श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 603 सोरठि महला ३ घरु १ ॥ तिही गुणी त्रिभवणु विआपिआ भाई गुरमुखि बूझ बुझाइ ॥ राम नामि लगि छूटीऐ भाई पूछहु गिआनीआ जाइ ॥१॥ मन रे त्रै गुण छोडि चउथै चितु लाइ ॥ हरि जीउ तेरै मनि वसै भाई सदा हरि के गुण गाइ ॥ रहाउ ॥ नामै ते सभि ऊपजे भाई नाइ विसरिऐ मरि जाइ ॥ अगिआनी जगतु अंधु है भाई सूते गए मुहाइ ॥२॥ गुरमुखि जागे से उबरे भाई भवजलु पारि उतारि ॥ जग महि लाहा हरि नामु है भाई हिरदै रखिआ उर धारि ॥३॥ गुर सरणाई उबरे भाई राम नामि लिव लाइ ॥ नानक नाउ बेड़ा नाउ तुलहड़ा भाई जितु लगि पारि जन पाइ ॥४॥९॥ {पन्ना 603} पद्अर्थ: तिही गुणी = (माया के) तीनों गुणों में (रजो, सतो व तमो गुण)। त्रिभवणु = तीन भवनों वाला जगत, सारा संसार। विआपिआ = फसा हुआ है। बूझ = (आत्मिक जीवन की) समझ। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने वाले मनुष्य। नामि = नाम में। गिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ वाला मनुष्य। जाइ = जा के।1। छोडि = छोड़ के। चउथै = उस अवस्था में जहाँ माया के तीनों गुण प्रभाव नहीं डाल सकते। मनि = मन में। रहाउ। नामै = नाम से ही। सभि = सारे। ऊपजे = आत्मिक जीवन प्राप्त करते हैं। नाइ विसरिअै = अगर नाम बिसर जाए। मरि जाइ = (आत्मिक मौत) मर जाता है। अगिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ से खाली। अंधु = माया के मोह में अंधा। मुहाइ = (आत्मिक जीवन का सरमाया) लुटा के।2। भवजलु = संसार समुंद्र। उतारि = उतारे, पार लंघाता है। उर = हृदय। धारि = टिका के।3। उथरे = (संसार समुंद्र में डूबने से) बच जाते हैं। लाइ = लगा के। बेड़ा = जहाज। तुलहड़ा = सुंदर तुलहा (तुलहा = लकड़ी और घास आदि से बाँध के दरिया पार करने के लिए बनाया हुआ जुगाड़)। जितु = जिस में। जितु लगि = जिस में चढ़ के।4। अर्थ: हे मेरे मन! (माया के) तीन गुणों (के प्रभाव) को छोड़ के उस अवस्था में टिक जहाँ इन तीनों का जोर नहीं पड़ता। हे भाई! परमात्मा तेरे मन में (ही) बसता है, सदा परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाया कर। रहाउ। हे भाई! सारा जगत माया के तीन गुणों में ही फसा हुआ है। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है (गुरू उसे) आत्मिक जीवन की समझ देता है। हे भाई! परमात्मा के नाम मेुं लीन हो के (माया के तीन गुणों की पकड़ से) बचना है, (अपनी तसल्ली के लिए) जा के पूछ लो उनको जिनको आत्मिक जीवन की समझ आ गई है।1। हे भाई! परमात्मा के नाम में जुड़ के ही सारे जीव आत्मिक जीवन जी सकते हैं। अगर नाम बिसर जाए, तो मनुष्य आत्मिक मौत मर जाता है। आत्मिक जीवन की समझ से वंचित जगत माया के मोह में अंधा हुआ रहता है। माया के मोह में सोए हुए मनुष्य आत्मिक जीवन की राशि पूँजी लुटा के जाते हैं।2। हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर (माया के मोह की नींद में से) जाग जाते हैं वे (संसार समुंद्र में) डूबने से बच जाते हैं, (गुरू उनको) संसार समुंद्र में से पार लंघा देता है। हे भाई! गुरू की शरण पड़ने वाला मनुष्य अपने हृदय में परमात्मा का नाम संभाल के रखता है, ये हरी-नाम ही जगत में (असली) लाभ है।3। हे भाई! गुरू की शरण पड़ के परमात्मा के नाम में सुरति जोड़ के मनुष्य (संसार समुंद्र में डूबने से) बच जाते हैं। हे नानक! (कह–) हे भाई! परमात्मा का नाम ही जहाज है, हरी नाम ही तुलहा है जिस पर चढ़ के मनुष्य (संसार समुंद्र से) पार लांघ जाता है।4।9। सोरठि महला ३ घरु १ ॥ सतिगुरु सुख सागरु जग अंतरि होर थै सुखु नाही ॥ हउमै जगतु दुखि रोगि विआपिआ मरि जनमै रोवै धाही ॥१॥ प्राणी सतिगुरु सेवि सुखु पाइ ॥ सतिगुरु सेवहि ता सुखु पावहि नाहि त जाहिगा जनमु गवाइ ॥ रहाउ ॥ त्रै गुण धातु बहु करम कमावहि हरि रस सादु न आइआ ॥ संधिआ तरपणु करहि गाइत्री बिनु बूझे दुखु पाइआ ॥२॥ सतिगुरु सेवे सो वडभागी जिस नो आपि मिलाए ॥ हरि रसु पी जन सदा त्रिपतासे विचहु आपु गवाए ॥३॥ इहु जगु अंधा सभु अंधु कमावै बिनु गुर मगु न पाए ॥ नानक सतिगुरु मिलै त अखी वेखै घरै अंदरि सचु पाए ॥४॥१०॥ {पन्ना 603} पद्अर्थ: सुखु सागरु = सुखों का समुंद्र। अंतरि = में। होर थै = किसी और जगह में। दुखि = दुख में। रोगि = रोग में। विआपिआ = ग्रसा हुआ। मरि = मर के। धाही = धाहें मार मार के।1। प्राणी = हे बंदे! सेवि = सेवा कर। गवाइ = गवा के। रहाउ। धातु = माया। करम = (निहित धार्मिक) कर्म। कमावहि = करते हैं। सादु = स्वाद। संधिआ = सवेरे दोपहर और शाम की पूजा। तरपणु = पित्रों और देवताओं को जल भेट करना।2। जिस नो = जिस को (‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हट गई है)। पी = पी के। त्रिपतासे = तृप्त रहते हैं। आपु = स्वै भाव। गवाऐ = गवा के।3। अंधु = अंधों वाला काम। मगु = रास्ता। अखी = (अपनी) आँखों से। घरै अंदरि = घर में ही। घर अंदरि = घर में। सचु = सदा कायम रहने वाला प्रभू। पाऐ = ढूँढ लेता है।4। अर्थ: हे बँदे! गुरू की शरण पड़, और आत्मिक आनंद ले। अगर तू गुरू की बताई हुई सेवा करेगा, तो सुख पाएगा। नहीं तो अपना जीवन व्यर्थ गुजार के (यहाँ से) चला जाएगा। रहाउ। हे भाई! जगत में गुरू (ही) सुख का सागर है, (गुरू के बिना) किसी और को सुख नहीं मिलता। जगत अपने अहंकार के कारण (गुरू से टूट के) दुख में रोग में ग्रसित रहता है, बार बार पैदा होता है मरता है, धाड़ें मार मार के रोता है (दुखी होता है)।1। हे भाई! गुरू से टूटे हुए मनुष्य माया के तीनों गुणों के प्रभाव में (निहित धार्मिक) कर्म करते हैं, पर उन्हें परमात्मा के नाम का स्वाद नहीं आता। तीनों वक्त संध्या पाठ करते हैं, पित्रों-देवताओं को जल अर्पण करते हैं, गायत्री मंत्र का पाठ करते हैं, पर आत्मिक जीवन की समझ के बिना उनको दुख ही मिलता है।2। हे भाई! वह मनुष्य भाग्यशाली है जो गुरू की बताई हुई सेवा करता है (पर गुरू उसी को मिलता है) जिसे परमात्मा स्वयं मिलाए। (गुरू की शरण पड़ने वाले) मनुष्य अपने अंदर से स्वै-भाव दूर करके (गुरू से) परमात्मा के नाम का रस पी के सदा तृप्त रहते हैं।3। हे भाई! ये जगत माया के मोह में अंधा हुआ पड़ा है, अंधों वाले ही सदा काम करता है। गुरू की शरण पड़े बिना (जीवन का सही) रास्ता नहीं मिल सकता। हे नानक! अगर इसे गुरू मिल जाए, तो (परमात्मा को) आँखों से देख लेता है, अपने हृदय-घर में सदा कायम रहने वाले परमात्मा को पा लेता है।4।10। सोरठि महला ३ ॥ बिनु सतिगुर सेवे बहुता दुखु लागा जुग चारे भरमाई ॥ हम दीन तुम जुगु जुगु दाते सबदे देहि बुझाई ॥१॥ हरि जीउ क्रिपा करहु तुम पिआरे ॥ सतिगुरु दाता मेलि मिलावहु हरि नामु देवहु आधारे ॥ रहाउ ॥ मनसा मारि दुबिधा सहजि समाणी पाइआ नामु अपारा ॥ हरि रसु चाखि मनु निरमलु होआ किलबिख काटणहारा ॥२॥ सबदि मरहु फिरि जीवहु सद ही ता फिरि मरणु न होई ॥ अम्रितु नामु सदा मनि मीठा सबदे पावै कोई ॥३॥ दातै दाति रखी हथि अपणै जिसु भावै तिसु देई ॥ नानक नामि रते सुखु पाइआ दरगह जापहि सेई ॥४॥११॥ {पन्ना 603-604} पद्अर्थ: जुग चारे = चारों युगों में। भरमाई = भटकता है। दीन = कंगाल, मंगते। सबदे = गुरू के शबद द्वारा। देहि = तू देता है। बुझाई = समझ।1। आधारे = आसरा। रहाउ। मनसा = मनीषा, वासना। मारि = मार के। दुबिधा = दो किस्मा पन, डाँवा डोल हालत। सहजि = आत्मिक अडोलता में। किलबिख = पाप।2। सबदि = शबद से। मरहु = (विकारों की ओर से) अछोह हो जाओ। जीवहु = आत्मिक जीवन हासिल कर लोगे। सद ही = सदा ही। मरणु = आत्मिक मौत। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। मनि = मन में।3। दातै = दाते ने। हथि = हाथ में। देई = देता है। जापहि = आदर पाते हैं, प्रगट होते हैं।4। अर्थ: हे प्यारे प्रभू जी! (मेरे पर) मेहर कर, तेरे नाम की दाति देने वाला गुरू मुझे मिला, और (मेरी जिंदगी का) सहारा अपना नाम मुझे दे। रहाउ। हे भाई! गुरू की शरण पड़े बिना मनुष्य को बहुत सारे दुख चिपके रहते हैं, मनुष्य सदा ही भटकता फिरता है। हे प्रभू! हम (जीव, तेरे दर के) मंगते हैं, तू सदा ही (हमें) दातें देने वाला है, (मेहर कर, गुरू के) शबद में जोड़ के आत्मिक जीवन की समझ दे।1। (हे भाई! गुरू की शरण पड़ कर जिस मनुष्य ने) बेअंत प्रभू का नाम हासिल कर लिया (नाम की बरकति से) वासना खत्म करके उसकी मानसिक डाँवा डोल हालत आत्मिक अडोलता में लीन हो जाती है। हे भाई! परमात्मा का नाम सारे पाप काटने के समर्थ है (जो मनुष्य नाम प्राप्त कर लेता है) हरी-नाम का स्वाद चख के उसका मन पवित्र हो जाता है।2। हे भाई! गुरू के शबद में जुड़ के (विकारों से) अछोह हो जाओ, फिर सदा के लिए ही आत्मिक जीवन जीते रहोगे, फिर कभी आत्मिक मौत नजदीक नहीं फटकेगी। जो भी मनुष्य गुरू के शबद के द्वारा हरी-नाम प्राप्त कर लेता है उसको ये आत्मिक जीवन देने वाला नाम सदा के लिए मन में मीठा लगने लगता है।3। हे भाई! दातार ने (नाम की ये) दाति अपने हाथ में रखी हुई है, जिसे चाहता है उसे दे देता है। हे नानक! जो मनुष्य प्रभू के नाम-रंग में रंगे जाते हैं, वह (यहाँ) सुख पाते हैं, परमात्मा की हजूरी में भी वही मनुष्य आदर मान पाते हैं।4।11। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |