श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सोरठि महला ५ ॥ जनम जनम के दूख निवारै सूका मनु साधारै ॥ दरसनु भेटत होत निहाला हरि का नामु बीचारै ॥१॥ मेरा बैदु गुरू गोविंदा ॥ हरि हरि नामु अउखधु मुखि देवै काटै जम की फंधा ॥१॥ रहाउ ॥ समरथ पुरख पूरन बिधाते आपे करणैहारा ॥ अपुना दासु हरि आपि उबारिआ नानक नाम अधारा ॥२॥६॥३४॥ {पन्ना 618}

पद्अर्थ: निवारै = दूर कर देता है। सूका = सूखा हुआ, परमात्मा के प्रेम की हरियाली से वंचित। साधारै = साहारा देता है। भेटत = मिलके, प्राप्त हो के। निहाला = प्रसन्न चिक्त। बीचारै = विचार करता है, सोच मण्डल में बसा लेता है।1।

बैदु = हकीम। अउखधु = दवाई। मुखि = मुँह में। फंधा = फंदा, फांसी।1। रहाउ।

समरथ = हे सब ताकतों के मालिक! पुरख = हे सर्व व्यापक! पूरन = हे भरपूर! बिधाते = हे सृजनहार! आपे = (तू) खुद ही। करणैहारा = (गुरू को) बनाने वाला। उबारिआ = (जम के फंदे से) उबार लिया, बचा लिया। अधारा = आसरा।2।

अर्थ: हे भाई! गोबिंद का रूप मेरा गुरू (पूरा) हकीम है। (ये हकीम जिस मनुष्य के) मुँह में हरी-नाम की दवाई डालता है, (उसका) जम का फंदा काट देता है (आत्मिक मौत लाने वाले विकारों के फंदे उसके अंदर से काट देता है)।1। रहाउ।

हे भाई! वैद्य-गुरू (शरण आए मनुष्य के) अनेकों जन्मों के दुख दूर कर देता है, आत्मिक जीवन की हरियाली से वंचित उसके मन को (नाम रूपी दवा का) सहारा देता है। गुरू के दर्शन करते ही (मनुष्य) खिल जाता है, और, परमात्मा के नाम को अपने सोच-मण्डल में बसा लेता है।1।

हे नानक! (कह–) हे सब ताकतों के मालिक! हे सर्व-व्यापक! हे भरपूर! हे सब जीवों के पैदा करने वाले! तू खुद ही (गुरू को पूरा वैद्य) बनाने वाला है। अपने सेवक को (वैद्य-गुरू से) नाम का आसरा दिलवा के तू खुद ही (जम के फंदे से) बचा लेता है।2।6।34।

सोरठि महला ५ ॥ अंतर की गति तुम ही जानी तुझ ही पाहि निबेरो ॥ बखसि लैहु साहिब प्रभ अपने लाख खते करि फेरो ॥१॥ प्रभ जी तू मेरो ठाकुरु नेरो ॥ हरि चरण सरण मोहि चेरो ॥१॥ रहाउ ॥ बेसुमार बेअंत सुआमी ऊचो गुनी गहेरो ॥ काटि सिलक कीनो अपुनो दासरो तउ नानक कहा निहोरो ॥२॥७॥३५॥ {पन्ना 618}

पद्अर्थ: गति = आत्मिक अवस्था। पाहि = पास। निबेरो = निबेड़ा, फैसला। साहिब = हे मालिक! खते = पाप। करि फेरो = करता फिरता हूँ।1।

ठाकुरु = पालनहार। नेरो = नजदीक, अंग संग। मोहि = मुझे। चेरो = चेरा, दास।1। रहाउ।

सुआमी = हे मालिक! गुनी = गुणों का मालिक! गहेरा = गहरा। सिलक = फंदा। दासरो = तुच्छ सा दास। तउ = तब। निहोरो = मुथाजी।2।

अर्थ: हे प्रभू जी! तू मेरा पालनहारा मालिक है, मेरे अंग-संग बसता है। हे हरी! मुझे अपने चरणों की शरण में रख, मुझे अपना दास बनाए रख।1। रहाउ।

हे मेरे अपने मालिक प्रभू! मेरे दिल की हालत तू ही जानता है, तेरी शरण पड़ कर ही (मेरी अंदरूनी खराब हालत का) खात्मा हो सकता है। मैं लाखों पाप करता फिरता हूँ। हे मेरे मालिक! मुझे बख्श ले।1।

हे बेशुमार प्रभू! हे बेअंत! हे मेरे मालिक! तू ऊँची आत्मिक अवस्था वाला है, तू सारे गुणों का मालिक है, तू गहरा है। हे नानक! (कह– हे प्रभू! जब तू किसी मनुष्य के विकारों के) फंदे काट के उसको अपना दास बना लेता है, तब उसे किसी की मुथाजी नहीं रहती।2।7।35।

सोरठि मः ५ ॥ भए क्रिपाल गुरू गोविंदा सगल मनोरथ पाए ॥ असथिर भए लागि हरि चरणी गोविंद के गुण गाए ॥१॥ भलो समूरतु पूरा ॥ सांति सहज आनंद नामु जपि वाजे अनहद तूरा ॥१॥ रहाउ ॥ मिले सुआमी प्रीतम अपुने घर मंदर सुखदाई ॥ हरि नामु निधानु नानक जन पाइआ सगली इछ पुजाई ॥२॥८॥३६॥ {पन्ना 618}

पद्अर्थ: क्रिपाल = दयावान। गोविंदा = परमात्मा। सगल = सारे। मनोरथ = मन की मुरादें। असथिर = अडोल। गाऐ = गा के।1।

भलो = अच्छा। पूरा = शुभ। स मूरतु = वह समय। सहज = आत्मिक अडोलता। जपि = जप के। वाजे = बज पड़े। अनहद = बिना बजाए, एक रस। तूरा = बाजा।1। रहाउ।

निधानु = खजाना। पुजाई = पूरी हो गई।2।

अर्थ: ( हे भाई! मनुष्य के जीवन में) वह समय सुहाना होता है, जब परमात्मा का नाम जप के उसके अंदर शांति, आत्मिक अडोलता, आनंद के एक-रस बाजे बजते हैं।1। रहाउ।

हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा का रूप् गुरू दयावान होता है, उसके मन की सारी मुरादें पूरी हो जाती हैं (क्योंकि) परमात्मा के सिफत सालाह के गीत गा गा के प्रभू चरनों में लगन लगा के वह मनुष्य (माया के हमलों के आगे) नहीं डोलता।1।

हे भाई! जिस मनुष्य को अपने मालिक प्रीतम प्रभू जी मिल जाते हैं, उसे ये घर-घाट सुख देने वाले प्रतीत होते हैं। हे दास नानक! जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम खजाना पा लिया, उसकी हरेक मनोकामना पूरी हो जाती है।2।8।36।

सोरठि महला ५ ॥ गुर के चरन बसे रिद भीतरि सुभ लखण प्रभि कीने ॥ भए क्रिपाल पूरन परमेसर नाम निधान मनि चीने ॥१॥ मेरो गुरु रखवारो मीत ॥ दूण चऊणी दे वडिआई सोभा नीता नीत ॥१॥ रहाउ ॥ जीअ जंत प्रभि सगल उधारे दरसनु देखणहारे ॥ गुर पूरे की अचरज वडिआई नानक सद बलिहारे ॥२॥९॥३७॥ {पन्ना 618}

पद्अर्थ: रिद भीतरि = हृदय में। सुभ लखण = सफलता देने वाले लक्षण। प्रभि = प्रभू ने। मनि = मन में। चीने = पहचान लिए।1।

मेरो = मेरा। रखवारो = रखवाला। चऊणी = चौगुनी। दे = देता है। नीता नीत = रोजाना, सदा ही।1। रहाउ।

जीअ जंत सगले = सारे ही जीव। प्रभि = प्रभू ने। देखणहारे = देखने वाले। अचरज = हैरान कर देने वाली। वडिआई = बड़ा दर्जा। सद = सदा। बलिहारे = कुर्बान।2।

अर्थ: हे भाई! मेरा गुरू मेरा रखवाला है मेरा मित्र है, (प्रभू का नाम दे के, मुझे) वह वडिआई बख्शता है जो दुगनी-चौगुनी हो जाती है (सदैव बढ़ती जाती है), मुझे सदा शोभा दिलवाता है।1। रहाउ।

हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में गुरू के चरण बस गए, प्रभू ने (उसकी जिंदगी में) सफलता पैदा करने वाले लक्षण पैदा कर दिए। सर्व-व्यापक प्रभू जी जिस मनुष्य पर दयावान हो गए, उस मनुष्य ने परमात्मा के नाम के खजाने अपने मन में (टिके हुए) पहचान लिए।1।

हे भाई! गुरू के दर्शन करने वाले सारे मनुष्यों को प्रभू ने (विकारों से) बचा लिया। पूरे गुरू का इतना बड़ा दर्जा है कि (देख के) हैरान हो जाते हैं। हे नानक! (कह– मैं गुरू से) सदा कुर्बान जाता हूँ।2।9।37।

सोरठि महला ५ ॥ संचनि करउ नाम धनु निरमल थाती अगम अपार ॥ बिलछि बिनोद आनंद सुख माणहु खाइ जीवहु सिख परवार ॥१॥ हरि के चरन कमल आधार ॥ संत प्रसादि पाइओ सच बोहिथु चड़ि लंघउ बिखु संसार ॥१॥ रहाउ ॥ भए क्रिपाल पूरन अबिनासी आपहि कीनी सार ॥ पेखि पेखि नानक बिगसानो नानक नाही सुमार ॥२॥१०॥३८॥ {पन्ना 618}

पद्अर्थ: संचनि करउ = (करूँ) मैं इकट्ठा करता हूँ। नाम धनु निरमल = निर्मल नाम धन, प्रभू के पवित्र नाम का धन। थाती = (स्थिति) टिकाव। अगम = अपहुँच। अपार = बेअंत। बिलछि = (विलस्य) प्रसन्न हो के। बिनोद = (आत्मिक) चोज तमाशे। जीवहु = आत्मिक जीवन प्राप्त करो। सिख परवार = हे (गुरू के) सिख परिवार!।1।

आधार = आसरा। संत प्रसादि = गुरू की कृपा से। सच = सदा कायम रहने वाला। बोहिथु = जहाज़। चढ़ि = चढ़ के। लंघउ = पार होऊँ। बिखु = जहर।1। रहाउ।

आपहि = खुद ही। सार = संभाल। पेखि = देख के। नानकु बिगसानो = नानक खुश हो रहा है। नानक = हे नानक! सुमार = शुमारी, गिनती, हॅद।2।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के कोमल चरणों को (मैंने अपनी जिंदगी का) आसरा (बना लिया है)। गुरू की कृपा से मैं सदा-स्थिर प्रभू का नाम-जहाज़ पा लिया है, (उसमें) चढ़ के मैं (आत्मिक मौत लाने वाले विकारों के) ज़हर भरे संसार समुंद्र से पार लांघ रहा हूँ।1। रहाउ।

(हे भाई! गुरू की कृपा से) मैं परमात्मा के पवित्र नाम का धन इकट्ठा कर रहा हूँ (जहाँ ये धन एकत्र किया जाए, वहाँ ) अपहुँच और बेअंत प्रभू का निवास हो जाता है। हे (गुरू के) सिख परिवार! (हे गुरसिखो!) तुम भी (आत्मिक जीवन वास्ते ये नाम-भोजन) खा के आत्मिक जीवन हासिल करो, खुश हो के आत्मिक चोज आनंद लिया करो।1।

हे भाई! जिस मनुष्य पर सर्व-व्यापक अविनाशी प्रभू जी दयावान होते हैं, उसकी संभाल आप ही करते हैं। नानक (उसका ये करिश्मा) देख देख के खुश हो रहा है। हे नानक! (सेवक की संभाल करने की प्रभू की दया का) अंदाजा नहीं लगाया जा सकता।2।10।38।

सोरठि महला ५ ॥ गुरि पूरै अपनी कल धारी सभ घट उपजी दइआ ॥ आपे मेलि वडाई कीनी कुसल खेम सभ भइआ ॥१॥ सतिगुरु पूरा मेरै नालि ॥ पारब्रहमु जपि सदा निहाल ॥ रहाउ ॥ अंतरि बाहरि थान थनंतरि जत कत पेखउ सोई ॥ नानक गुरु पाइओ वडभागी तिसु जेवडु अवरु न कोई ॥२॥११॥३९॥ {पन्ना 618}

पद्अर्थ: गुरि पूरै = पूरे गुरू ने। कल = कला, सक्ता, ताकत। सभ घट = सारे शरीरों के लिए। उपजी = पैदा हो गई है। आपे = आप ही। मेलि = (प्रभू के चरणों में) मिला के। वडाई = ऊँचा आत्मिक दर्जा। कुसल खेम = खुशी प्रसन्नता।1।

जपि = जप के। निहाल = प्रसन्न चिक्त। रहाउ।

थान थनंतरि = स्थान स्थान अंतर, हर जगह में। जत कत = जहाँ कहाँ। पेखउ = मैं देखूँ। सोई = वह (परमात्मा) ही। जेवडु = जितना, बराबर का। अवरु = और।2।

अर्थ: हे भाई ! पूरा गुरू (हर वक्त) मेरे साथ (मेरी सहायता करने वाला) है। (उसकी मेहर से) परमात्मा का नाम जप के मैं सदा प्रसन्न-चित्त रहता हूँ। रहाउ।

हे भाई! पूरा गुरू ने (मेरे अंदर) अपनी (ऐसी) ताकत भर दी है (कि मेरे अंदर) सब जीवों के लिए प्यार पैदा हो गया है। (गुरू ने) खुद ही (मुझे प्रभू चरणों में) जोड़ के (मुझको) आत्मिक उच्चता बख्शी है, (अब मेरे अंदर) आनंद ही आनंद बना रहता है।1।

हे भाई! अब अपने अंदर और बाहर (सारे जगत में), हर जगह में, मैं जहाँ भी देखता हूँ उस परमात्मा को ही (बसता देखता हॅू)। हे नानक! (मुझे) बड़े भाग्यों से गुरू मिला है (ऐसी दाति बख्शिश कर सकने वाला) गुरू के बराबर का और कोई नहीं है।2।11।39।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh