणी सारी ॥ करणी कीरति होई ॥ जा आपे मिलिआ सोई ॥४॥१॥१२॥ {पन्ना 599-600}

नोट: देखें इसी राग में नामदेव जी का शबद ‘जब देखा तब गावा’ । दोनों शबदों में बहुत ही समीपता है। गुरू नानक देव जी के पास भगत नामदेव जी की बाणी मौजूद थी।

पद्अर्थ: जा = जब। तिसु = उस (प्रभू) को। भावा = अच्छा लगूँ। गावा = मैं गा सकता हूं, सिफत सालाह करूँ। ता = तब। गावे का = सिफत सालाह का। पावा = मैं पा सकता हूँ। सोई = वह प्रभू ही।1।

मन = हे मन! बचनी = वचनों से। निधि = खजाना, सिफत सालाह का खजाना। पाई = (जिसने) पा लिया। ता ते = उस (खजाने) से, सिफत सालाह के उस खजाने की बरकति से। सच = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा। रहाउ।

साखी = शिक्षा। जागी = जाग पड़ी, ज्योति जग गई। ता = तब। चंचल = एक जगह ना टिकने वाली, भटकना में डाले रखने वाली। उजीआरा = प्रकाश (आत्मिक)। अंध्यारा = (अज्ञानता का) अंधेरा।2।

मारगु = रास्ता। जम का मारगु = वह जीवन रास्ता जो आत्मिक मौत की ओर ले जाता है। सहज = अडोल आत्मिक अवस्था, शांति।3।

भणति = कहता है। को बीचारी = कोई विचारवान ही। करणी = करने योग्य कर्म, करणीय। सारी = श्रेष्ठ। कीरति = कीर्ति, सिफत सालाह। आपे = (प्रभू) खुद ही।4।

अर्थ: हे मेरे मन! जिस मनुष्य ने गुरू के वचनों पर चल के (सिफत सालाह का) खजाना पा लिया, वह उस (खजाने) की बरकति से सदा कायम रहने वाले परमात्मा (की याद में) सदा टिका रहता है। रहाउ।

(हे मेरे मन!) जब मैं उस प्रभू को अच्छा लगता हूँ (अर्थात, जब वह मेरे पर खुश होता है) तब ही मैं उसकी सिफत सालाह कर सकता हूँ, तब ही (उसकी मेहर से ही) मैं सिफत सालाह का फल पा सकता हूँ। सिफत सालाह करने का जो फल है ( कि सदा उसके चरनों में लीन रहा जा सकता है, ये भी तभी प्राप्त होता है) जब वह प्रभू खुद ही (प्रसन्न हो के) देता है।1।

जब जिस मनुष्य के अंदर सतिगुरू की (सिफत सालाह करनेकी शिक्षा की) ज्योति जग जाती है तब वह मनुष्य ऐसी मति त्याग देता है जो उसे माया की भटकना में डाले रखती थी। जब (मनुष्य के अंदर) गुरू के उपदेश का (आत्मिक) प्रकाश होता है, तब उसके अंदर से (अज्ञानता वाला) सारा अंधकार दूर हो जाता है।2।

जब जिस मनुष्य का मन गुरू के चरणों में जुड़ता है, तब उस मनुष्य का वह जीवन-रास्ता समाप्त हो जाता है जिस पे चलते हुए (उसकी) आत्मिक मौत हो रही थी। परमात्मा के डर अदब में रह के जब मनुष्य निर्भय प्रभू से मिलाप हासिल करता है तब वह अडोल आत्मिक अवस्था के घर में टिक जाता है।3।

पर, नानक कहता है– कोई विरला विचारवान ही समझता है कि इस जिंदगी में (परमात्मा की सिफत सालाह ही) श्रेष्ठ करने योग्य काम है। जब प्रभू खुद (मेहर करके जीव के दिल में) प्रगट होता है तब उसको सिफत सालाह का (श्रेष्ठ) कर्म मिल जाता है।4।1।12।

सोरठि महला ३ घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

सेवक सेव करहि सभि तेरी जिन सबदै सादु आइआ ॥ गुर किरपा ते निरमलु होआ जिनि विचहु आपु गवाइआ ॥ अनदिनु गुण गावहि नित साचे गुर कै सबदि सुहाइआ ॥१॥ मेरे ठाकुर हम बारिक सरणि तुमारी ॥ एको सचा सचु तू केवलु आपि मुरारी ॥ रहाउ ॥ जागत रहे तिनी प्रभु पाइआ सबदे हउमै मारी ॥ गिरही महि सदा हरि जन उदासी गिआन तत बीचारी ॥ सतिगुरु सेवि सदा सुखु पाइआ हरि राखिआ उर धारी ॥२॥ इहु मनूआ दह दिसि धावदा दूजै भाइ खुआइआ ॥ मनमुख मुगधु हरि नामु न चेतै बिरथा जनमु गवाइआ ॥ सतिगुरु भेटे ता नाउ पाए हउमै मोहु चुकाइआ ॥३॥ हरि जन साचे साचु कमावहि गुर कै सबदि वीचारी ॥ आपे मेलि लए प्रभि साचै साचु रखिआ उर धारी ॥ नानक नावहु गति मति पाई एहा रासि हमारी ॥४॥१॥ {पन्ना 599-600}

पद्अर्थ: सभि = सारे। सबदै = गुरू के शबद का। सादु = सवाद, रस। ते = से, साथ। जिनि = जिस (मनुष्य) ने (‘जिन’ बहुवचन है ‘जिनि’ एकवचन है)। आपु = स्वै भाव। अनदिनु = हर रोज। गावहि = गाते हैं। साचे = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के। सबदि = शबद से। सुहाइआ = सुंदर जीवन वाले हो जाते हैं।1।

ठाकुर = हे मालिक! सचा = सदा स्थिर रहने वाला। रहाउ।

जागत = (विकारों से) सचेत। गिरही महि = गृह में ही, गृहस्त में ही। उर = दिल।2।

मनूआ = अल्लहड़ मन। दह दिसि = दसों दिशाओं में। दूजै भाइ = माया के मोह में। खुआइआ = राह से विछुड़ जाता है। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। मुगधु = मूर्ख। भेटे = मिल जाए।3।

वीचारी = विचारवान (हो के)। प्रभि = प्रभू ने। साचै = सदा स्थिर रहने वाले ने। नावहु = नाम से ही। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। ऐहा = ये (नाम) ही। रासि = पूँजी, सरमाया।4।

अर्थ: हे मेरे मालिक प्रभू! हम (जीव) तेरे बच्चे हैं, तेरी शरण आए हैं। सिर्फ एक तू ही सदा कायम रहने वाला है (जीव माया में डोल जाते हैं)। रहाउ।

हे प्रभू! तेरे जिन सेवकों को गुरू के शबद का रस आ जाता है वही सारे तेरी सेवा-भक्ति करते हैं। (हे भाई!) जिस मनुष्य ने गुरू की कृपा से अपने अंदर से स्वै भाव दूर कर लिया वह पवित्र (जीवन वाला) हो जाता है। जो मनुष्य गुरू के शबद में (जुड़ के) हर वक्त सदा स्थिर प्रभू के गुण गाते रहते हैं, वे सुंदर जीवन वाले बन जाते हैं।1।

हे भाई! जो मनुष्य गुरू के शबद से (अपने अंदर से) अहंकार समाप्त कर लेते हैं, वे (माया के मोह आदि से) सचेत रहते हैं, उन्होंने ही परमात्मा का मिलाप हासिल किया है। परमात्मा के भक्त गुरू के असल ज्ञान के द्वारा विचारवान हो के गृहस्त में रहते हुए भी माया से विरक्त रहते हैं। वह भक्त गुरू की बताई हुई सेवा करके सदा आत्मिक आनंद पाते हैं, और परमात्मा को अपने दिल में बसाए रखते हैं।2।

हे भाई! ये अल्लहड़ मन माया के मोह में फंस के दसों दिशाओं में दौड़ता रहता है, और (जीवन के सही राह से) उखड़ा फिरता है। अपने मन के पीछे चलने वाला मूर्ख मनुष्य परमात्मा का नाम याद नहीं करता, अपना जीवन व्यर्थ गवा लेता है। पर जब उसे गुरू मिल जाता है तब वह हरी नाम की दाति हासिल करता है, और, अपने अंदर से माया का मोह और अहंकार दूर कर लेता है।3।

हे भाई! गुरू के शबद के द्वारा विचारवान हो के परमात्मा के दास सदा स्थिर परमात्मा का सदा-स्थिर नाम-सिमरन की कमाई करते रहते हैं। सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा ने स्वयं ही उनको अपने चरणों में मिला लिया होता है। वह सदा कायम रहने वाले प्रभू को अपने दिल में बसाए रखते हैं।

हे नानक! (कह–) परमात्मा के नाम से ही ऊँची आत्मिक अवस्था और (अच्छी) बुद्धि प्राप्त होती है। परमात्मा का नाम ही हम (जीवों का) सरमाया है।4।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh