श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सोरठि महला ३ ॥ सतिगुर सेवे ता सहज धुनि उपजै गति मति तद ही पाए ॥ हरि का नामु सचा मनि वसिआ नामे नामि समाए ॥१॥ बिनु सतिगुर सभु जगु बउराना ॥ मनमुखि अंधा सबदु न जाणै झूठै भरमि भुलाना ॥ रहाउ ॥ त्रै गुण माइआ भरमि भुलाइआ हउमै बंधन कमाए ॥ जमणु मरणु सिर ऊपरि ऊभउ गरभ जोनि दुखु पाए ॥२॥ त्रै गुण वरतहि सगल संसारा हउमै विचि पति खोई ॥ गुरमुखि होवै चउथा पदु चीनै राम नामि सुखु होई ॥३॥ त्रै गुण सभि तेरे तू आपे करता जो तू करहि सु होई ॥ नानक राम नामि निसतारा सबदे हउमै खोई ॥४॥१२॥ {पन्ना 604}

पद्अर्थ: सहज धुनि = आत्मिक अडोलता की रौंअ। उपजै = पैदा हो जाती है। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। तद ही = तब ही। मनि = मन में। नामे नामि = नाम में ही नाम में, सदा नाम में ही।1।

बउराना = कमला, झल्ला। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला। भरमि = भटकना में। रहाउ।

भुलाइआ = गलत रास्ते पर पड़ा रहता है। ऊभउ = खड़ा हुआ।2।

वरतहि = प्रभाव डाले रखते हैं। पति = इज्जत। चउथा पदु = वह आत्मिक दर्जा जहाँ माया के तीन गुण अपना असर नहीं डाल सकते। नामि = नाम से।3।

सभि = सारे। आपे = आप ही। निसतारा = पार उतारा, पूर्ण मुक्ति।4।

अर्थ: हे भाई! गुरू की शरण पड़े बिना सारा जगत (माया के मोह में) पागल हुआ फिरता है। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (माया के मोह में) अंधा हो के गुरू के शबद के साथ गहरी सांझ नहीं डालता। झूठी दुनिया के कारण भटकना में पड़ कर गलत राह पर पड़ा रहता है। रहाउ।

हे भाई! जब मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है तब (इसके अंदर) आत्मिक अडोलता की रौंअ चल पड़ती है। तब ही (गुरू की शरण पड़ के ही) मनुष्य उच्च आत्मिक अवस्था और ऊँची मति हासिल करता है। सदा कायम रहने वाला हरी-नाम मनुष्य के मन में आ बसता है, और मनुष्य सदा नाम में ही लीन रहता है।1।

हे भाई! मनुष्य त्रैगुणी माया में पड़ कर कुमार्ग पर पड़ा रहता है, और अहंकार के कारण मोह के बंधन बढ़ाने वाले काम ही करता है। उसके सिर पर हर वक्त जनम-मरन का चक्र हर समय टिका रहता है, और जनम-मरण में पड़ कर दुख सहता रहता है।

हे भाई! माया के तीन गुण सारे संसार पर अपना प्रभाव डाले रखते हैं, (इनके असर तले मनुष्य) अहंम् में फस के सम्मान गवा लेता है। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, वह उस आत्मिक अवस्था को पहचान लेता है जहाँ माया के तीनों गुण असर नहीं डाल सकते, परमात्मा के नाम में टिक के वह आत्मिक आनंद लेता है।3।

हे प्रभू! माया के ये तीनों गुण तेरे ही बनाए हुए हैं, तू स्वयं ही (सब को) पैदा करने वाला है। (जगत में) वही होता है जो तू करता है। हे नानक! (कह– हे भाई!) परमात्मा के नाम में जुड़ने से (माया के तीनों गुणों से) पूरी तरह से मुक्ति मिल जाती है। मनुष्य गुरू के शबद की बरकति से ही (अपने अंदर से) अहंकार दूर कर सकता है।4।12।

सोरठि महला ४ घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

आपे आपि वरतदा पिआरा आपे आपि अपाहु ॥ वणजारा जगु आपि है पिआरा आपे साचा साहु ॥ आपे वणजु वापारीआ पिआरा आपे सचु वेसाहु ॥१॥ जपि मन हरि हरि नामु सलाह ॥ गुर किरपा ते पाईऐ पिआरा अम्रितु अगम अथाह ॥ रहाउ ॥ आपे सुणि सभ वेखदा पिआरा मुखि बोले आपि मुहाहु ॥ आपे उझड़ि पाइदा पिआरा आपि विखाले राहु ॥ आपे ही सभु आपि है पिआरा आपे वेपरवाहु ॥२॥ आपे आपि उपाइदा पिआरा सिरि आपे धंधड़ै लाहु ॥ आपि कराए साखती पिआरा आपि मारे मरि जाहु ॥ आपे पतणु पातणी पिआरा आपे पारि लंघाहु ॥३॥ आपे सागरु बोहिथा पिआरा गुरु खेवटु आपि चलाहु ॥ आपे ही चड़ि लंघदा पिआरा करि चोज वेखै पातिसाहु ॥ आपे आपि दइआलु है पिआरा जन नानक बखसि मिलाहु ॥४॥१॥ {पन्ना 604}

पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। वरतदा = (हर जगह) मौजूद है। अपाहु = अ+पाहु, पाह से रहित, निर्लिप। साचा = सदा कायम रहने वाला। साहु = शाहूकार, वणजारों को राशि देने वाला। सचु = सदा स्थिर। वेसाहु = राशि पूँजी, सरमाया।1।

मन = हे मन! सलाह = सिफत सालाह। ते = से। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। अगम = अपहुँच। अथाह = जिसके अस्तित्व की गहराई नहीं पाई जा सकती। रहाउ।

सुणि = सुन के। वेखदा = संभाल करता है। मुखि = मुंह से। मुहाहु = मोह लेने वाले बोल, मीठे बोल। उझड़ि = गलत रास्ते पर। सभु = हर जगह।2।

सिरि = सिरि सिरि, हरेक के सिर पर। धंधड़ै = धंधे में। लाहु = लगाता है। साखती = बनतर, रचना। मरि जाहु = मर जाता है। पातणी = पक्तन का मल्लाह।3।

सागरु = समुंद्र। बोहिथा = जहाज़। खेवटु = मल्लाह। चढ़ि = (जहाज़ में) चढ़ के। चोज = करिश्मे, तमाशे। करि = कर के। बखसि = बख्शिश कर के, दया करके।4।

अर्थ: हे (मेरे) मन! सदा परमात्मा का नाम सिमरा कर, सिफत सालाह किया कर। (हे भाई!) गुरू की मेहर से ही वह प्यारा प्रभू मिल सकता है, जो आत्मिक जीवन देने वाला है, जो अपहुँच है, और जो बहुत गहरा है। रहाउ।

हे भाई! प्रभू स्वयं ही हर जगह मौजूद है (व्यापक होते हुए भी) प्रभू स्वयं ही निर्लिप (भी) है। जगत-बणजारा प्रभू स्वयं ही है (जगत-बणजारे को राशि-पूँजी देने वाला भी) सदा कायम रहने वाला प्रभू स्वयं ही शाहूकार है। प्रभू स्वयं ही वणज है, स्वयं ही व्यापार करने वाला है, स्वयं ही सदा-स्थिर रहने वाली राशि-पूँजी है।1।

हे भाई! प्रभू स्वयं ही (जीवों की अरदासें) सुन के सब की संभाल करता है, स्वयं ही मुँह से (जीवों को ढाढस देने के लिए) मीठे बोल बोलता है। प्यारा प्रभू सवयं ही (जीवों को) गलत राह पर डाल देता है, स्वयं ही (जिंदगी का सही) रास्ता दिखाता है। हे भाई! हर जगह प्रभू स्वयं ही स्वयं है (इतने कुछ का मालिक होते हुए भी) प्रभू बेपरवाह रहता है।2।

हे भाई! प्रभू खुद ही (सब जीवों को) पैदा करता है, स्वयं ही हरेक जीव को माया के चक्कर में लगाए रखता है, प्रभू खुद ही (जीवों की) बनतर बनाता है, खुद ही मारता है, (तो उसका पैदा किया हुआ जीव) मर जाता है। प्रभू खुद ही (संसार नदी पर) पक्तन है, खुद ही मल्लाह है, खुद ही (जीवों को) पार लंघाता है।3।

हे भाई! प्रभू खुद ही (संसार-) समुंद्र है, खुद ही जहाज है, खुद ही गुरू-मल्लाह हो के जहाज़ को चलाता है। प्रभू खुद ही (जहाज़ में) चढ़ के पार होता है। प्रभू-पातशाह करिश्मे-तमाशे करके खुद ही (इन तमाशों को) देख रहा है। हे नानक! (कह–) प्रभू खुद ही (सदा) दया का श्रोत है, खुद ही कृपा करके (अपने पैदा किए हुए जीवों को अपने साथ) मिला लेता है।4।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh