श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 621 सोरठि महला ५ ॥ जीअ जंत्र सभि तिस के कीए सोई संत सहाई ॥ अपुने सेवक की आपे राखै पूरन भई बडाई ॥१॥ पारब्रहमु पूरा मेरै नालि ॥ गुरि पूरै पूरी सभ राखी होए सरब दइआल ॥१॥ रहाउ ॥ अनदिनु नानकु नामु धिआए जीअ प्रान का दाता ॥ अपुने दास कउ कंठि लाइ राखै जिउ बारिक पित माता ॥२॥२२॥५०॥ {पन्ना 621} पद्अर्थ: सभि = सारे। तिस के: ‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हट गई है। सोई = वह (प्रभू) ही। सहाई = मददगार। आपो = खुद ही। बडाई = इज्जत।1। गुरि पूरे = पूरे गुरू ने। सरब = सब पर। रहाउ। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। नानकु धिआऐ = नानक ध्याता है। जीअ का दाता = जीवन देने वाला। कउ = को। कंठि = गले से। लाइ = लगा के। पित = पिता।2। अर्थ: हे भाई! पूर्ण-परमात्मा (सदा) मेरे अंग-संग (मददगार) है। पूरे गुरू ने अच्छी तरह मेरी (इज्जत) रख ली है। गुरू सारे जीवों पर ही दयावान रहता है।1। रहाउ। हे भाई! सारे जीव उस (परमात्मा) के ही पैदा किए हुए हैं; वह परमात्मा ही संत जनों का मददगार रहता है। अपने सेवक की (इज्जत) परमात्मा खुद ही रखता है (उसकी कृपा से ही सेवक की) इज्जत पूरे तौर पर बनी रहती है।1। हे भाई! नानक (तो उस परमात्मा का) नाम हर वक्त सिमरता रहता है जो जीवन देने वाला है जो सांसें देने वाला है। हे भाई! जैसे माता-पिता अपने बच्चों का ध्यान रखते हैं, वैसे ही परमात्मा अपने सेवक को (अपने) गले से लगा के रखता है।2।22।50। सोरठि महला ५ घरु ३ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मिलि पंचहु नही सहसा चुकाइआ ॥ सिकदारहु नह पतीआइआ ॥ उमरावहु आगै झेरा ॥ मिलि राजन राम निबेरा ॥१॥ अब ढूढन कतहु न जाई ॥ गोबिद भेटे गुर गोसाई ॥ रहाउ ॥ आइआ प्रभ दरबारा ॥ ता सगली मिटी पूकारा ॥ लबधि आपणी पाई ॥ ता कत आवै कत जाई ॥२॥ तह साच निआइ निबेरा ॥ ऊहा सम ठाकुरु सम चेरा ॥ अंतरजामी जानै ॥ बिनु बोलत आपि पछानै ॥३॥ सरब थान को राजा ॥ तह अनहद सबद अगाजा ॥ तिसु पहि किआ चतुराई ॥ मिलु नानक आपु गवाई ॥४॥१॥५१॥ {पन्ना 621} पद्अर्थ: मिलि = मिल के (शब्द ‘मिलि’ और आखिरी तुक के शब्द ‘मिलु’ का फर्क ध्यान से देखें)। मिलि पंचहु = (नगर के) पँचों को मिल के। सहसा = (कामादिक वैरियों में पड़ रहा) सहम। चुकाइआ = खत्म किया। सिकदारहु = सरदारों से। पतीआइआ = पतीज सका। उमरावहु आगै = सरकारी हाकिमों के सामने। झेरा = झगड़ा। राजन राम = प्रभू पातशाह। निबेरा = निबेड़ा, फैसला।1। कतहु = कहीं भी। भेटे = मिल गए। गोसाई = धरती का मालिक। रहाउ। पूकारा = (कामादिक वैरियों के बिरुद्ध) शिकायत। लबधि = जिस चीज की प्राप्ति करने की जरूरत थी। कत = कहाँ? ता = तब।2। तह = वहाँ, प्रभू के दरबार में। साच निआइ = सदा कायम रहने वाले न्याय के अनुसार। सम = बराबर। ठाकुरु = मालिक। चेरा = नौकर। अंतरजामी = हरेक दिल की जानने वाला।3। को = का। तह = वहाँ, ‘सरब थान को राजा’ से मेल अवस्था में। अनहद = एक रस, बिना बजाए, लगातार। सबद = सिफत सालाह की बाणी। अगाजा = गज गई, पूरा प्रभाव डालती है। पहि = पास। आपु = स्वै भाव। गवाई = गवा के।4। अर्थ: जब गोबिंद को, गुरू को सृष्टि के पति को मिल पड़ें, तो अब (कामादिक वैरियों को पड़ रहे सहम से बचने के लिए) किसी और जगह (आसरा) तलाशने की जरूरत नहीं रह गई। रहाउ। हे भाई! नगर के पँचों को मिल के (कामादिक वैरियों पर पड़ रहा) सहम दूर नहीं किया जा सकता। सिकदारों (आगुओं), लोगों से भी तसल्ली नहीं मिल सकती (कि ये वैरी तंग नहीं करेंगे) सरकारी हाकिमों के आगे भी ये झगड़ा (पेश करने से कुछ नहीं बनता) प्रभू पातशह को मिल के फैसला हो जाता है (और, कामादिक वैरियों का डर खत्म हो जाता है)।1। हे भाई! जब मनुष्य प्रभू की हजूरी में पहुँचता है (चिक्त जोड़ता है), तब इसकी (कामादिक वैरियों के विरुद्ध) सारी शिकायत समाप्त हो जाती है। तब मनुष्य वह वस्तु हासिल कर लेता है जो सदा इसकी अपनी ही बनी रहती है, तब विकारों के चक्कर में पड़ के भटकने से बच जाता है।2। हे भाई! प्रभू की हजूरी में सदा कायम रहने वाले न्याय के अनुसार (कामादिक आदि के साथ हो रही टक्कर का) फैसला हो जाता है। उस दरगाह में (जुल्म करने वालों का कोई लिहाज नहीं किया जाता) मालिक और नौकर को एक समान ही समझा जाता है। हरेक के दिल की जानने वाला प्रभू (हजूरी में पहुँचे हुए सवालिए के दिल की) जानता है, (उसके) बोले बिना वह प्रभू स्वयं (उसके दिल की पीड़ा को) समझ लेता है।3। हे भाई! प्रभू सब जगहों का मालिक है, उससे मिलाप-अवस्था में मनुष्य के अंदर प्रभू की सिफत-सालाह की बाणी एक-रस पूरा प्रभाव डाल लेती है (और, मनुष्य पर कामादिक वैरी अपना जोर नहीं डाल सकते)। (पर, हे भाई! उससे मिलने के लिए) उसके साथ कोई चालाकी नहीं की जा सकती। हे नानक! (कह– हे भाई! अगर उससे मिलना है तो) स्वै भाव गवा के (उसको) मिल।4।1।51। नोट: यहाँ से ‘घरु ३’ के शबद शुरू हुए है। आखिर का अंक १ यही बताता है। सोरठि महला ५ ॥ हिरदै नामु वसाइहु ॥ घरि बैठे गुरू धिआइहु ॥ गुरि पूरै सचु कहिआ ॥ सो सुखु साचा लहिआ ॥१॥ अपुना होइओ गुरु मिहरवाना ॥ अनद सूख कलिआण मंगल सिउ घरि आए करि इसनाना ॥ रहाउ ॥ साची गुर वडिआई ॥ ता की कीमति कहणु न जाई ॥ सिरि साहा पातिसाहा ॥ गुर भेटत मनि ओमाहा ॥२॥ सगल पराछत लाथे ॥ मिलि साधसंगति कै साथे ॥ गुण निधान हरि नामा ॥ जपि पूरन होए कामा ॥३॥ गुरि कीनो मुकति दुआरा ॥ सभ स्रिसटि करै जैकारा ॥ नानक प्रभु मेरै साथे ॥ जनम मरण भै लाथे ॥४॥२॥५२॥ {पन्ना 621} पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। घरि = घर में, हृदय में, अंतरात्मे। बैठे = टिक के। गुरि = गुरू ने। सचु = सदा स्थिर हरी नाम (का सिमरन)। लहिआ = पाया। साचा = सदा कायम रहने वाला।1। कलिआण = ख़ैरियत। सिउ = साथ। घरि = घर में, दिल में, अंतरात्मे। करि इसनान = स्नान कर के, आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल में चुभी लगा के, नाम जल से मन को पवित्र करके। रहाउ। वडिआई = आत्मिक उच्चता। साची = सदा स्थिर रहने वाली। सिरि = सिर पर। गुर भेटत = गुरू को मिलते हुए। मनि = मन में। ओमाहा = उत्साह।2। सगल = सारे। पराछत = पाप। मिलि = मिल के। साथे = साथ में। निधान = खजाने।3। गुरि = गुरू ने। कीनो = बना दिया। मुकति दुआरा = पापों से खलासी करने का दरवाजा। जैकारा = शोभा। भै = (‘भउ’ का बहुवचन ‘भय’)।4। अर्थ: हे भाई! जिन मनुष्यों पर प्यारा गुरू दयावान होता है, वह मनुष्य नाम-जल से मन को पवित्र करके आत्मिक आनंद सुख खुशियों से भरपूर हो के अंतरात्मे टिक जाते हैं (विकार आदि से भटकना हट जाती है)। रहाउ। हे भाई! अपने दिल में परमात्मा का नाम बसाए रखो। अंतरात्मे टिक के गुरू का ध्यान धरा करो। जिस मनुष्य को पूरे गुरू ने सदा-स्थिर हरी-नाम (के सिमरन) का उपदेश दिया, उसने वह आत्मिक आनंद पा लिया जो सदा कायम रहता है।1। हे भाई! गुरू की आत्मिक उच्चता सदा स्थिर रहने वाली है, उसकी कद्र-कीमत बताई नहीं जा सकती। गुरू (दुनिया के) शाहों के सिर पर पातशाह है। गुरू को मिल के मन में (हरी नाम सिमरन का) चाव पैदा हो जाता है।2। हे भाई! गुरू की संगति में मिल के सारे पाप उतर जाते हैं, (गुरू की संगति की बरकति से) सारे गुणों के खजाने हरी नाम को जप जप के (जिंदगी के) सारे मनोरथ सफल हो जाते हैं।3। हे भाई! गुरू ने (हरी-नाम सिमरन का एक ऐसा) दरवाजा तैयार कर दिया है (जो विकारों से) खलासी (करा देता है)। (गुरू की इस दाति के कारण) सारी सृष्टि (गुरू की) शोभा करती है। हे नानक! (कह– गुरू की कृपा से हरी का नाम हृदय में बसाने से) परमात्मा मेरे अंग-संग (बसता प्रतीत हो रहा है) मेरे जनम-मरण के सारे डर उतर गए हैं।4।2।52। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |