श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 610 सोरठि महला ५ ॥ सुखीए कउ पेखै सभ सुखीआ रोगी कै भाणै सभ रोगी ॥ करण करावनहार सुआमी आपन हाथि संजोगी ॥१॥ मन मेरे जिनि अपुना भरमु गवाता ॥ तिस कै भाणै कोइ न भूला जिनि सगलो ब्रहमु पछाता ॥ रहाउ ॥ संत संगि जा का मनु सीतलु ओहु जाणै सगली ठांढी ॥ हउमै रोगि जा का मनु बिआपित ओहु जनमि मरै बिललाती ॥२॥ गिआन अंजनु जा की नेत्री पड़िआ ता कउ सरब प्रगासा ॥ अगिआनि अंधेरै सूझसि नाही बहुड़ि बहुड़ि भरमाता ॥३॥ सुणि बेनंती सुआमी अपुने नानकु इहु सुखु मागै ॥ जह कीरतनु तेरा साधू गावहि तह मेरा मनु लागै ॥४॥६॥ {पन्ना 610} पद्अर्थ: सुखीआ = (आत्मिक) सुख भोगने वाला। कउ = को। पेखै = दिखता है। कै भाणै = के ख्याल में। रोगी = (विकारों के) रोग में फसा हुआ। करावनहार = (जीवों से) करवाने की समर्थता रखने वाला। हाथि = हाथ में। संजोगी = (आत्मिक सुख और आत्मिक रोग का) मेल।1। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। भरमु = भटकना। तिस कै: यहाँ ‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘कै’ के कारण हट गई है। सगलो = सब में। रहाउ। संगि = संगति में। सीतलु = शांत, ठंडा। सगली = सारी दुनिया। रोगि = रोग में। बिआपित = फसा हुआ। जनमि मरै = पैदा होता मरता है। बिललाती = बिलखता, दुखी होता।2। गिआन अंजनु = आत्मिक जीवन की सूझ का सुर्मा। नेत्री = आँखों में। प्रगासा = प्रकाश। अगिआनि = अज्ञान, ज्ञान हीन मनुष्य को। अंधेरै = अधेंरे में। बहुड़ि बहुड़ि = बार बार।3। सुआमी अपुने = हे मेरे स्वामी! नानकु मागै = नानक मांगता है। जह = जहाँ। गावहि = गाते हैं। लागै = लगा रहे, परचा रहे। अर्थ: हे मेरे मन! जिस मनुष्य ने अपने अंदर से मेर-तेर गवा ली जिसने सब जीवों में परमात्मा बसता पहचान लिया, उसके ख्याल में कोई जीव गलत राह पर नहीं जा रहा। रहाउ। हे भाई! आत्मिक सुख मानने वाले को हरेक मनुष्य आत्मिक सुख भोगता हुआ दिखाई देता है, (विकारों के) रोग में फंसे हुए के ख्याल में सारी दुनिया ही विकारी है। (अपने अंदर से मेर-तेर गवा चुके मनुष्य को ये निश्चय हो जाता है कि) मालिक प्रभू ही सब कुछ करने की समर्था वाला है जीवों से करवाने की ताकत रखने वाला है, (जीवों के लिए आत्मिक सुख और आत्मिक दुख का) मेल उसने अपने हाथ में रखा हुआ है।1। हे भाई! साध-संगति में रहके जिस मनुष्य का मन (विकारों की ओर से) शांत हो जाता है, वह सारी दुनिया को ही शांत-चिक्त समझता है। पर जिस मनुष्य का मन अहंम्-रोग में फसा रहता है, वह सदा दुखी रहता है, वह (अहम् में) जनम ले के आत्मिक मौत सहता रहता है।2। हे भाई! आत्मिक जीवन की सूझ का सुर्मा जिस मनुष्य की आँखों में पड़ जाता है, उसको आत्मिक जीवन की सारी समझ पड़ जाती है। पर, ज्ञान-हीन मनुष्य को अज्ञानता के अंधकार में (सही जीवन के बारे में) कुछ नहीं सूझता, वह बार-बार भटकता रहता है।3। हे मेरे मालिक! (मेरी) विनती सुन (तेरा दास) नानक (तेरे दर से) ये सुख माँगता है (कि) जहाँ संत-जन तेरी सिफत-सालाह के गीत गाते हों, वहाँ मेरा मन लगा रहे।4।6। सोरठि महला ५ ॥ तनु संतन का धनु संतन का मनु संतन का कीआ ॥ संत प्रसादि हरि नामु धिआइआ सरब कुसल तब थीआ ॥१॥ संतन बिनु अवरु न दाता बीआ ॥ जो जो सरणि परै साधू की सो पारगरामी कीआ ॥ रहाउ ॥ कोटि पराध मिटहि जन सेवा हरि कीरतनु रसि गाईऐ ॥ ईहा सुखु आगै मुख ऊजल जन का संगु वडभागी पाईऐ ॥२॥ रसना एक अनेक गुण पूरन जन की केतक उपमा कहीऐ ॥ अगम अगोचर सद अबिनासी सरणि संतन की लहीऐ ॥३॥ निरगुन नीच अनाथ अपराधी ओट संतन की आही ॥ बूडत मोह ग्रिह अंध कूप महि नानक लेहु निबाही ॥४॥७॥ {पन्ना 610} पद्अर्थ: का कीआ = का बना दिया, भेटा कर दी। प्रसादि = कृपा से। सरब कुसल = सारे सुख।1। दाता = (नाम की) दाति देने वाला। बीआ = दूसरा। साधू = गुरू। पारगरामी = (संसार समुंद्र से) पार लंघाने के काबिल। कीआ = हो जाता है। रहाउ। कोटि पराध = करोड़ों पाप। जन सेवा = संत जनों की सेवा करने से। रसि = रस से, प्रेम से। ईहा = इस लोक में। आगै = परलोक में। मुख ऊजल = उज्जव मुँह वाले, सुर्खरू।2। रसना = जीभ। केतक = कितना? उपमा = वडिआई, शोभा। अगम = अपहुँच। अगोचर = (अ+गो+चर) जिस तक इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। सद = सदा। लहीअै = ढूँढता है।3। निरगुन = गुण हीन। अनाथ = निआसरा। ओट = आसरा, शरण। आही = मांगी है, मैं माँगता हूँ। ग्रिह = गृहस्त। अंध कूप महि = अंधे कूएं में। लेहु निबाही = आखिर तक साथ निभाओ।4। अर्थ: हे भाई! संत जनों के बिना परमात्मा के नाम की दाति देने वाला और कोई नहीं है। जो जो मनुष्य गुरू की (संत जनों की) शरण पड़ता है, वह संसार-समुंद्र से पार लांघने के काबिल हो जाता है। रहाउ। हे भाई! जब कोई मनुष्य अपना शरीर अपना मन, अपना धन संत जनों के हवाले कर देता है (भाव, हरेक किस्म के अपनत्व को मिटा देता है), और संतों की कृपा से परमात्मा का नाम सिमरन करने लग जाता है, तब उसको सारे (आत्मिक) सुख मिल जाते हैं।1। हे भाई! परमात्मा के सेवक की (बताई) सेवा करने से करोड़ों पाप मिट जाते हैं, और प्रेम से परमात्मा की सिफत सालाह की जा सकती है। इस लोक में आत्मिक आनंद मिला रहता है, परलोक में भी सुर्खरू हो जाते हैं। पर, हे भाई! प्रभू के सेवक की संगति बड़े भाग्यों से मिलती है।2। हे भाई! (मेरी) एक जीभ है (संत जन) अनेकों गुणों से भरपूर होते हैं, संत जनों की वडिआई कितनी बताई जाए? संतों की शरण पड़ने से ही वह परमात्मा मिल सकता है जो कभी नाश होने वाला नहीं, जो अपहुँच है, जिस तक ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती।3। हे नानक! (अरदास कर और कह–) मैं गुण-हीन हूँ, नीच हूँ, निआसरा हूँ, विकारी हूँ, मैंने संतों का पल्ला पकड़ा है (हे संत जनो!) गृहस्त के मोह के अंधे कूएं में डूब रहे का साथ आखिर तक निभाओ।4।7। सोरठि महला ५ घरु १ ॥ जा कै हिरदै वसिआ तू करते ता की तैं आस पुजाई ॥ दास अपुने कउ तू विसरहि नाही चरण धूरि मनि भाई ॥१॥ तेरी अकथ कथा कथनु न जाई ॥ गुण निधान सुखदाते सुआमी सभ ते ऊच बडाई ॥ रहाउ ॥ सो सो करम करत है प्राणी जैसी तुम लिखि पाई ॥ सेवक कउ तुम सेवा दीनी दरसनु देखि अघाई ॥२॥ सरब निरंतरि तुमहि समाने जा कउ तुधु आपि बुझाई ॥ गुर परसादि मिटिओ अगिआना प्रगट भए सभ ठाई ॥३॥ सोई गिआनी सोई धिआनी सोई पुरखु सुभाई ॥ कहु नानक जिसु भए दइआला ता कउ मन ते बिसरि न जाई ॥४॥८॥ {पन्ना 610} पद्अर्थ: जा कै हिरदै = जिसके हृदय में। करते = हे करतार! तैं = (शब्द ‘तू’ और ‘तैं’ में फर्क है = कौन बसा? तू। किस ने पहुँचाया? तैं)। कउ = को। मनि = मन में। भाई = प्यारी लगती है।1। अकथ = अ+कथनीय, जो बयान नहीं हो सकती। गुण निधान = हे गुणों के खजाने! सभ ते = सबसे। रहाउ। लिखि = लिख के। देखि = देख के। अघाई = तृप्त हो जाता है।2। निरंतरि = (निर+अंतर = दूरी के बिना, अंतर = दूरी) एक रस। तुमहि = तू ही। बुझाई = समझ दे दी। परसादि = कृपा से। सभ ठाई = सब जगह।3। गिआनी = ज्ञानी, ज्ञानवान। धिआनी = सुरति जोड़ने वाला। सुभाई = श्रेष्ठ प्रेम वाला। मन ते = मन से।4। अर्थ: हे सारे गुणों के खजाने! हे सुख देने वाले मालिक! तेरी वडिआई सबसे ऊँची है (तू सबसे बड़ा है)। तू कैसा है, कितना बड़ा है– ये बयान नहीं किया जा सकता। रहाउ। हे करतार! जिस मनुष्य के हृदय में तू आ बसता है, उसकी तू हरेक आस पूरी कर देता है। अपने सेवक को तू कभी नहीं बिसारता (तेरा सेवक तुझे कभी नहीं भुलाता), उसके मन को तेरे चरणों की धूड़ प्यारी लगती है।1। (पर, हे प्रभू!) जीव वही वही कर्म करता है जैसी जैसी (आज्ञा) तूने (उसके माथे पर) लिख के रख दी है। अपने सेवक को तूने अपनी सेवा-भक्ति की दाति बख्शी हुई है, (वह सेवक) तेरा दर्शन करके तृप्त हुआ रहता है।2। हे प्रभू! जिस मनुष्य को तू खुद समझ देता है उसको तू सारे ही जीवों में एक-रस समाया हुआ दिखता है। गुरू की कृपा से (उस मनुष्य के अंदर से) अज्ञानता (का अंधकार) मिट जाता है, उसकी शोभा हर जगह पसर जाती है।3। हे नानक! कह– वही मनुष्य ज्ञानवान है, वही मनुष्य सुरति अभ्यासी है, वही मनुष्य प्यार भरे स्वभाव वाला है, जिस मनुष्य पर परमात्मा खुद दयावान होता है। उस मनुष्य को मन से परमात्मा कभी नहीं भूलता।4।8। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |