श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सोरठि महला ५ ॥ माइआ मोह मगनु अंधिआरै देवनहारु न जानै ॥ जीउ पिंडु साजि जिनि रचिआ बलु अपुनो करि मानै ॥१॥ मन मूड़े देखि रहिओ प्रभ सुआमी ॥ जो किछु करहि सोई सोई जाणै रहै न कछूऐ छानी ॥ रहाउ ॥ जिहवा सुआद लोभ मदि मातो उपजे अनिक बिकारा ॥ बहुतु जोनि भरमत दुखु पाइआ हउमै बंधन के भारा ॥२॥ देइ किवाड़ अनिक पड़दे महि पर दारा संगि फाकै ॥ चित्र गुपतु जब लेखा मागहि तब कउणु पड़दा तेरा ढाकै ॥३॥ दीन दइआल पूरन दुख भंजन तुम बिनु ओट न काई ॥ काढि लेहु संसार सागर महि नानक प्रभ सरणाई ॥४॥१५॥२६॥ {पन्ना 616}

पद्अर्थ: मगनु = मस्त। अंधिआरै = अंधेरे में। न जानै = गहरी सांझ नहीं डालता। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। साजि = बना के। रचिआ = पैदा किया। मानै = मानता है।1।

मन = हे मन! मूढ़े = हे मूर्ख। करहि = तू करता है। कछूअै = कोई करतूत। छानी = छुपी। रहाउ।

मदि = नशे में। मातो = मस्त। उपजे = पैदा हो गए। भरमत = भटकते। बंधन = जंजीर।2।

देइ = दे के। देइ किवाड़ = दरवाजे बंद करके। दारा = स्त्री। संगि = साथ। फाकै = कुकर्म करता है। चित्र गुपतु = धर्मराज के मुंशी। मागहि = मांगते हैं, मांगेंगे।3।

दुख भंजन = हे दुखों का नाश करने वाले! ओट = आसरा। सागर = समुंद्र।4।

अर्थ: हे मूर्ख मन! मालिक प्रभू (तेरी सारी करतूतें हर वक्त) देख रहा है। तू जो कुछ करता है, (मालिक प्रभू) वही वही जान लेता है, (उससे तेरी) कोई भी करतूत छुपी नहीं रह सकती। रहाउ।

हे भाई! जिस परमात्मा ने शरीर-जिंद बना के जीव को पैदा किया हुआ है, उस सब दातें देने वाले प्रभू के साथ जीव गहरी सांझ नहीं डालता। माया के मोह के (आत्मिक) अंधकार में मस्त रहके अपनी ताकत को बड़ा समझता है।1।

हे भाई! मनुष्य जीभ के स्वादों में, लोभ के नशे में मस्त रहता है (जिसके कारण इसके अंदर) अनेकों विकार पैदा हो जाते हैं, मनुष्य अहंकार की जंजीरों के भार तले दब जाता है, बहुत जूनियों में भटकता फिरता है, और दुख सहता रहता है।2।

(माया के मोह के अंधकार में फसा मनुष्य) दरवाजे बंद करके अनेकों पर्दों के पीछे पराई स्त्री के साथ कुकर्म करता है। (पर, हे भाई!) जब (धर्मराज के दूत) चित्र और गुप्त (तेरी करतूतों का) हिसाब मांगेंगे, तब कोई भी तेरी करतूतों पर पर्दा नहीं डाल सकेगा।3।

हे नानक! कह– दीनों पर दया करने वाले! हे सर्व-व्यापक! हे दुखों का नाश करने वाले! तेरे बग़ैर और कोई आसरा नहीं है। हे प्रभू! मैं तेरी शरण आया हूँ। संसार समुंद्र में (डूबते हुए की मेरी बाँह पकड़ के) निकाल ले।4।15।26।

सोरठि महला ५ ॥ पारब्रहमु होआ सहाई कथा कीरतनु सुखदाई ॥ गुर पूरे की बाणी जपि अनदु करहु नित प्राणी ॥१॥ हरि साचा सिमरहु भाई ॥ साधसंगि सदा सुखु पाईऐ हरि बिसरि न कबहू जाई ॥ रहाउ ॥ अम्रित नामु परमेसरु तेरा जो सिमरै सो जीवै ॥ जिस नो करमि परापति होवै सो जनु निरमलु थीवै ॥२॥ बिघन बिनासन सभि दुख नासन गुर चरणी मनु लागा ॥ गुण गावत अचुत अबिनासी अनदिनु हरि रंगि जागा ॥३॥ मन इछे सेई फल पाए हरि की कथा सुहेली ॥ आदि अंति मधि नानक कउ सो प्रभु होआ बेली ॥४॥१६॥२७॥ {पन्ना 616}

पद्अर्थ: सहाई = मददगार। सुखदाई = सुख देने वाला, आत्मिक आनंद देने वाला। जपि = जप के, पढ़ के। अनदु करहु = आत्मिक आनंद लो। प्राणी = हे प्रणी!।1।

साचा = सदा कायम रहने वाला। भाई = हे भाई! साध संगि = साध-संगति में। बिसरि न जाई = भूलता नही। रहाउ।

अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। जीवै = आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है। करमि = (तेरी) बख्शिश से। निरमलु = पवित्र जीवन वाला। थीवै = हो जाता है।2।

बिघन = रुकावटें। सभि = सारे। चरणी = चरणों में। अचुत = ना नाश होने वाला। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। जागा = (माया के हमलों से) सचेत रहता है।3।

सुहेली = सुख देने वाली। आदि अंति मधि = शुरू में, आखिर में, बीच में, हर वक्त। बेली = मददगार।4।

अर्थ: हे भाई! सदा कायम रहने वाले परमात्मा का सिमरन करते रहा करो, (सिमरन की बरकति से) साध-संगति में सदा आत्मिक आनंद लेते हैं, और परमात्मा को कभी नहीं भूलते। रहाउ।

हे प्राणी! पूरे गुरू की (सिफत सालाह की) बाणी हमेशा पढ़ा कर, और, आत्मिक आनंद लिया कर। (जो मनुष्य सतिगुरू की बाणी से प्यार बनाता है) परमात्मा (उसका) मददगार बन जाता है, परमात्मा की सिफत सालाह (उसके अंदर) आत्मिक आनंद पैदा करती है।1।

हे सबसे ऊँचे मालिक! (परमेश्वर!) तेरा नाम आत्मिक जीवन देने वाला है। जो मनुष्य तेरा नाम सिमरता है वह आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है। जिस मनुष्य को तेरी मेहर से (हे परमेश्वर!) तेरा नाम हासिल होता है, वह मनुष्य पवित्र जीवन वाला बन जाता है।2।

(हे भाई! गुरू के चरण आत्मिक जीवन के राह की सारी) रुकावटों का नाश करने वाले हैं, सारे दुख दूर करने वाले हैं, जिस मनुष्य का मन गुरू के चरणों में परचता है, वह मनुष्य हर समय अविनाशी व अटल परमात्मा के गुण गाता गाता प्रभू के प्रेम-रंग में लीन हो के (माया के हमलों से) सचेत रहता है।3।

हे भाई! परमात्मा की सिफत सालाह आत्मिक आनंद देने वाली है (सिफत सालाह करने वाला मनुष्य) वही फल प्राप्त कर लेता है जिसकी कामना उसका मन करता है। हे भाई! (सिफत सालाह की बरकति से) परमात्मा नानक के लिए सदा मददगार बन गया है।4।16।27।

सोरठि महला ५ पंचपदा ॥ बिनसै मोहु मेरा अरु तेरा बिनसै अपनी धारी ॥१॥ संतहु इहा बतावहु कारी ॥ जितु हउमै गरबु निवारी ॥१॥ रहाउ ॥ सरब भूत पारब्रहमु करि मानिआ होवां सगल रेनारी ॥२॥ पेखिओ प्रभ जीउ अपुनै संगे चूकै भीति भ्रमारी ॥३॥ अउखधु नामु निरमल जलु अम्रितु पाईऐ गुरू दुआरी ॥४॥ कहु नानक जिसु मसतकि लिखिआ तिसु गुर मिलि रोग बिदारी ॥५॥१७॥२८॥ {पन्ना 616}

नोट: पंचपदा–पाँच बंदों वाले शबद।

पद्अर्थ: बिनसै = खत्म हो गए। मेरा अरु तेरा = मेर तेर वाला भेदभाव। अपनी धारी = अपनत्व, माया से पकड़।1।

ईहा = ऐसी। कारी = इलाज। जितु = जिस से। गरबु = अहंकार। निवारी = मैं दूर कर लूँ। रहाउ।

भूत = जीव। मानिआ = माना जा सके। रेनारी = चरण धूड़।2।

पेखिओ = देखा जा सके। चूकै = खत्म हो जाए। भीति = दीवार। भ्रमारी = भटकना की।3।

अउखधु = दवाई। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। दुआरी = दर पर।4।

जिसु मसतकि = जिस (मनुष्य) के माथे पर। तिसु रोग = उसके रोग। गुर मिलि = गुरू को मिल के। बिदारी = दूर किए जा सकते हैं।5।

अर्थ: हे संत जनो! (मुझे कोई) ऐसा इलाज बताओ, जिससे मैं (अपने अंदर से) अहंकार को दूर कर सकूँ। रहाउ।

(जिस इलाज से मेरे अंदर से) मोह का नाश हो जाए, मेर-तेर वाला भेदभाव दूर हो जाए, मेरी माया से पकड़ खत्म हो जाए।1।

(जिस उपचार से) परमात्मा सभी जीवों में बसा हुआ माना जा सके, और, मैं सभी के चरणों की धूड़ बना रहूँ।2।

(जिस इलाज से) परमात्मा अपने अंग-संग देखा जा सके, और (मेरे अंदर से) माया की खातिर भटकने वाली दीवार दूर हो जाए (जो परमात्मा से दूरियां डाले हुए है)।3।

(हे भाई!) वह दवा तो परमात्मा का नाम ही है, आत्मिक जीवन देने वाला पवित्र नाम-जल ही है। ये नाम गुरू के दर से मिलता है।4।

हे नानक! कह– जिस मनुष्य के माथे पर (नाम की प्राप्ति का लेख) लिखा हो, (उसे नाम गुरू से मिलता है और), गुरू को मिल के उसके रोग काटे जाते हैं।5।17।28।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh