श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सोरठि महला ४ ॥ आपे स्रिसटि उपाइदा पिआरा करि सूरजु चंदु चानाणु ॥ आपि निताणिआ ताणु है पिआरा आपि निमाणिआ माणु ॥ आपि दइआ करि रखदा पिआरा आपे सुघड़ु सुजाणु ॥१॥ मेरे मन जपि राम नामु नीसाणु ॥ सतसंगति मिलि धिआइ तू हरि हरि बहुड़ि न आवण जाणु ॥ रहाउ ॥ आपे ही गुण वरतदा पिआरा आपे ही परवाणु ॥ आपे बखस कराइदा पिआरा आपे सचु नीसाणु ॥ आपे हुकमि वरतदा पिआरा आपे ही फुरमाणु ॥२॥ आपे भगति भंडार है पिआरा आपे देवै दाणु ॥ आपे सेव कराइदा पिआरा आपि दिवावै माणु ॥ आपे ताड़ी लाइदा पिआरा आपे गुणी निधानु ॥३॥ आपे वडा आपि है पिआरा आपे ही परधाणु ॥ आपे कीमति पाइदा पिआरा आपे तुलु परवाणु ॥ आपे अतुलु तुलाइदा पिआरा जन नानक सद कुरबाणु ॥४॥५॥ {पन्ना 606}

पद्अर्थ: करि = कर के, बना के। चानाणु = प्रकाश। ताणु = सहारा, आसरा। सुघड़ु = सुचॅजी आत्मिक घाड़त वाला। सुजाणु = सयाना, सबके दिल की जानने वाला।1।

नीसाणु = जीवन सफर में राहदारी। रहाउ।

वरतदा = बाँटता। परवाणु = कबूल (करता है)। बखस = बख्शिश। सचु = सदा कायम रहने वाला। नीसाणु = निशान, झण्डा, प्रकाश स्तम्भ।, हुकमि = हुकम अनुसार। फुरमाणु = हुकम।2।

भंडार = खजाने। दाणु = दान, बख्शीश। माणु = आदर। ताड़ी = समाधि। गुणी निधानु = गुणों का खजाना।3।

परधाणु = जाने माने। तुलु = तराजू। परवाणु = बॉट (तौलने वाले)।4।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम सिमरा कर। (नाम ही जीवन-यात्रा के लिए) राहदारी है। हे भाई! साध-संगति में मिल के तू परमात्मा का ध्यान धरा कर, (ध्यान की बरकति से) दुबारा जनम-मरन का चक्कर नहीं रहेगा। रहाउ।

हे भाई! वह प्यारा प्रभू खुद ही सृष्टि पैदा करता है, और (सुष्टि को) रौशन करने के लिए सूर्य चंद्रमा बनाता है। प्रभू खुद ही निआसरों का आसरा है, जिन्हें कोई आदर-मान नहीं देता उनको आदर-मान देने वाला है। वह प्यारा प्रभू सुंदर आत्मिक घाड़त वाला है, सबके दिल की जानने वाला है, वह मेहर करके आप सबकी रक्षा करता है।1।

हे भाई! वह प्यारा प्रभू खुद ही (जीवों को अपने) गुणों की दाति देता है, खुद ही जीवों को अपनी हजूरी में कबूल करता है। प्रभू खुद ही सब पर बख्शिश करता है, वह खुद ही (जीवों के लिए) सदा कायम रहने वाला प्रकाश-स्तम्भ है। वह प्यारा प्रभू खुद ही (जीवों को) हुकम में चलाता है, खुद ही हर जगह हुकम चलाता है।2।

हे भाई! वह प्यारा प्रभू (अपनी) भक्ति के खजानों वाला है, खुद ही (जीवों को अपनी भक्ति की) दाति देता है। प्रभू खुद ही (जीवों से) सेवा-भक्ति करवाता है, और खुद ही (सेवा-भक्ति करने वालों को जगत से) आदर दिलवाता है। वह प्रभू खुद ही गुणों का खजाना है, और खुद ही (अपने गुणों में) समाधि लगाता है।3।

हे भाई! वह प्रभू प्यारा आप ही सबसे बड़ा है और जाना-माना है। वह खुद ही (अपना) तौल और पैमाना बरत के (अपने पैदा किए हुए जीवों का) मूल्य डालता है। वह प्रभू आप अतुल्य है (उसकी बुजुर्गी की पैमाइश नहीं हो सकती) वह (जीवों के जीवन सदा) तौलता है। हे दास नानक! (कह–) मैं सदा उससे सदके जाता हूँ।4।5।

सोरठि महला ४ ॥ आपे सेवा लाइदा पिआरा आपे भगति उमाहा ॥ आपे गुण गावाइदा पिआरा आपे सबदि समाहा ॥ आपे लेखणि आपि लिखारी आपे लेखु लिखाहा ॥१॥ मेरे मन जपि राम नामु ओमाहा ॥ अनदिनु अनदु होवै वडभागी लै गुरि पूरै हरि लाहा ॥ रहाउ ॥ आपे गोपी कानु है पिआरा बनि आपे गऊ चराहा ॥ आपे सावल सुंदरा पिआरा आपे वंसु वजाहा ॥ कुवलीआ पीड़ु आपि मराइदा पिआरा करि बालक रूपि पचाहा ॥२॥ आपि अखाड़ा पाइदा पिआरा करि वेखै आपि चोजाहा ॥ करि बालक रूप उपाइदा पिआरा चंडूरु कंसु केसु माराहा ॥ आपे ही बलु आपि है पिआरा बलु भंनै मूरख मुगधाहा ॥३॥ सभु आपे जगतु उपाइदा पिआरा वसि आपे जुगति हथाहा ॥ गलि जेवड़ी आपे पाइदा पिआरा जिउ प्रभु खिंचै तिउ जाहा ॥ जो गरबै सो पचसी पिआरे जपि नानक भगति समाहा ॥४॥६॥ {पन्ना 606}

पद्अर्थ: उमाहा = उत्साह। सबदि = शबद में। समाहा = लीनता पैदा करता है। लेखणि = कलम।1।

ओमाहा = उत्साह (से)। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। गुरि पूरै = पूरे गुरू के द्वारा। रहाउ।

गोपी = ग्वालों की सि्त्रयां। कानु = कृष्ण। बनि = जंगल में, विंद्रावन में। सावल सुंदरा = साँवले रंग वाला सुंदर (कृष्ण)। वंसु = बाँसुरी। कुवलीआपीड़ु = कृष्ण को मारने के लिए कंस द्वारा भेजा हुआ हाथी। रूपि = रूप में। पचाहा = नाश।2।

अखाड़ा = (जगत) भूमि, मैदान। चोजाहा = तमाशे, खेल। चंडूरु = कंस के पहलवान का नाम। कंसु = केसी। मुगधाहा = मूर्खों का।3।

सभु = सारा। वसि = वश में। गलि = गले मे। जेवड़ी = रस्सी। खिंचै = खीचता है। गरबै = अहंकार करता है। पचसी = नाश हो जाएगा।4।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम उत्साह से जपा कर। पूरे गुरू के द्वारा हरी-नाम का लाभ कमा ले। (जो) भाग्यशाली मनुष्य (नाम जपता है, उसे) हर समय आत्मिक सुख मिला रहता है। रहाउ।

हे भाई! प्यारा प्रभू खुद ही (जीवों को अपनी) सेवा-भक्ति में जोड़ता है, खुद ही भक्ति करने का उत्साह देता है। प्रभू खुद ही (जीवों को) गुण गाने के लिए प्रेरित करता है, खुद ही (जीवों को) गुरू के शबद में जोड़ता है। प्रभू खुद ही कलम है, खुद ही कलम चलाने वाला है, और, खुद ही (जीवों के माथे पर भक्ति का) लेख लिखता है।1।

हे भाई! प्रभू ही गोपियां है, खुद ही कृष्ण है, खुद ही (विंद्रावन) जंगल में गईयां चराने वाला है। प्रभू खुद साँवले रंग का सुंदर कृष्ण है, खुद ही बाँसुरी बजाने वाला है। प्रभू खुद ही बालक-रूप (कृष्ण-रूप) में (कंस के भेजे हुए हाथी) कुवल्यापीड़ का नाश करने वाला है।2।

हे भाई! प्रभू खुद ही (इस जगत का) अखाड़ा बनाने वाला है, (इस जगत अखाड़े में) खुद ही कौतक-तमाशे रच के देख रहा है। प्रभू खुद ही बालक रूप कृष्ण को पैदा करने वाला है, और, खुद ही उससे चंडूर, केसी और कंस को मरवाने वाला है। खुद ही ताकत (देने वाला) है, और खुद ही मूर्खों की ताकत तोड़ देता है।3।

हे भाई! प्यारा प्रभू खुद ही सारे जगत को पैदा करता है, (जगत को आप ही अपने) वश में रखता है (जीवों की जीवन-) जुगति अपने हाथ में रखता है। प्रभू स्वयं ही (सब जीवों के) गले में रस्सी डाले रखता है, जैसे प्रभू (उस रस्सी को) खींचता है वैसे ही जीव (जीवन-राह पर) चलते हैं। हे नानक! (कह–) हे पयारे सज्जन! जो मनुष्य (अपने किसी बल आदि का) अहंकार करता है वह तबाह हो जाता है (आत्मिक मौत सहेड़ लेता है)। हे भाई! परमात्मा का नाम जपा कर, उसकी भक्ति में लीन रहा कर।4।6।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh