श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 607 सोरठि मः ४ दुतुके ॥ अनिक जनम विछुड़े दुखु पाइआ मनमुखि करम करै अहंकारी ॥ साधू परसत ही प्रभु पाइआ गोबिद सरणि तुमारी ॥१॥ गोबिद प्रीति लगी अति पिआरी ॥ जब सतसंग भए साधू जन हिरदै मिलिआ सांति मुरारी ॥ रहाउ ॥ तू हिरदै गुपतु वसहि दिनु राती तेरा भाउ न बुझहि गवारी ॥ सतिगुरु पुरखु मिलिआ प्रभु प्रगटिआ गुण गावै गुण वीचारी ॥२॥ गुरमुखि प्रगासु भइआ साति आई दुरमति बुधि निवारी ॥ आतम ब्रहमु चीनि सुखु पाइआ सतसंगति पुरख तुमारी ॥३॥ पुरखै पुरखु मिलिआ गुरु पाइआ जिन कउ किरपा भई तुमारी ॥ नानक अतुलु सहज सुखु पाइआ अनदिनु जागतु रहै बनवारी ॥४॥७॥ {पन्ना 607} पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। अहंकारी = अहंकार के असर तले। साधू = गुरू। परसत = छूते हुए।1। अति = बहुत। सत संग = साध-संगति। हिरदै = हृदय में। मुरारी = (मुर+अरी) परमात्मा। रहाउ। भाउ = प्यार। गवारी = मूर्ख लोग। न बूझहि = नहीं समझते। वीचारी = विचार के, सुरति जोड़ के।2। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने वाले मनुष्य। साति = शांति, ठण्ड, आत्मिक अडोलता। दुरमति = बुरी मति। निवारी = दूर कर ली। आतम = सब जीवों में। चीनि = पहचान के।3। पुरखै = उस मनुष्य को। पुरखु = अकाल पुरख, सर्व व्यापक परमात्मा। सहज सुख = आत्मिक अडोलता का सुख। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। जागतु रहै = (माया के मोह से) सचेत रहता है। बनवारी = परमात्मा (में लीन रह के)।4। अर्थ: जब (किसी भाग्यशाली मनुष्य को) भले मनुष्यों वाली संगति प्राप्त होती है, उसे अपने हृदय में शांति देने वाला परमात्मा आ मिलता है, परमात्मा के साथ उसकी बड़ी गहरी प्रीति बन जाती है। रहाउ। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य अनेको जन्मों से (परमात्मा से) विछुड़ा हुआ दुख सहता चला आता है, (इस जन्म में भी अपने मन का मुरीद रह के) अहंकार के आसरे ही कर्म करता रहता है। (पर) गुरू के चरण छूते ही उसे परमात्मा मिल जाता है। हे गोबिंद! (गुरू की शरण की बरकति से) वह तेरी शरण आ पड़ता है।1। हे प्रभू! तू हर वक्त सब जीवों के हृदय में छुपा हुआ टिका रहता है, मूर्ख मनुष्य तेरे साथ प्यार (के महत्व) को नहीं समझते। (हे भाई!) जिस मनुष्य को सर्व-व्यापक प्रभू का रूप गुरू मिल जाता है उसके अंदर परमात्मा प्रगट हो जाता है। वह मनुष्य परमात्मा के गुणों में सुरति जोड़ के गुण गाता रहता है।2। हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण आ पड़ता है उसके अंदर (आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो जाता है, उसके अंदर ठंड पड़ जाती है, वह मनुष्य अपने अंदर से बुरी मति वाली मति दूर कर लेता है (ये दुर्मति ही विकारों की सड़न पैदा कर रही थी)। वह मनुष्य अपने अंदर परमात्मा को बसता पहचान के आत्मिक आनंद प्राप्त कर लेता है। हे सर्व-व्यापक प्रभू! ये तेरी साध-संगति की ही बरकति है।3। हे भाई! जिस मनुष्य को गुरू मिल जाता है उस मनुष्य को सर्व-व्यापक परमात्मा मिल जाता है। (पर, हे प्रभू! गुरू भी उनको ही मिलता है) जिन पर तेरी कृपा होती है। हे नानक! (ऐसा मनुष्य) आत्मिक अडोलता में बहुत सारा सुख पाता है, वह हर वक्त परमात्मा (की याद) में लीन रह के (विकारों से) सचेत रहता है।4।7। सोरठि महला ४ ॥ हरि सिउ प्रीति अंतरु मनु बेधिआ हरि बिनु रहणु न जाई ॥ जिउ मछुली बिनु नीरै बिनसै तिउ नामै बिनु मरि जाई ॥१॥ मेरे प्रभ किरपा जलु देवहु हरि नाई ॥ हउ अंतरि नामु मंगा दिनु राती नामे ही सांति पाई ॥ रहाउ ॥ जिउ चात्रिकु जल बिनु बिललावै बिनु जल पिआस न जाई ॥ गुरमुखि जलु पावै सुख सहजे हरिआ भाइ सुभाई ॥२॥ मनमुख भूखे दह दिस डोलहि बिनु नावै दुखु पाई ॥ जनमि मरै फिरि जोनी आवै दरगहि मिलै सजाई ॥३॥ क्रिपा करहि ता हरि गुण गावह हरि रसु अंतरि पाई ॥ नानक दीन दइआल भए है त्रिसना सबदि बुझाई ॥४॥८॥ {पन्ना 607} पद्अर्थ: सिउ = साथ। अंतरु = अंदरूनी। बेधिआ = भेद दिया। नीर = पानी।1। प्रभ = हे प्रभू! हरि = हे हरी! नाई = वडिआई, सिफत सालाह। हउ = मैं। अंतरि = अंदर, दिल में (‘अतरु’ और ‘अंतरि’ में फर्क है)। मंगा = मांगू, मैं मांगता हूँ। रहाउ। चात्रिकु = पपीहा। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने वाले मनुष्य। सुख जल = आत्मिक आनंद देने वाला नाम जल। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में। भाइ = प्रेम से। सुभाई = श्रेष्ठ प्यार से।2। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। दह दिस = दसों दिशाओं में। पाई = पाता है, पाए। मरै = मरता है।3। गावह = (हम जीव) गाते हैं। पाई = पा के। सबदि = शबद से।4। अर्थ: हे मेरे प्रभू! (मुझे अपनी) मेहर का जल दे। हे हरी! मुझे अपनी सिफत सालाह की दाति दे। मैं अपने हृदय में दिन-रात तेरा (ही) नाम मांगता हूँ (क्योंकि तेरे) नाम में जुड़ने से आत्मिक ठण्ड प्रापत हो सकती है। रहाउ। हे भाई! परमात्मा के साथ प्यार से जिस मनुष्य का हृदय जिस मनुष्य का मन भेदा जाता है, वह परमात्मा (की याद) के बिना नहीं रह सकता। जैसे पानी के बिना मछली मर जाती है, वैसे ही वह मनुष्य प्रभू के नाम के बिना अपनी आत्मिक मौत आ गई समझता है।1। हे भाई! जैसे बरखा जल के बिना पपीहा बिलखता है, बरखा की बूँद के बिना उसकी प्यास नहीं बुझती, वैसे ही जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है तब वह प्रभू की बरकति से आत्मिक जीवन वाला बनता है जब वह आत्मिक अडोलता में टिक के आत्मिक आनंद देने वाला नाम-जल (गुरू से) हासिल करता है।2। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य माया की भूख के मारे हुए दसो-दिशाओं में डोलते फिरते हैं। मन का मुरीद मनुष्य परमात्मा के नाम से टूट के दुख पाता रहता है। वह पैदा होता है मरता है, बार-बार जूनियों में पड़ा रहता है, परमात्मा की दरगाह में उसको (ये) सजा मिलती है।3। हे हरी! अगर तू (स्वयं) मेहर करे, तो ही हम जीव तेरी सिफत सालाह के गीत गा सकते हैं। (जिस पर मेहर हो, वही मनुष्य) अपने हृदय में हरी नाम का स्वाद अनुभव करता है। हे नानक! दीनों पर दया करने वाला प्रभू जिस मनुष्य पर प्रसन्न होता है, गुरू के शबद के द्वारा उसकी (माया की) प्यास बुझा देता है।4।8। सोरठि महला ४ पंचपदा ॥ अचरु चरै ता सिधि होई सिधी ते बुधि पाई ॥ प्रेम के सर लागे तन भीतरि ता भ्रमु काटिआ जाई ॥१॥ मेरे गोबिद अपुने जन कउ देहि वडिआई ॥ गुरमति राम नामु परगासहु सदा रहहु सरणाई ॥ रहाउ ॥ इहु संसारु सभु आवण जाणा मन मूरख चेति अजाणा ॥ हरि जीउ क्रिपा करहु गुरु मेलहु ता हरि नामि समाणा ॥२॥ जिस की वथु सोई प्रभु जाणै जिस नो देइ सु पाए ॥ वसतु अनूप अति अगम अगोचर गुरु पूरा अलखु लखाए ॥३॥ जिनि इह चाखी सोई जाणै गूंगे की मिठिआई ॥ रतनु लुकाइआ लूकै नाही जे को रखै लुकाई ॥४॥ सभु किछु तेरा तू अंतरजामी तू सभना का प्रभु सोई ॥ जिस नो दाति करहि सो पाए जन नानक अवरु न कोई ॥५॥९॥ {पन्ना 607} नोट: पंच पद–पाँच बंदों वाला शबद। पद्अर्थ: अचरु = (अ+चरु) ना जीता जा सकने (मन) वाला। चरै = जीत लेता है। सिधि = (जीवन संग्राम में) सफलता। ते = से। बुधि = अकल। सर = तीर। तन = शरीर, हृदय। भ्रमु = मन की भटकना।1। गोबिद = हे गोबिंद! कउ = को। परगासहु = प्रगट करो, उजागर कर दो। रहहु = रखो। रहाउ। संसारु = जगत (का मोह)। आवण जाणा = जनम मरन (का मूल)। मन = हे मन! नामि = नाम में।2। जिस की: ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हट गई है। वथु = वस्तु, नाम वस्तु। सोई = वही (प्रभू)। जिस नो: ‘जिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है। सु = वह मनुष्य। अनूप = बेमिसाल, सुंदर (अन+ऊप = उपमा रहित)। अगम = अपहुँच। अगोचर = (अ+गो+चर) जिस तक ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। अलखु = अदृश्य प्रभू। लखाऐ = दिखा देता है।3। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। इह = ये वस्तु (स्त्री लिंग)। को = कोई मनुष्य।4। अंतरजामी = दिल की जानने वाला। सोई = सार रखने वाला।5। अर्थ: हे मेरे गोबिंद! (मुझे) अपने दास को (ये) आदर दे (कि) गुरू की मति से (मेरे अंदर) अपना नाम प्रगट कर दे, (मुझे) सदा अपनी शरण में रख। रहाउ। (हे भाई! गुरू की शरण पड़ कर जब) मनुष्य इस अजीत मन को जीत लेता है, तब (जीवन-संग्राम में इसको) कामयाबी हो जाती है, (इस) कामयाबी से (मनुष्य को) ये समझ आ जाती है (कि) परमात्मा के प्यार के तीर (इसके) हृदय में भेदे जाते हैं, तब (इसके मन की) भटकना (सदा के लिए) कट जाती है।1। हे मूर्ख अंजान मन! ये जगत (का मोह) जनम-मरण (का कारण बना रहता) है, (इससे बचने के लिए परमात्मा का नाम) सिमरता रह। हे हरी! (मेरे पर) मेहर कर, मुझे गुरू मिला, तभी तेरे नाम में लीनता हो सकती है।2। हे भाई! ये नाम-वस्तु जिस (परमात्मा) की (मल्कियत) है, वही जानता है (कि ये वस्तु किसे देनी है), जिस जीव को प्रभू ये दाति देता है वही ले सकता है। ये वस्तु ऐसी सुंदर है कि जगत में इस जैसी और कोई नहीं, (किसी चतुराई समझदारी से) इस तक पहुँच नहीं हो सकती, मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियों की भी इस तक पहुँच नहीं। (अगर) पूरा गुरू (मिल जाए, तो वही) अदृश्य प्रभू के दीदार करवा सकता है।3। हे भाई! जिस मनुष्य ने ये नाम-वस्तु चखी है (इसका स्वाद) वही जानता है, (वह बयान नहीं कर सकता, जैसे) गूँगे की (खाई) मिठाई (का स्वाद) गूँगा बता नहीं सकता। (हाँ, अगर किसी को ये नाम-रत्न हासिल हो जाए, तो) अगर वह मनुष्य (इस रत्न को अपने अंदर) छुपा के रखना चाहे, तो छुपाने से ये रत्न नहीं छुपता (उसके आत्मिक जीवन से रत्न-प्राप्ति के लक्षण दिख पड़ते हैं)।4। हे प्रभू! ये सारा जगत तेरा ही बनाया हुआ है, तू सब जीवों के दिल की जानने वाला है, तू सबकी सार लेने वाला मालिक है। हे नानक! (कह– हे प्रभू!) वही मनुष्य तेरा नाम हासिल कर सकता है जिसको तू ये दाति बख्शता है। और कोई भी ऐसा जीव नहीं (जो तेरी कृपा के बिना तेरा नाम प्राप्त कर सके)।5।9। जरूरी नोट: इस राग में गुरू नानक देव जी के सारे ही शबदों में ‘रहाउ’ की तुकों के साथ सिर्फ ‘रहाउ’ आया है, ना कि “॥१॥ रहाउ॥ ”। यही समानता गुरू अमरदास जी और गुरू रामदास जी के शबदों में मिलती है। गुरू नानक देव जी की सारी बाणी इन गुरू साहिबानों के पास मौजूद थी। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |