श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 620 सोरठि महला ५ ॥ दुरतु गवाइआ हरि प्रभि आपे सभु संसारु उबारिआ ॥ पारब्रहमि प्रभि किरपा धारी अपणा बिरदु समारिआ ॥१॥ होई राजे राम की रखवाली ॥ सूख सहज आनद गुण गावहु मनु तनु देह सुखाली ॥ रहाउ ॥ पतित उधारणु सतिगुरु मेरा मोहि तिस का भरवासा ॥ बखसि लए सभि सचै साहिबि सुणि नानक की अरदासा ॥२॥१७॥४५॥ {पन्ना 620} पद्अर्थ: दुरतु = (दुरित) पाप। प्रभि = प्रभू ने। आपे = खुद ही। सभु = सारा। उबारिआ = (पापों से) बचा लिया। पारब्रहमि = पारब्रहम ने। बिरदु = ईश्वर का मूल प्यारा वाला स्वभाव। समारिआ = याद रखा है।1। राजे राम की = राम राजे की, प्रभू पातशाह की। रखवाली = रक्षा, सहायता। सहज = आत्मिक अडोलता। सुखाली = सुखी। रहाउ। पतित उधारणु = विकारों में गिरे हुओं को (विकारों से) बचाने वाला। मोहि = मुझे। तिस का: ‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हट गई है। भरवासा = आसरा। सभि = सारे। सुणि = सने, सुनता है।2। अर्थ: हे भाई! प्रभू-पातशाह (जिस मनुष्य की पापों से) रक्षा करता है, उसका मन सुखी हो जाता है, उसका शरीर सुखी हो जाता है। (हे भाई! तुम भी) परमात्मा के सिफत सालाह के गीत गाया करो, (तुम्हें भी) सुख मिलेंगे, आत्मिक अडोलता के आनंद मिलेंगे। रहाउ। (हे भाई!) जिस मनुष्य पर पारब्रहम प्रभू ने मेहर (की निगाह) की, (उसको गुरू मिला के) प्रभू ने (उसके पीछे किए) पाप (उसके अंदर से) दूर कर दिए। (इस तरह) प्रभू खुद ही सारे संसार को (विकारों से) बचाता है। अपना मूल प्यार भरा स्वभाव (बिरद) याद रखता है।1। हे भाई! मेरा गुरू विकारियों को (विकारों से) बचाने वाला है। मुझे भी उस का (ही) सहारा है। जिस सदा रहने वाले मालिक ने सारे जीव (गुरू की शरण में डाल के) बख्श लिए हैं (जो सदा स्थिर प्रभू विकारियों को भी गुरू की शरण में डाल कर बख्शता आ रहा है), वह प्रभू नानक की आरजू भी सुनने वाला है।2।17।45। सोरठि महला ५ ॥ बखसिआ पारब्रहम परमेसरि सगले रोग बिदारे ॥ गुर पूरे की सरणी उबरे कारज सगल सवारे ॥१॥ हरि जनि सिमरिआ नाम अधारि ॥ तापु उतारिआ सतिगुरि पूरै अपणी किरपा धारि ॥ रहाउ ॥ सदा अनंद करह मेरे पिआरे हरि गोविदु गुरि राखिआ ॥ वडी वडिआई नानक करते की साचु सबदु सति भाखिआ ॥२॥१८॥४६॥ {पन्ना 620} पद्अर्थ: परमेसरि = परमेश्वर ने। बिदारे = दूर कर दिए। सगल = सारे।1। जनि = जन ने। अधारि = आसरे पर। सतिगुरि = गुरू ने। रहाउ। करह = हम करते हैं। पिआरे = हे प्यारे! गुरि = गुरू ने। करते की = करतार की। साचु = सदा कायम रहने वाला। सति = ठीक, सच। भाखिआ = उचारा।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के जिस सेवक ने परमात्मा का नाम सिमरा, नाम के आसरे में (अपने आप को चलाया), पूरे गुरू ने अपनी कृपा करके (उसका) ताप उतार दिया। रहाउ। हे भाई! पारब्रहम परमेश्वर ने (जिस सेवक पर) बख्शिश की, उसके सारे रोग उसने दूर कर दिए। जो भी मनुष्य गुरू की शरण पड़ते हैं, वे दुख-कलेशों से बच जाते हैं। गुरू उनके सारे काम सवार देता है।1। हे मेरे प्यारे (भाई!) (गुरू की शरण पड़ कर) हम (भी) सदा आनंद पाते हैं। हरि गोबिंद को गुरू ने (ही ताप से) बचाया है। हे नानक! सृजनहार करतार बड़ी ताकतों का मालिक है। उस सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह का शबद (ही) उचारना चाहिए। (गुरू ने यह) सही बचन उचारा है (ठीक उपदेश दिया है)।2।18।46। सोरठि महला ५ ॥ भए क्रिपाल सुआमी मेरे तितु साचै दरबारि ॥ सतिगुरि तापु गवाइआ भाई ठांढि पई संसारि ॥ अपणे जीअ जंत आपे राखे जमहि कीओ हटतारि ॥१॥ हरि के चरण रिदै उरि धारि ॥ सदा सदा प्रभु सिमरीऐ भाई दुख किलबिख काटणहारु ॥१॥ रहाउ ॥ तिस की सरणी ऊबरै भाई जिनि रचिआ सभु कोइ ॥ करण कारण समरथु सो भाई सचै सची सोइ ॥ नानक प्रभू धिआईऐ भाई मनु तनु सीतलु होइ ॥२॥१९॥४७॥ {पन्ना 620} पद्अर्थ: तितु = उस में। तितु दरबारि = उस दरबार में। तितु साचै दरबारि = उस सदा कायम रहने वाले दरबार में। सतिगुरि = गुरू ने। ठांढि = ठंड। संसारि = संसार में। जमहि = जम ने। हटतारि = हड़ताल, हाट का ताला, दुकान बंदी।1। रिदै = हृदय में। उरि धारि = हृदय में टिकाए रख। सिमरिअै = सिमरना चाहिए। भाई = हे भाई! किलबिख = पाप। काटणहारु = काटने की ताकत रखने वाला।1। रहाउ। तिस की: ‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हट गई है। ऊबरै = बच जाता है। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। सभु कोइ = हरेक जीव। करण कारण = जगत का मूल। सचै = सदा कायम रहने वाले की। सची = सदा कायम रहने वाली। सोइ = शोभा। सीतलु = शांत।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के चरण अपने हृदय में टिकाए रख। हे भाई! परमात्मा को सदा सदा ही सिमरना चाहिए। वह परमात्मा ही सारे दुखों पापों को नाश करने वाला है।1। रहाउ। हे भाई! जिस मनुष्य पर मेरे मालिक प्रभू जी दयावान होते हैं, वह सदा कायम रहने वाले दरबार में (उसकी पहुँच हो जाती है। उसकी सुरति प्रभू-चरणों में जुड़ने लग जाती है। प्रभू की कृपा से जब) गुरू ने (उसका दुखों व पापों का) ताप दूर कर दिया (तो उसके वास्ते सारे) संसार में शांति बरत जाती है (जगत का कोई दुख-पाप उसे छू नहीं सकता)। हे भाई! प्रभू आप ही अपने सेवकों की (दुख-पाप से) रक्षा करता है, आत्मिक मौत उन्हें छू नहीं सकती (जम उन पर अपना प्रभाव डालने का प्रयत्न त्याग देता है)।1। हे भाई! जिस परमात्मा ने हरेक जीव को पैदा किया है (जो मनुष्य) उसकी शरण पड़ता है वह (दुखों-पापों से) बच जाता है। हे भाई! वह परमात्मा सारे जगत का मूल है, सब ताकतों का मालिक है, उस सदा कायम रहने वाले प्रभू की शोभा भी सदा कायम रहने वाली है। हे नानक! (कह–) हे भाई! उस प्रभू का सिमरन करना चाहिए, (सिमरन की बरकति से) मन शांत हो जाता है, तन शांत हो जाता है।2।19।47। सोरठि महला ५ ॥ संतहु हरि हरि नामु धिआई ॥ सुख सागर प्रभु विसरउ नाही मन चिंदिअड़ा फलु पाई ॥१॥ रहाउ ॥ सतिगुरि पूरै तापु गवाइआ अपणी किरपा धारी ॥ पारब्रहम प्रभ भए दइआला दुखु मिटिआ सभ परवारी ॥१॥ सरब निधान मंगल रस रूपा हरि का नामु अधारो ॥ नानक पति राखी परमेसरि उधरिआ सभु संसारो ॥२॥२०॥४८॥ {पन्ना 620} पद्अर्थ: संतहु = हे संत जनो! धिआई = मैं ध्याता रहूँ। सागर = समुंद्र। विसरउ नाही = हुकमी भविष्यत्, अॅन पुरख, एक वचन। (देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। भूल ना जाए। चिंदड़िआ = चितवा, याद किया। पाई = मैं प्राप्त करूँ।1। सतिगुरि = गुरू ने। परवारी = परवार का।1। निधान = खजाने। अधारो = आसरा। पति = इज्जत। परमेसरि = परमेश्वर ने। सभु = सारा। उधरिआ = बचा लिया।2। अर्थ: हे संत जनो! (अरदास करो कि) मैं सदा परमात्मा का नाम सिमरत रहूँ। सुखों का समुंद्र परमात्मा मुझे कभी ना भूले, मैं (उसके दर से) मन-इच्छित फल प्राप्त करता रहूँ।1। रहाउ। हे संत जनो! पूरे गुरू ने (बालक हरि गोबिंद का) ताप (बुखार) उतार दिया, गुरू ने अपनी कृपा की है। परमात्मा दयावान हुआ है, सारे परिवार का दुख मिट गया है।1। हे संत जनो! परमात्मा का नाम ही (हमारा) आसरा है, नाम ही सारी खुशियों-रसों-रूपों का खजाना है। हे नानक! (कह–) परमेश्वर ने (हमारी) इज्जत रख ली है परमेश्वर ही सारे संसार की रक्षा करने वाला है।2।20।48। सोरठि महला ५ ॥ मेरा सतिगुरु रखवाला होआ ॥ धारि क्रिपा प्रभ हाथ दे राखिआ हरि गोविदु नवा निरोआ ॥१॥ रहाउ ॥ तापु गइआ प्रभि आपि मिटाइआ जन की लाज रखाई ॥ साधसंगति ते सभ फल पाए सतिगुर कै बलि जांई ॥१॥ हलतु पलतु प्रभ दोवै सवारे हमरा गुणु अवगुणु न बीचारिआ ॥ अटल बचनु नानक गुर तेरा सफल करु मसतकि धारिआ ॥२॥२१॥४९॥ {पन्ना 620} पद्अर्थ: धारि = धार के। प्रभि = प्रभू ने। नवा निरोआ = बिल्कुल आरोग्य।1। रहाउ। प्रभि = प्रभू ने। लाज = इज्जत। ते = से। बलि जांई = मैं कुर्बान जाता हूँ।1। हलतु = (अत्र) ये लोक। पलतु = (परत्र) परलोक। हमरा = हम जीवों का। अटल = कभी ना टलने वाला। नानक = हे नानक! गुर = हे गुरू! सफल = फल देने वाला, बरकत वाला। करु = हाथ। मसतकि = माथे पर।2। अर्थ: हे भाई! मेरा गुरू (मेरा) सहायक बना है, (गुरू की शरण की बरकति से) प्रभू ने कृपा करके (अपना) हाथ दे के (बाल हरि गोबिंद को) बचा लिया है, (अब बालक) हरि गोबिंद बिल्कुल ठीक-ठाक हो गया है।1। (हे भाई! बालक हरि गोबिंद का) ताप उतर गया है, प्रभू ने खुद उतारा है, प्रभू ने अपने सेवक की इज्जत रख ली है। हे भाई! गुरू की संगति से (मैंने) सारे फल प्राप्त किए हैं, मैं (सदा) गुरू से (ही) कुर्बान जाता हूँ।1। (हे भाई! जो भी मनुष्य प्रभु का पल्लू पकड़ के रखता है, उसका) ये लोक और परलोक दोनों ही परमात्मा सवार देता है, हम जीवों का कोई गुण अथवा अवगुण परमात्मा चिक्त में नहीं रखता। हे नानक! (कह–) हे गुरू! तेरा (ये) बचन कभी टलने वाला नहीं (कि परमात्मा ही जीव का लोक-परलोक में रक्षक है)। हे गुरू! तू अपना बरकत भरा हाथ (हम जीवों के) माथे पर रखता है।2।21।49। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |