श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 602 सोरठि महला ३ ॥ सो सिखु सखा बंधपु है भाई जि गुर के भाणे विचि आवै ॥ आपणै भाणै जो चलै भाई विछुड़ि चोटा खावै ॥ बिनु सतिगुर सुखु कदे न पावै भाई फिरि फिरि पछोतावै ॥१॥ हरि के दास सुहेले भाई ॥ जनम जनम के किलबिख दुख काटे आपे मेलि मिलाई ॥ रहाउ ॥ इहु कुट्मबु सभु जीअ के बंधन भाई भरमि भुला सैंसारा ॥ बिनु गुर बंधन टूटहि नाही गुरमुखि मोख दुआरा ॥ करम करहि गुर सबदु न पछाणहि मरि जनमहि वारो वारा ॥२॥ हउ मेरा जगु पलचि रहिआ भाई कोइ न किस ही केरा ॥ गुरमुखि महलु पाइनि गुण गावनि निज घरि होइ बसेरा ॥ ऐथै बूझै सु आपु पछाणै हरि प्रभु है तिसु केरा ॥३॥ सतिगुरू सदा दइआलु है भाई विणु भागा किआ पाईऐ ॥ एक नदरि करि वेखै सभ ऊपरि जेहा भाउ तेहा फलु पाईऐ ॥ नानक नामु वसै मन अंतरि विचहु आपु गवाईऐ ॥४॥६॥ {पन्ना 601-602} पद्अर्थ: सो = वह मनुष्य। सखा = मित्र। बंधपु = रिश्तेदार। जि = जो। भाणै = मर्जी में, मर्जी अनुसार। विछुड़ि = विछुड़ के।1। सुहेले = सुखी। किलविख = पाप। आपे = प्रभू खुद ही। रहाउ। कुटंबु = परिवार। सभु = सारा। जीअ के बंधन = जीव के लिए बंधन। भुला = गलत रास्ते पर पड़ा रहता है। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने से। मोख = मोक्ष, मुक्ति। करम = दुनिया के काम धंधे। वारो वारा = बार बार।2। हउ = मैं (बड़ा हूँ)। मेरा = (ये धन पदार्थ) मेरा है। पलचि रहिआ = उलझा पड़ा है। केरा = का। महलु = परमात्मा की हजूरी। पाइनि = पा लेते हैं। निज घरि = अपने घर में। अैथै = इस जीवन में। आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को।3। दइआलु = दया का घर। भागा = अच्छी किस्मत। करि = कर के, साथ। भाउ = भावना, नीयत। आपु = स्वै भाव।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भक्त सुखी जीवन व्यतीत करते हैं। परमात्मा स्वयं उनके जनम मरण के दुख-पाप काट देता है, और उन्हें अपने चरणों में मिला लेता है। रहाउ। हे भाई! वही मनुष्य गुरू का सिख है, गुरू का मित्र है, गुरू का रिश्तेदार है, जो गुरू की रजा में चलता है। पर, जो मनुष्य अपनी मर्जी के मुताबक चलता है, वह प्रभू से विछुड़ के दुख सहता है। गुरू की शरण पड़े बिना मनुष्य कभी सुख नहीं पा सकता, और बार बार (दुखी हो के) पछताता है।1। हे भाई! (गुरू की रजा में चले बिना) ये (अपना) परिवार भी जीव के लिए निरा मोह का बंधन बन जाता है, (तभी तो) जगत (गुरू से) भटक के गलत रास्ते पर पड़ा रहता है। गुरू की शरण आए बिना ये बंधन टूटते नहीं। गुरू की शरण पड़ने वाला मनुष्य (मोह के बंधनों से) निजात पाने का राह तलाश लेता है। जो लोग निरे दुनिया के काम-धंधे ही करते हैं, और गुरू के शबद के साथ सांझ नहीं डालते, वे बार-बार पैदा होते मरते रहते हैं।2। हे भाई! ‘मैं बड़ा हूँ’, ‘ये धन आदि मेरा है’ - इसमें ही जगत उलझा हुआ है (वैसे) कोई भी किसी का (सदा साथी) नहीं बन सकता। गुरू की शरण पड़ने वाले मनुष्य परमात्मा की सिफत सालाह करते हैं, और परमात्मा की हजूरी प्राप्त किए रहते हैं, उनका (आत्मिक) निवास प्रभू चरणों में हुआ रहता है। जो मनुष्य इस जीवन में ही (इस भेत को) समझ लेता है, वह अपने आत्मिक जीवन को पड़तालता रहता है (आत्म चिंतन करता है), परमात्मा उस मनुष्य का सहायक बना रहता है।3। हे भाई! गुरू हर समय ही दयावान रहता है (माया-ग्रसित मनुष्य गुरू की शरण नहीं आता) किस्मत के बिना (गुरू से) क्या मिले? गुरू सबको एक प्यार की निगाह से देखता है। (पर हमारी जीवों की) जैसी भावना होती है वैसा ही फल (हमें गुरू से) मिल जाता है। हे नानक! (अगर गुरू की शरण पड़ के अपने) अंदर से स्वै भाव दूर कर लें तो परमात्मा का नाम मन में आ बसता है।4।6। सोरठि महला ३ चौतुके ॥ सची भगति सतिगुर ते होवै सची हिरदै बाणी ॥ सतिगुरु सेवे सदा सुखु पाए हउमै सबदि समाणी ॥ बिनु गुर साचे भगति न होवी होर भूली फिरै इआणी ॥ मनमुखि फिरहि सदा दुखु पावहि डूबि मुए विणु पाणी ॥१॥ भाई रे सदा रहहु सरणाई ॥ आपणी नदरि करे पति राखै हरि नामो दे वडिआई ॥ रहाउ ॥ पूरे गुर ते आपु पछाता सबदि सचै वीचारा ॥ हिरदै जगजीवनु सद वसिआ तजि कामु क्रोधु अहंकारा ॥ सदा हजूरि रविआ सभ ठाई हिरदै नामु अपारा ॥ जुगि जुगि बाणी सबदि पछाणी नाउ मीठा मनहि पिआरा ॥२॥ सतिगुरु सेवि जिनि नामु पछाता सफल जनमु जगि आइआ ॥ हरि रसु चाखि सदा मनु त्रिपतिआ गुण गावै गुणी अघाइआ ॥ कमलु प्रगासि सदा रंगि राता अनहद सबदु वजाइआ ॥ तनु मनु निरमलु निरमल बाणी सचे सचि समाइआ ॥३॥ राम नाम की गति कोइ न बूझै गुरमति रिदै समाई ॥ गुरमुखि होवै सु मगु पछाणै हरि रसि रसन रसाई ॥ जपु तपु संजमु सभु गुर ते होवै हिरदै नामु वसाई ॥ नानक नामु समालहि से जन सोहनि दरि साचै पति पाई ॥४॥७॥ {पन्ना 602} पद्अर्थ: चौतुके = वह शबद जिनके हरेक ‘बंद’ में चार चार तुकें होती हैं। सची भगति = सदा स्थिर प्रभू की ही भक्ति। ते = से, के द्वारा। सची बाणी = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह की बाणी। सबदि = शबद में। होर इआणी = वह अंजान दुनिया जो गुरू की शरण नहीं पड़ती। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले।1। रहहु = टिका रह। पति = इज्जत। रहाउ। आपु = अपना आप, अपना आत्मिक जीवन। हिरदै = हृदय में। सद = सदा। तजि = त्याग के। रविआ = व्यापक। जुगि जुगि = हरेक युग में। सबदि = शबद से। मनहि = मन में।2। जिनि = जिस ने। पछाता = सांझ डाली। जगि = जगत में। गुणी = गुणों से। अघाइआ = माया की ओर अघा गया। कमलु = हृदय कमल फूल सा। प्रगासि = खिल के। अनहद = एक रस।3। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। रिदै = हृदय में। समाई = टिक जाता है। मगु = रास्ता। रसि = रस से। रसन = जीभ। रसाई = रस जाती है। गुर ते = गुरू से। दरि = दर से।4। अर्थ: हे भाई! सदा गुरू की शरण टिका रह। (जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ा रहता है उस पर गुरू) अपनी मेहर की निगाह करता है; उसकी इज्जत रखता है, उसे प्रभू का नाम बख्शता है (जो एक बहुत बड़ा) सम्मान है। रहाउ। हे भाई! गुरू के माध्यम से सदा स्थिर प्रभू की भक्ति हो सकती है, सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह की बाणी हृदय में टिक जाती है। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, वह सदा सुख पाता है, उसका अहंकार गुरू के शबद में ही समाप्त हो जाता है। सच्चे गुरू के बिना भक्ति नहीं हो सकती, जो अंजान दुनिया गुरू के दर पर नहीं आती, वह गलत राह पर पड़ी रहती है। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य भटकते फिरते हैं, सदा दुख पाते हैं; वह जैसे, पानी के बिना ही डूब मरते हैं।1। जिस मनुष्य ने पूरे गुरू के द्वारा अपने आत्मिक जीवन को पड़तालना आरम्भ कर दिया, उसने सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह के शबद में जुड़ के प्रभू के गुणों को विचारना शुरू कर दिया। काम-क्रोध-अहंकार (आदि विकार) त्यागने से उसके हृदय में जगत का जीवन प्रभू सदा के लिए आ बसा। बेअंत प्रभू का नाम उसके दिल में आ बसने के कारण प्रभू उसको सदा अंग-संग बसता दिखाई दे गया, हर जगह मौजूद दिख गया। गुरू के शबद के माध्यम से उसे ये पहचान आ गई कि (परमात्मा के मिलाप का वसीला) हरेक युग में गुरू की बाणी है, परमात्मा का नाम उसको अपने मन में प्यारा लगने लग पड़ा।2। जिस मनुष्य ने गुरू की शरण पड़ के परमात्मा के नाम सें सांझ डाल ली, जगत में आ के उसकी जिंदगी कामयाब हो गई। परमात्मा के नाम का स्वाद चख के उसका मन सदा के लिए तृप्त हो जाता है, वह परमात्मा के गुण गाता रहता है, और गुणों के माध्यम से माया की ओर से तृप्त हो जाता है। उसका हृदय-कमल खिल के सदा प्रभू के प्रेम रंग रंगा रहता है, वह (अपने दिल में) एक-रस गुरू शबद (का बाजा) बजाता रहता है। पवित्र बाणी की बरकति से उसका मन पवित्र हो जाता है, उसका शरीर पवित्र हो जाता है, वह सदा स्थिर प्रभू में लीन रहता है।3। कोई मनुष्य नहीं समझ सकता कि परमात्मा के नाम से कितनी ऊँची आत्मिक अवस्था बन जाती है (वैसे) गुरू की मति लेने से नाम (मनुष्य के) हृदय में आ बसता है। जो मनुष्य गुरू के सन्मुख हो जाता है वह (परमात्मा के मिलाप का) रास्ता पहचान लेता है, उसकी जीभ नाम-रस के साथ रस जाती है। गुरू के माध्यम से परमात्मा का नाम दिल में आ बसता है - यही है जप, यही है तप और यही है संजम। हे नानक! जो मनुष्य प्रभू का नाम हृदय में बसाए रखते हैं, वे सुंदर जीवन वाले बन जाते हैं, सदा स्थिर प्रभू के दर पर उनको सम्मान मिलता है।4।7। सोरठि मः ३ दुतुके ॥ सतिगुर मिलिऐ उलटी भई भाई जीवत मरै ता बूझ पाइ ॥ सो गुरू सो सिखु है भाई जिसु जोती जोति मिलाइ ॥१॥ मन रे हरि हरि सेती लिव लाइ ॥ मन हरि जपि मीठा लागै भाई गुरमुखि पाए हरि थाइ ॥ रहाउ ॥ बिनु गुर प्रीति न ऊपजै भाई मनमुखि दूजै भाइ ॥ तुह कुटहि मनमुख करम करहि भाई पलै किछू न पाइ ॥२॥ गुर मिलिऐ नामु मनि रविआ भाई साची प्रीति पिआरि ॥ सदा हरि के गुण रवै भाई गुर कै हेति अपारि ॥३॥ आइआ सो परवाणु है भाई जि गुर सेवा चितु लाइ ॥ नानक नामु हरि पाईऐ भाई गुर सबदी मेलाइ ॥४॥८॥ {पन्ना 602-603} पद्अर्थ: सतिगुर मिलिअै = अगर गुरू मिल जाए। उलटी भई = (विकारों से सुरति) पलट जाती है, हट जाती है। जीवत मरै = जीवित ही मर जाता है, दुनिया की किरत करता हुआ भी विकारों से अछोह हो जाता है। बूझ = आत्मिक जीवन की समझ। सो गुरू सो सिखु = वह मनुष्य गुरू का (असल) सिख है। जिसु जोति = जिसकी आत्मा को। जोती मिलाइ = (गुरू) परमात्मा में मिला देता है।1। सेती = साथ। लिव = लगन। मन रे = हे मन! जपि = जप जप के। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। थाइ = जगह में, हजूरी में। हरि थाइ = प्रभू की हजूरी में। रहाउ। भाई = हे भाई! मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। दूजै भाइ = (प्रभू के बिना) किसी और प्यार में। भाइ = प्यार में। तुह = दानों के ऊपर के छिलके, फॅक। कुटहि = कूटते हैं।2। मनि = मन में। रविआ = हर वक्त बसा रहता है। पिआरि = प्यार में। रवै = याद करता है। हेति = हित से। अपारि हेति = अटूट प्यार से।3। से = वह मनुष्य। परवाणु = कबूल। जि = जो। पाईअै = पा लिया जाता है।4। अर्थ: हे मन! सदा परमात्मा के साथ सुरति जोड़े रख। हे मन! बार बार जप-जप के परमात्मा प्यारा लगने लग जाता है। हे भाई! गुरू की शरण पड़ने वाले मनुष्य प्रभू के दरबार में स्थान पा लेते हैं। रहाउ। हे भाई! अगर गुरू मिल जाए, तो मनुष्य आत्मिक जीवन की समझ हासिल कर लेता है, मनुष्य की सुरति विकारों से हट जाती है, दुनिया के कार्य-व्यवहार करता हुआ भी मनुष्य विकारों से अछूता हो जाता है। हे भाई! जिस मनुष्य की आत्मा को गुरू परमात्मा में मिला देता है, वह (असल) में सिख बन जाता है।1। हे भाई! गुरू के बिना (मनुष्य का प्रभू में) प्यार पैदा नहीं होता, अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (प्रभू को छोड़ के) और ही प्यार में टिके रहते हैं। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (जो भी धार्मिक) काम करते हैं वह (जैसे) फॅक ही कूटते हैं, (उनको, उन कर्मों में से) कुछ हासिल नहीं होता (जैसे फोक में से कुछ नहीं निकलता)।2। हे भाई! यदि गुरू मिल जाए, तो परमात्मा का नाम उसके मन में सदा बसा रहता है, मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू की प्रीति में प्यार में मगन रहता है। हे भाई! गुरू के बख्शे अटूट प्यार की बरकति से वह सदा परमात्मा के गुण गाता रहता है।3। हे भाई! जो मनुष्य गुरू की बताई हुई सेवा में चिक्त जोड़ता है उसका जगत में आया हुआ सफल हो जाता है। हे नानक! गुरू के माध्यम से परमात्मा का नाम प्राप्त हो जाता है, गुरू के शबद की बरकति से प्रभू से मिलाप हो जाता है।4।8। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |