श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सोरठि महला ५ ॥ सूख मंगल कलिआण सहज धुनि प्रभ के चरण निहारिआ ॥ राखनहारै राखिओ बारिकु सतिगुरि तापु उतारिआ ॥१॥ उबरे सतिगुर की सरणाई ॥ जा की सेव न बिरथी जाई ॥ रहाउ ॥ घर महि सूख बाहरि फुनि सूखा प्रभ अपुने भए दइआला ॥ नानक बिघनु न लागै कोऊ मेरा प्रभु होआ किरपाला ॥२॥१२॥४०॥ {पन्ना 619}

पद्अर्थ: मंगल = खुशियां। कलिआण = सुख। सहज धुनि = आत्मिक अडोलता की रौंअ। निहारिआ = देखे। राखनहारै = रक्षा करने की समर्था वाले ने। सतिगुरू ने।1।

उबरे = बच गए। जा की = जिस (गुरू) की। बिरथी = व्यर्थ, ख़ाली। रहाउ।

घर महि = हृदय में। फुनि = भी। बिघनु = रुकावट।2।

अर्थ: हे भाई! जिस गुरू की की हुई सेवा ख़ाली नहीं जाती, उस गुरू की शरण जो मनुष्य पड़ते हैं वह (आत्मिक जीवन के रास्ते में आने वाली रुकावटों से) बच जाते हैं। रहाउ।

(हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण आ पड़ा) गुरू ने उसका ताप (दुख-कलेश) उतार दिया, रक्षा करने की समर्था वाले गुरू ने उस बालक को (विघनों से) बचा लिया (उसे यूँ बचाया जैसे पिता अपने पुत्र की रक्षा करता है)। (गुरू की शरण पड़ के जिस मनुष्य ने) परमात्मा के चरणों के दर्शन कर लिए, उसके अंदर सुख-खुशी-आनंद और आत्मिक अडोलता की लहर चल पड़ी।1।

(हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है उसके) हृदय में आत्मिक आनंद बना रहता है, बाहर (दुनिया से बर्ताव-व्यवहार करते हुए) भी उसे आत्मिक सुख मिला रहता है, उस पर प्रभू सदा दयावान रहता है। हे नानक! उस मनुष्य की जिंदगी के रास्ते में कोई रुकावट नहीं आती, उस पर परमात्मा कृपालु हुआ रहता है।2।12।40।

सोरठि महला ५ ॥ साधू संगि भइआ मनि उदमु नामु रतनु जसु गाई ॥ मिटि गई चिंता सिमरि अनंता सागरु तरिआ भाई ॥१॥ हिरदै हरि के चरण वसाई ॥ सुखु पाइआ सहज धुनि उपजी रोगा घाणि मिटाई ॥ रहाउ ॥ किआ गुण तेरे आखि वखाणा कीमति कहणु न जाई ॥ नानक भगत भए अबिनासी अपुना प्रभु भइआ सहाई ॥२॥१३॥४१॥ {पन्ना 619}

नोट: ‘इया’ का उच्चारण ‘या’ व ‘यआ’ करना है जैसे ‘भइआ’ को ‘भया’।

पद्अर्थ: साधू संगि = गुरू की संगति में। मनि = मन में। जसु = सिफत सालाह के गीत। गाई = गाए, गाने लग पड़ता है। सिमरि = सिमर के। अनंता = बेअंत प्रभू। सागरु = समुंद्र। भाई = हे भाई!।1।

हिरदै = हृदय में। वसाई = बसा के टिका के। सहज धुनि = आत्मिक अडोलता की रौंअ। घाणि = घाणी, ढेर। रहाउ।

आखि = कह के। वखाणा = कहूँ। अबिनासी = नाश रहित, आत्मिक मौत से रहित।

अर्थ: हे भाई! अपने हृदय में परमात्मा के चरण टिकाए रख (विनम्रता में रह के परमात्मा का सिमरन किया कर)। (जिसने भी ये उद्यम किया है, उसने) आत्मिक आनंद प्राप्त कर लिया, (उसके अंदर) आत्मिक अडोलता की रौंअ पैदा हो गई, (उसने अपने अंदर से) रोगों के ढेर मिटा लिए। रहाउ।

हे भाई! गुरू की संगति में रहने से मन में उद्यम पैदा होता है, (मनुष्य) श्रेष्ठ नाम जपने लग जाता है, परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाने लग पड़ता है। बेअंत प्रभू का सिमरन करके मनुष्य की चिंता मिट जाती है, मनुष्य संसार समुंद्र से पार लांघ जाता है।1।

हे प्रभू! मैं तेरे कौन-कौन से गुण बयान करके बताऊँ? तेरा मूल्य बताया नहीं जा सकता (तू किसी दुनियावी पर्दाथ के बदले में नहीं मिल सकता)। हे नानक! प्यारा प्रभू जिन मनुष्यों का मददगार बनता है, वह भक्त-जन आत्मिक मौत से रहित हो जाते हैं।2।13।41।

सोरठि मः ५ ॥ गए कलेस रोग सभि नासे प्रभि अपुनै किरपा धारी ॥ आठ पहर आराधहु सुआमी पूरन घाल हमारी ॥१॥ हरि जीउ तू सुख स्मपति रासि ॥ राखि लैहु भाई मेरे कउ प्रभ आगै अरदासि ॥ रहाउ ॥ जो मागउ सोई सोई पावउ अपने खसम भरोसा ॥ कहु नानक गुरु पूरा भेटिओ मिटिओ सगल अंदेसा ॥२॥१४॥४२॥ {पन्ना 619}

पद्अर्थ: कलेस = मानसिक दुख। सभि = सारे। प्रभि = प्रभू ने। आठ पहर = सदा, हर वक्त। घाल = मेहनत। हमारी = हम जीवों की।1।

संपति = धन। रासि = सरमाया। भाई = हे भाई! हे प्रभू। मेरे कउ = मुझे। रहाउ।

मागउ = मागूँ। पावउ = प्राप्त कर लेता हूँ। भरोसा = सहारा।2।

अर्थ: हे प्रभू जी! तू ही मुझे आत्मिक आनंद का धन-सरमाया देने वाला है। हे प्रभू! मुझे (कलेशों-अंदेशों से) बचा ले। हे प्रभू! मेरी तेरे आगे यही आरजू है। रहाउ।

हे भाई! जिस भी मनुष्य पर प्यारे प्रभू ने मेहर की उसके सारे कलेश और रोग दूर हो गए। (हे भाई!) मालिक प्रभू को आठों पहर याद करते रहा करो, हम जीवों की (ये) मेहनत (अवश्य) सफल होती है।1।

हे भाई! मैं तो जो कुछ (प्रभू से) माँगता हूँ, वही कुछ प्राप्त कर लेता हूँ। मुझे अपने मालिक प्रभू पर (पूरा) ऐतबार (बन चुका) है। हे नानक! कह–जिस मनुष्य को पूरा गुरू मिल जाता है, उसकी सारी चिंता-फिकर दूर हो जाती हैं।2।14।42।

सोरठि महला ५ ॥ सिमरि सिमरि गुरु सतिगुरु अपना सगला दूखु मिटाइआ ॥ ताप रोग गए गुर बचनी मन इछे फल पाइआ ॥१॥ मेरा गुरु पूरा सुखदाता ॥ करण कारण समरथ सुआमी पूरन पुरखु बिधाता ॥ रहाउ ॥ अनंद बिनोद मंगल गुण गावहु गुर नानक भए दइआला ॥ जै जै कार भए जग भीतरि होआ पारब्रहमु रखवाला ॥२॥१५॥४३॥ {पन्ना 619}

पद्अर्थ: सिमरि सिमरि = बार बार याद करके। सगला = सारा। गुर बचनी = गुरू के बचनों पर चल के।1।

करण कारण = जगत का मूल। समरथ = सारी ताकतों का मालिक। बिधाता = सृजनहार। रहाउ।

बिनोद = कौतक, तमाशे, खुशियां। जै जै कार = शोभा। भीतरि = में।2।

अर्थ: हे भाई! मेरा गुरू सब गुणों से भरपूर है, सारे सुख बख्शने वाला है। गुरू उस सर्व-व्यापक सृजनहार का रूप है जो सारे जगत का मूल है, जो सब ताकतों का मालिक है। रहाउ।

(हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, वह) बार बार गुरू सतिगुरू (की बाणी) को याद करके अपना हरेक किस्म का दुख दूर कर लेता है। गुरू के बचनों पर चल के उसके सारे कलेश, सारे रोग दूर हो जाते हैं, वह मन-मांगे फल प्राप्त कर लेता है।1।

हे नानक! (कह– हे भाई! अगर तेरे पर) सतिगुरू जी दयावान हुए हैं, तो तू प्रभू की सिफत सालाह के गीत गाता रहा कर, (सिफत सालाह की बरकति से तेरे अंदर) आनंद-खुशियां व सुख बने रहेंगे। (सिफत सालाह के सदके) जगत में शोभा मिलती है। (ये निष्चय बना रहता है कि) परमात्मा (सदा सिर पर) रखवाला है।2।15।43।

सोरठि महला ५ ॥ हमरी गणत न गणीआ काई अपणा बिरदु पछाणि ॥ हाथ देइ राखे करि अपुने सदा सदा रंगु माणि ॥१॥ साचा साहिबु सद मिहरवाण ॥ बंधु पाइआ मेरै सतिगुरि पूरै होई सरब कलिआण ॥ रहाउ ॥ जीउ पाइ पिंडु जिनि साजिआ दिता पैनणु खाणु ॥ अपणे दास की आपि पैज राखी नानक सद कुरबाणु ॥२॥१६॥४४॥ {पन्ना 619}

पद्अर्थ: हमरी = हम जीवों की। गणत = किए कर्मों का हिसाब-किताब। न गणीआ = नहीं गिनता। काई गणत = कोई भी लेखा। बिरदु = प्राकृतिक (प्यार वाला) स्वभाव। पछाणि = पहचानता है, याद रखता है। देइ = दे के। राखे = (कुकर्मों से) बचाए रखता है। माणि = माणता है, भोगता है।1।

साचा = सदा कायम रहने वाला। सद = सदा। बंधु = रोक, बंधन, (कुकर्मों के राह में) रुकावट। सतिगुरि = गुरू ने। कलिआण = (आत्मिक) सुख। रहाउ।

जीउ = जिंद। पाइ = पा के। पिंडु = शरीर। जिन = जिस (प्रभू) ने। सजाइआ = पैदा किया। पैज = इज्जत। सद = सदा।2।

अर्थ: हे भाई! सदा कायम रहने वाला मालिक प्रभू सदा दयावान रहता है, (कुकर्मों की ओर जा रहे लोगों को बचा के वह गुरू से मिलाता है। जिसे पूरा गुरू मिल गया, उसके विकारों के रास्ते में) मेरे पूरे गुरू ने रुकावट खड़ी कर दी (और, इस तरह उसके अंदर) सारे आत्मिक आनंद पैदा हो गए। रहाउ।

हे भाई! परमात्मा हम जीवों के किए बुरे कर्मों का कोई ख्याल नहीं करता। वह अपने मूल (प्यार भरे) स्वभाव (बिरद) को याद रखता है (वह बल्कि, हमें गुरू से मिलवा के, हमें) अपने बना के (अपना) हाथ दे के (हमें विकारों से) बचाता है। (जिस भाग्यशाली को गुरू मिल जाता है, वह) सदा ही आत्मिक आनंद लेता है।1।

हे भाई! जिस परमात्मा ने प्राण डाल के (हमारा) शरीर पैदा किया है, जो (हर वक्त) हमें खुराक और पोशाक दे रहा है, वह परमात्मा (संसार समुंद्र की विकार-लहरों से) अपने सेवक की इज्जत (गुरू को मिला के) बचाता है। हे नानक! (कह– मैं उस परमात्मा से) सदा सदके जाता हूँ।2।16।44।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh