श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 605 सोरठि महला ४ चउथा ॥ आपे अंडज जेरज सेतज उतभुज आपे खंड आपे सभ लोइ ॥ आपे सूतु आपे बहु मणीआ करि सकती जगतु परोइ ॥ आपे ही सूतधारु है पिआरा सूतु खिंचे ढहि ढेरी होइ ॥१॥ मेरे मन मै हरि बिनु अवरु न कोइ ॥ सतिगुर विचि नामु निधानु है पिआरा करि दइआ अम्रितु मुखि चोइ ॥ रहाउ ॥ आपे जल थलि सभतु है पिआरा प्रभु आपे करे सु होइ ॥ सभना रिजकु समाहदा पिआरा दूजा अवरु न कोइ ॥ आपे खेल खेलाइदा पिआरा आपे करे सु होइ ॥२॥ आपे ही आपि निरमला पिआरा आपे निरमल सोइ ॥ आपे कीमति पाइदा पिआरा आपे करे सु होइ ॥ आपे अलखु न लखीऐ पिआरा आपि लखावै सोइ ॥३॥ आपे गहिर ग्मभीरु है पिआरा तिसु जेवडु अवरु न कोइ ॥ सभि घट आपे भोगवै पिआरा विचि नारी पुरख सभु सोइ ॥ नानक गुपतु वरतदा पिआरा गुरमुखि परगटु होइ ॥४॥२॥ {पन्ना 604-605} नोट: अंक ४ को ‘चउथा’ पढ़ना है। ये हिदायत उदाहरण स्वरूप है। शब्द ‘महला’ के साथ अंक १,२,३,४,५ आदि को हर जगह पहला, दूजा, तीजा, चौथा, पंजवां आदि ही पढ़ना है। इसका भाव है– गुरू नानक पहला शरीर, दूजा शरीर, तीजा शरीर, चउथा शरीर, पंजवां शरीर आदि। पद्अर्थ: आपे = खुद ही। अंडज = अण्डे से पैदा होने वाली श्रेणी। जेरज = गर्भ/जिउर से पैदा होने वाली। सेतज = पसीने से पैदा होने वाली। उतभुज = उगने वाले (बनस्पति)। खंड = धरती के हिस्से। लोइ = लोक, भवन। सूतु = धागा। मणीआ = मणके (जीव)। करि = कर के। सकती = शक्ति। परोइ = परोता है। सूतधारु = सूत्रधार, धागे को अपने हाथ पकड़े रखने वाला। खिंचे = खीचता है। ढहि = गिरा के।1। निधान = खजाना। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। मुखि = मुंह में। चोइ = टपकाता है, चोअता है। रहाउ। जल थलि = जल में थल में। सभतु = हर जगह। समाहदा = पहुँचाता है।2। गंभीरु = गहरे जिगरे वाला। तिसु जेवडु = उस जितना बड़ा। सभि = सारे। गुरमुखि = गुरू से।4। अर्थ: हे मेरे मन! मुझे परमात्मा के बिना (कहीं भी) कोई और नहीं दिखता। उस परमात्मा का नाम-खजाना गुरू में मौजूद है। गुरू मेहर करके आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल (सिख के) मुँह में टपकाता है। रहाउ। हे भाई! प्रभू स्वयं ही (चारों खाणियां) अण्डज, जेरज, सेतज और उत्भुज है, प्रभू खुद ही (धरती के नौ) खण्ड है, प्रभू स्वयं ही (सृष्टि के) सारे भवन है। प्रभू खुद ही (सत्य-रूप) धागा (सूत्र) है, प्रभू खुद (बेअंत जीव के रूप में) अनेकों मणके है, प्रभू खुद ही अपनी ताकत बना के जगत को (धागे में) परोता है। प्रभू खुद ही धागे को अपने हाथ में पकड़ के रखने वाला (सूत्रधार) है। जब वह (जगत में से) धागे को खींच लेता है, तब (जगत) गिर के ढेरी हो जाता है (जगत-रचना समाप्त हो जाती है)।1। हे भाई! प्रभू खुद ही पानी में धरती में हर जगह मौजूद है। प्रभू खुद ही जो कुछ करता है वह (जगत में) घटित होता है। प्रभू खुद ही सब जीवों को रिजक पहुँचाता है (रिजक देने वाला) उसके बिना और कोई नहीं है। प्रभू खुद ही (जगत के सारे) खेल खेल रहा है, वह स्वयं जो कुछ करता है वही होता है।2। हे भाई! पवित्र प्रभू (हर जगह) खुद ही खुद है, वह खुद ही पवित्र शोभा का मालिक है। प्रभू खुद ही अपना मूल्य पा सकने वाला है, जो कुछ खुद ही करता है वही होता है। प्रभू का स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, वह अदृश्य है। अपने स्वरूप की समझ वह आप ही देने वाला है।3। हे भाई! प्रभू ही (जैसे, एक) बेअंत गहरा (समुंद्र) है। उसके बराबर का और कोई नहीं है। सारे जीवों में व्यापक हो के आप ही सारे भोग भोगता है, हरेक स्त्री-पुरुष में हर जगह वहआप ही आप है। हे नानक! वह प्रभू सारे जगत में छुपा हुआ मौजूद है। गुरू की शरण पड़ने से उसकी सर्व-व्यापकता का प्रकाश होता है।4।2। सोरठि महला ४ ॥ आपे ही सभु आपि है पिआरा आपे थापि उथापै ॥ आपे वेखि विगसदा पिआरा करि चोज वेखै प्रभु आपै ॥ आपे वणि तिणि सभतु है पिआरा आपे गुरमुखि जापै ॥१॥ जपि मन हरि हरि नाम रसि ध्रापै ॥ अम्रित नामु महा रसु मीठा गुर सबदी चखि जापै ॥ रहाउ ॥ आपे तीरथु तुलहड़ा पिआरा आपि तरै प्रभु आपै ॥ आपे जालु वताइदा पिआरा सभु जगु मछुली हरि आपै ॥ आपि अभुलु न भुलई पिआरा अवरु न दूजा जापै ॥२॥ आपे सिंङी नादु है पिआरा धुनि आपि वजाए आपै ॥ आपे जोगी पुरखु है पिआरा आपे ही तपु तापै ॥ आपे सतिगुरु आपि है चेला उपदेसु करै प्रभु आपै ॥३॥ आपे नाउ जपाइदा पिआरा आपे ही जपु जापै ॥ आपे अम्रितु आपि है पिआरा आपे ही रसु आपै ॥ आपे आपि सलाहदा पिआरा जन नानक हरि रसि ध्रापै ॥४॥३॥ {पन्ना 605} पद्अर्थ: सभु = हर जगह। थापि = पैदा करके। उथापै = नाश करता है। वेखि = देख के। विगसदा = खुश होता है। करि = कर के। चोज = तमाशे। आपै = अपने आप को। वणि = बन में। तिणि = तृण में। सभतु = हर जगह। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। जापै = दिखता है।1। रसि = रस से। ध्रापै = तृप्त हो जाता है। चखि = चख के। जापै = मालूम होता है। रहाउ। आपे = खुद ही। तीरथु = दरिया का किनारा। तुलहड़ा = दरिया पार करने के लिए लकड़ी का बनाया हुआ गठा। वताइदा = बिखेरता है।2। नादु = (सिंङी की) आवाज। धुनि = सुर। तापै = तपता है।3। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। रसु = स्वाद। रसि = रस से। ध्रापै = तृप्त होता है।4। अर्थ: हे मेरे मन! सदा परमात्मा (के नाम) को जपा कर, (जो मनुष्य जपता है वह) नाम के रस से (माया की ओर से) तृप्त हो जाता है। हे मन! आत्मिक जीवन देने वाला हरी-नाम-जल बहुत स्वादिष्ट है, बहुत मीठा है। गुरू के शबद के द्वारा चख के ही पता चलता है। रहाउ। हे भाई! हर जगह प्रभू खुद ही खुद है, खुद ही (जगत को) पैदा करके खुद ही नाश कर देता है। प्रभू खुद ही (जगत-रचना को) देख के खुश होता है, करिश्मे-तमाशे रच के खुद ही देखता है, अपने आप को ही देखता है। प्रभू आप ही (हरेक) बन में (हरेक) तीले में हर जगह मौजूद है। गुरू की शरण पड़ा वह प्रभू दिखाई दे जाता है।1। हे भाई! प्रभू आप ही दरिया का किनारा है, आप ही (दरिया से पार लांघने के लिए) तुलहा है, आप ही (दरिया से) पार लांघता है, अपने आप को ही पार लंघाता है। प्रभू खुद ही (माया का) जाल बिछाता है (उस जाल में फसने वाली) जगत रूपी मछली भी अपने आप को ही बनाता है। (फिर भी वह) आप भूलने वाला नहीं है, वह कभी (भी माया-जाल में फसने वाली) भूल नहीं करता। उसके बराबर का और कोई नहीं दिखता।2। हे भाई! प्रभू स्वयं ही (जोगी के बजाने वाली) सिंगी है, स्वयं ही (उस बजती सिंगी की) आवाज है, स्वयं ही (सिंगी के) सुर बजाता है। वह सर्व-व्यापक प्रभू आप ही जोगी है, आप ही (धूणियों आदि से) तप करता है। प्रभू आप ही गुरू है, आप ही सिख है, आप ही अपने आप को उपदेश करता है।3। हे भाई! प्रभू आप ही (जीवों से अपना) नाम जपाता है (जीवों में व्याप्त हो के) आप ही अपना नाम जपता है। आप ही आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल है, आप ही उस नाम-रस को पीता है, अपने आप को पीता है। हे दास नानक! प्रभू आप ही अपनी सिफत सालाह करता है, आप ही अपने नाम-रस से तृप्त होता है।4।3। सोरठि महला ४ ॥ आपे कंडा आपि तराजी प्रभि आपे तोलि तोलाइआ ॥ आपे साहु आपे वणजारा आपे वणजु कराइआ ॥ आपे धरती साजीअनु पिआरै पिछै टंकु चड़ाइआ ॥१॥ मेरे मन हरि हरि धिआइ सुखु पाइआ ॥ हरि हरि नामु निधानु है पिआरा गुरि पूरै मीठा लाइआ ॥ रहाउ ॥ आपे धरती आपि जलु पिआरा आपे करे कराइआ ॥ आपे हुकमि वरतदा पिआरा जलु माटी बंधि रखाइआ ॥ आपे ही भउ पाइदा पिआरा बंनि बकरी सीहु हढाइआ ॥२॥ आपे कासट आपि हरि पिआरा विचि कासट अगनि रखाइआ ॥ आपे ही आपि वरतदा पिआरा भै अगनि न सकै जलाइआ ॥ आपे मारि जीवाइदा पिआरा साह लैदे सभि लवाइआ ॥३॥ आपे ताणु दीबाणु है पिआरा आपे कारै लाइआ ॥ जिउ आपि चलाए तिउ चलीऐ पिआरे जिउ हरि प्रभ मेरे भाइआ ॥ आपे जंती जंतु है पिआरा जन नानक वजहि वजाइआ ॥४॥४॥ {पन्ना 605-606} पद्अर्थ: कंडा = तराजू की ऊपरी बीच की सूई। तराजी = तराजू। प्रभि = प्रभू ने। तोलि = तोल से, बाँट से। साहु = शाह, शाहूकार। साजीअनु = उस (प्रभू) ने सजाई है। पिआरै = प्यारे (प्रभू) ने। पिदे = तराजू के पीछे वाले छाबे में। टंकु = चार मासे का बाँट।1। मन = हे मन! निधान = खजाना। गुरि पूरै = पूरे गुरू ने। रहाउ। आपे = आप ही। हुकमि = हुकम के द्वारा। वरतदा = मौजूद है। बंधि = बाँध के। भउ = डर। बंनि = बाँध के। सीहु = शेर (को)। हढाइआ = घुमा रहा है।2। कासठ = काष्ठ, लकड़ी। भै = डर के कारण। अगनि = आग। मारि = मार के। सभि = सारे।3। ताणु = ताकत। दीबाणु = दरबार लगाने वाला, हाकिम। कारै = कार में। चलीअै = चल सकते हैं। पिआरे = हे प्यारे (भाई!)। प्रभ भाइआ = प्रभू को अच्छा लगता है। जंती = बाजा बजाने वाला। जंतु = जंत्र, बाजा। वजहि = बजते हैं।4। अर्थ: हे मेरे मन! सदा परमात्मा का सिमरन कर, (जिस किसी ने सिमरा है, उसने) सुख पाया है। हे भाई! परमात्मा का नाम (सारे) सुखों का खजाना है (जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ा है) पूरे गुरू ने उसे परमात्मा का नाम मीठा अनुभव करा दिया है। रहाउ। हे भाई! प्रभू ने खुद ही धरती पैदा की हुई है, (अपनी मर्यादा रूपी तराजू के) पीछे के छाबे में चार मासे बाँट रख के (प्रभू ने खुद ही इस सृष्टि को मर्यादा में रखा हुआ है। ये काम उस प्रभू के लिए बहुत साधारण और आसान सा है)। वह तराजू भी प्रभू खुद ही है, उस तराजू की सुई भी प्रभू खुद ही है, प्रभू ने खुद ही बाँट से (इस सृष्टि को) तोला हुआ है (अपने हुकम में रखा हुआ है)। प्रभू खुद ही (इस धरती पर वणज करने वाला) शहूकार है, खुद ही (जीव-रूप हो के) वणज करने वाला है, खुद ही वणज कर रहा है।1। हे भाई! प्रभू प्यारा खुद ही धरती पैदा करने वाला है, आप ही पानी पैदा करने वाला है, आप ही सब कुछ करता है आप ही (जीवों से सब कुछ) करवाता है। आप ही अपने हुकम अनुसार हर जगह कार्य चला रहा है, पानी को मिट्टी से (उसने अपने हुकम में ही) बाँध रखा है (पानी मिट्टी को बहा नहीं सकता, पानी में उसने) खुद ही अपना डर रखा है, (जैसे) बकरी शेर को बाँध के घुमा रही है।2। हे भाई! प्रभू खुद ही लकड़ी (पैदा करने वाला) है, (आप ही आग बनाने वाला है) लकड़ी में उसने खुद ही आग टिका रखी है। प्रभू प्यारा खुद ही अपना हुकम वरता रहा है (उसके हुकम में) आग (लकड़ी को) जला नहीं सकती। प्रभू खुद ही मार के जिंदा करने वाला है। सारे जीव उसके परोए हुए ही सांस ले रहे हैं।3। हे भाई! प्रभू खुद ही ताकत है, खुद ही (शक्ति इस्तेमाल करने वाला) हाकिम है, (सारे जगत को उसने) अपने आप ही काम में लगाया हुआ है। हे प्यारे सज्जन! जैसे प्रभू खुद जीवों को चलाता है, जैसे मेरे हरी प्रभू को भाता है, वैसे ही चल सकते हैं। हे दास नानक! प्रभू खुद ही (जीव-) बाजा (बनाने वाला) है, खुद बाजा बजाने वाला है, सारे जीव-बाजे उसके बजाए बज रहे हैं।4।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |