श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 609 सोरठि महला ५ दुतुके ॥ जउ लउ भाउ अभाउ इहु मानै तउ लउ मिलणु दूराई ॥ आन आपना करत बीचारा तउ लउ बीचु बिखाई ॥१॥ माधवे ऐसी देहु बुझाई ॥ सेवउ साध गहउ ओट चरना नह बिसरै मुहतु चसाई ॥ रहाउ ॥ रे मन मुगध अचेत चंचल चित तुम ऐसी रिदै न आई ॥ प्रानपति तिआगि आन तू रचिआ उरझिओ संगि बैराई ॥२॥ सोगु न बिआपै आपु न थापै साधसंगति बुधि पाई ॥ साकत का बकना इउ जानउ जैसे पवनु झुलाई ॥३॥ कोटि पराध अछादिओ इहु मनु कहणा कछू न जाई ॥ जन नानक दीन सरनि आइओ प्रभ सभु लेखा रखहु उठाई ॥४॥३॥ {पन्ना 609} नोट: दोतुके–दो तुकों वाले बंद। पद्अर्थ: जउ लउ = जब तक। भाउ = प्यार। अभाउ = वैर। तउ लउ = तब तक। दूराई = दूर, मुश्किल। आन = बेगाना। बीचु = दूरी, पर्दा। बिखाई = बिखिया का, माया (के मोह) का।1। माधवे = (मा = माया। धव = पति) हे लक्ष्मी पति! हे प्रभू! बुझाई = मति, समझ। सेवउ = मैं सेवा करता रहूँ। साध = गुरू। गहउ = मैं पकड़े रखूँ। बिसरै = भूल जाए। मुहतु = महूरत, रक्ती भर समय के लिए भी। रहाउ। मुगध = मूर्ख! अचेत = गाफिल! चित = हे चिक्त! रिदै = हृदय में। रिदै न आई = ना सूझी। तिआगि = छोड़ के। आन = औरों से। संगि = साथ। बैराई = वैरी।2। न बिआपै = जोर नहीं डालता। आपु = अपनत्व, अहंकार। थापै = संभाले रखता है। साकत = परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य। जानउ = जानूँ, मैं जानता हूँ। पवनु झुलाई = हवा का झोका।3। कोटि = करोड़ों। अछादिओ = आच्छादित, ढका हुआ, दबाया हुआ। रख्हु उठाई = समाप्त कर दे।4। अर्थ: हे प्रभू! मुझे ऐसी बुद्धि दे (कि) मैं गुरू की (बताई हुई) सेवा करता रहूँ, गुरू के चरणों का आसरा पकड़े रखूँ। (ये आसरा) मुझे रक्ती भर समय के लिए भी ना भूले। रहाउ। हे भाई! जब तक (मनुष्य का) ये मन (किसी से) मोह (और किसी से) वैर करता है, तब तक (इसकी परमात्मा से) मिलाप की बात दूर की कौड़ी होती है, (क्योंकि जब तक ये किसी को) अपना (और किसी को) बेगाना (मानने की) विचारें करता रहता है, तब तक (इसके अंदर) माया (के मोह का) पर्दा बना रहता है (जो इसे परमात्मा से विछोड़े रखता है)।1। हे मूर्ख गाफिल मन! हे चंचल मन! तुझे कभी ये नहीं सूझा कि तू प्राणों के मालिक प्रभू को भुला के औरों (के मोह) में मस्त रहता है, (और कामादिक) वैरियों से जोड़ जोड़े रखता है।2। हे भाई! साध-संगति में मैंने तो यही सीखा है कि जो मनुष्य अपनत्व से नहीं चिपका रहता, उस पर चिंता-फिकर अपना जोर नहीं डाल सकती (तभी तो) मैं परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य की बात को ऐसे लेता हूँ जैसे ये हवा का झोका है (एक तरफ से आया दूसरी तरफ गुजर गया)।3। हे भाई! (मनुष्य का) ये मन करोड़ों पापों के तले दबा रहता है (इस मन के दुर्भाग्यता बाबत) कुछ कहा नहीं जा सकता। हे दास नानक! (प्रभू-दर पर ही अरदास कर और कह–) हे प्रभू! मैं निमाणा तेरी शरण आया हूँ (मेरे विकारों का) सारा लेखा समाप्त कर दे।4।3। सोरठि महला ५ ॥ पुत्र कलत्र लोक ग्रिह बनिता माइआ सनबंधेही ॥ अंत की बार को खरा न होसी सभ मिथिआ असनेही ॥१॥ रे नर काहे पपोरहु देही ॥ ऊडि जाइगो धूमु बादरो इकु भाजहु रामु सनेही ॥ रहाउ ॥ तीनि संङिआ करि देही कीनी जल कूकर भसमेही ॥ होइ आमरो ग्रिह महि बैठा करण कारण बिसरोही ॥२॥ अनिक भाति करि मणीए साजे काचै तागि परोही ॥ तूटि जाइगो सूतु बापुरे फिरि पाछै पछुतोही ॥३॥ जिनि तुम सिरजे सिरजि सवारे तिसु धिआवहु दिनु रैनेही ॥ जन नानक प्रभ किरपा धारी मै सतिगुर ओट गहेही ॥४॥४॥ {पन्ना 609} पद्अर्थ: कलत्र = स्त्री। लोक ग्रिह = घर के लोग। बनिता = पत्नी। सनबंधेही = संबंधी ही। बार = वक्त। खरा = मददगार। होसी = होगा। मिथिआ = झूठा। असनेही = प्यार करने वाले।1। पपोरहु देही = शरीर को लाड से पालते हो। धूमु = धूआँ। बादरो = बादल। इकु = सिरफ। भाजहु = भजो, सिमरो। सनेही = प्यार करने वाला। रहाउ। तीनि सिं ज्ञआ करि = (माया के) तीन गुणों को मिला के। देही = शरीर। कूकर = कुत्ते। भसमेही = राख मिट्टी। आमरो = अमर। करण कारण = जगत का मूल। बिसरोही = तुझे भूल गया है।2। मणीऐ = (सारे अंग) मणके। साजे = बनाए। तागि = धागे में। सूतु = धागा। बापुरे = हे निमाणे (जीव)!।3। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। तुम = तुझे। सिरजि = पैदा करके। सवारे = सजाए हैं, सुंदर बनाया है। रैनेरी = रात। प्रभ = हे प्रभू! धारी = धारि। गहेही = पकड़ूँ।4। अर्थ: हे मनुष्य! (निरे इस) शरीर को ही क्यों लाडों से पालता रहता है? (जैसे) धूआँ, (जैसे) बादल (उड़ जाता है, वैसे ही ये शरीर) नाश हो जाएगा। सिर्फ परमात्मा का भजन किया कर, वही असल प्यार करने वाला है। रहाउ। हे भाई! पुत्र, स्त्री, घर के और लोग और औरतें (सारे) माया के ही संबंध हैं। आखिरी वक्त (इनमें से) कोई भी तेरा मददगार नहीं बनेगा, सारे झूठा ही प्यार करने वाले हैं।1। हे भाई! (परमात्मा ने) माया के तीन गुणों के असर तले रहने वाला तेरा शरीर बना दिया, (ये अंत को) पानी के, कुक्तों के, या मिट्टी के हवाले हो जाता है। तू इस शरीर-घर में (अपने आप को) अमर समझे बैठा रहता है, और जगत के मूल परमात्मा को भुला रहा है।2। हे भाई! अनेकों तरीकों से (परमात्मा ने तेरे सारे अंग) मणके बनाए हैं; (पर, साँसों के) कच्चे धागे में परोए हुए हैं। हे निमाणे जीव! ये धागा (आखिर) टूट जाएगा, (अब इस शरीर के मोह में प्रभू को बिसारे बैठा है) फिर समय बीत जाने पर हाथ मलेगा।3। हे भाई! जिस परमात्मा ने तुझे पैदा किया है, पैदा करके तुझे सुंदर बनाया है उसे दिन-रात (हर वक्त) सिमरते रहा कर। हे दास नानक! (अरदास कर और कह–) हे प्रभू! (मेरे पर) मेहर कर, मैं गुरू का आसरा पकड़े रखूँ।4।4। सोरठि महला ५ ॥ गुरु पूरा भेटिओ वडभागी मनहि भइआ परगासा ॥ कोइ न पहुचनहारा दूजा अपुने साहिब का भरवासा ॥१॥ अपुने सतिगुर कै बलिहारै ॥ आगै सुखु पाछै सुख सहजा घरि आनंदु हमारै ॥ रहाउ ॥ अंतरजामी करणैहारा सोई खसमु हमारा ॥ निरभउ भए गुर चरणी लागे इक राम नाम आधारा ॥२॥ सफल दरसनु अकाल मूरति प्रभु है भी होवनहारा ॥ कंठि लगाइ अपुने जन राखे अपुनी प्रीति पिआरा ॥३॥ वडी वडिआई अचरज सोभा कारजु आइआ रासे ॥ नानक कउ गुरु पूरा भेटिओ सगले दूख बिनासे ॥४॥५॥ {पन्ना 609} पद्अर्थ: भेटिओ = मिला है। वड भागी = बड़े भाग्यों से। मनहि = मन में। परगासा = (आत्मिक जीवन का) प्रकाश। साहिब = मालिक। भरवासा = भरोसा, सहारा।1। कै = से। बलिहारै = सदके। आगै पाछै = लोक परलोक में, हर जगह। सहजा = सहज ही, आत्मिक अडोलता। घरि = हृदय घर में। रहाउ। अंतरजामी = सब के दिल की जानने वाला। करणैहारा = पैदा करने वाला। सोई = वही। आधारा = आसरा।2। सफल दरसनु = जिस (प्रभू) के दर्शन जीवन उद्देश्य पूरा करते हैं। अकाल मूरति = जिसकी हस्ती मौत से रहित है। होवनहारा = सदा ही जीवित रहने वाला। कंठि = गले से। लगाइ = लगा के।3। कारजु = जिंदगी का मनोरथ। आइआ रासे = रास आ गया, सिरे चढ़ गया। सगले = सारे।4। अर्थ: हे भाई! मैं अपने गुरू से कुर्बान जाता हूँ, (गुरू की कृपा से) मेरे हृदय-घर में आनंद बना रहता है, इस लोक में भी आत्मिक अडोलता (सहज अवस्था) का सुख मुझे प्राप्त हो गया है, और, परलोक में भी ये सुख टिका रहने वाला है। रहाउ। हे भाई! बड़ी किस्मत से मुझे पूरा गुरू मिल गया है, मेरे मन में आत्मिक जीवन की समझ पैदा हो गई है। अब मुझे अपने मालिक का सहारा हो गया है, कोई उस मालिक की बराबरी नहीं कर सकता।1। हे भाई! जब से मैं गुरू के चरणों में लगा हूँ, मुझे परमात्मा के नाम का आसरा हो गया है, कोई डर मुझे (अब) छू नहीं सकता (मुझे निश्चय हो गया है कि जो) सृजनहार सबके दिल की जानने वाला है वही मेरे सिर पर रक्षक है।2। (हे भाई! गुरू की कृपा से मुझे विश्वास हो गया है कि) जिस परमात्मा का दर्शन मानस जनम को फल देने वाला है, जिस परमात्मा की हस्ती मौत से रहित है, वह उस वक्त भी (मेरे सर पर) मौजूद है, और, सदा कायम रहने वाला है। वह प्रभू अपनी प्रीति की अपने प्यार की दाति दे के अपने सेवकों को अपने गले से लगा लेता है।3। हे भाई! मुझे नानक को पूरा गुरू मिल गया है, मेरे सारे दुख दूर हो गए हैं। वह गुरू बड़ी महिमावाला है, आश्चर्य शोभा वाला है, उसकी शरण पड़ने से जिंदगी का उद्देश्य प्राप्त हो जाता है।4।5। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |