श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 622

सोरठि महला ५ ॥ गुरि पूरै किरपा धारी ॥ प्रभि पूरी लोच हमारी ॥ करि इसनानु ग्रिहि आए ॥ अनद मंगल सुख पाए ॥१॥ संतहु राम नामि निसतरीऐ ॥ ऊठत बैठत हरि हरि धिआईऐ अनदिनु सुक्रितु करीऐ ॥१॥ रहाउ ॥ संत का मारगु धरम की पउड़ी को वडभागी पाए ॥ कोटि जनम के किलबिख नासे हरि चरणी चितु लाए ॥२॥ उसतति करहु सदा प्रभ अपने जिनि पूरी कल राखी ॥ जीअ जंत सभि भए पवित्रा सतिगुर की सचु साखी ॥३॥ बिघन बिनासन सभि दुख नासन सतिगुरि नामु द्रिड़ाइआ ॥ खोए पाप भए सभि पावन जन नानक सुखि घरि आइआ ॥४॥३॥५३॥ {पन्ना 621-622}

पद्अर्थ: गुरि = गुरू ने। प्रभि = प्रभू ने। लोच = तमन्ना। करि इसनानु = मन को नाम जल के साथ पवित्र कर के। ग्रिहि आऐ = अंरात्मे टिक गए हैं, माया की खातिर भटकना से बच गए हैं।1।

नामि = नाम में (जुड़ के ही)। निसतरीअै = पार लांघा जा सकता है। धिआईअै = ध्यान धरना चाहिए। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सुक्रितु = नेक कर्म। करीअै = करना चाहिए।1। रहाउ।

मारगु = (जीवन का) रास्ता। को = कोई विरला। कोटि = करोड़ों। किलबिख = पाप।2।

उसतति = सिफत सालाह। जिनि = जिस (प्रभू) ने। कल = कला, ताकत। सभि = सारे। साखी = शिक्षा। सचु = सदा स्थिर हरी नाम (का सिमरन)।3।

सतिगुरि = गुरू ने। द्रिड़ाइआ = दिल में पक्का कर दिया। सभि = सारे। पावन = पवित्र। सुखि = आनंद से। घरि = घर में, दिल में, अंतरात्मे।4।

अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा के नाम में (जुड़ने से ही संसार समुंद्र से) पार लांघा जा सकता है। (इस वास्ते) उठते-बैठते हर वक्त नाम सिमरन करना चाहिए, (हरी-नाम सिमरन की ये) नेक कमाई हर समय करनी चाहिए।1। रहाउ।

(हे संत जनो! जब से) पूरे गुरू ने मेहर की है, प्रभू ने हमारी (नाम सिमरन की) तमन्ना पूरी कर दी है। (नाम सिमरन की बरकति से) आत्मिक स्नान करके हम अंतरात्मे टिके रहते हैं। आत्मिक आनंद आत्मिक खुशियां आत्मिक सुख भोग रहे हैं।1।

(हे संत जनो! सिमरन करना ही मनुष्य के लिए) गुरू का (बताया हुआ सही) रास्ता है, (सिमरन ही) धर्म की सीढ़ी है (जिसके द्वारा मनुष्य प्रभू-चरनों में पहुँच सकता है, पर) कोई दुर्लभ भाग्यशाली ही (ये सीढ़ी) पाता है। जो मनुष्य (सिमरन के द्वारा) परमात्मा के चरणों में चिक्त जोड़ता है, उसके करोड़ों जन्मों के पाप नाश हो जाते हैं।

हे संत जनो! जिस परमात्मा ने (सारे संसार में अपनी) पूरी सक्ता टिका रखी है, उसकी सिफत सालाह सदा करते रहा करो। हे भाई! वह सारे ही प्राणी स्वच्छ जीवन वाले बन जाते हैं, जो सदा-स्थिर हरी-नाम सिमरन वाली गुरू की शिक्षा को ग्रहण करते हैं।3।

हे नानक! (कह– जीवन के राह में से सारी) रुकावटें दूर करने वाला, सारे दुख नाश करने वाला हरि-नाम गुरू ने जिस लोगों के दिल में दृढ़ कर दिया, उनके सारे पाप नाश हो जाते हैं, वह सारे पवित्र जीवन वाले बन जाते हैं, वह आत्मिक आनंद से अंतरात्मे टिके रहते हैं।4।3।53।

सोरठि महला ५ ॥ साहिबु गुनी गहेरा ॥ घरु लसकरु सभु तेरा ॥ रखवाले गुर गोपाला ॥ सभि जीअ भए दइआला ॥१॥ जपि अनदि रहउ गुर चरणा ॥ भउ कतहि नही प्रभ सरणा ॥ रहाउ ॥ तेरिआ दासा रिदै मुरारी ॥ प्रभि अबिचल नीव उसारी ॥ बलु धनु तकीआ तेरा ॥ तू भारो ठाकुरु मेरा ॥२॥ जिनि जिनि साधसंगु पाइआ ॥ सो प्रभि आपि तराइआ ॥ करि किरपा नाम रसु दीआ ॥ कुसल खेम सभ थीआ ॥३॥ होए प्रभू सहाई ॥ सभ उठि लागी पाई ॥ सासि सासि प्रभु धिआईऐ ॥ हरि मंगलु नानक गाईऐ ॥४॥४॥५४॥ {पन्ना 622}

पद्अर्थ: गुनी = गुणों का मालिक। गहेरा = गहरा। घरु लसकरु = घर और परिवार आदि। गुर = हे गुरू! गेपाला = हे गोपाला! रखवाला = हे रक्षक! स्भि जीअ = सारे जीवों पर।1।

अनदि = आत्मिक आनंद में। रहउ = रहूँ, मैं रहता हूँ। कतहि = कहीं भी। रहाउ।

मुरारी = (मुर+अरि) परमात्मा। रिदै = दिल में। प्रभि = प्रभू ने। अबिचल नीव = (भक्ति की) कभी ना हिलने वाली नींव। तकीआ = आसरा। भारो = बड़ा। ठाकुरु = मालिक।2।

जिनि = जिस (मनुष्य) ने। प्रभि = प्रभू ने। तराइआ = पार लंघा लिया। रसु = स्वाद। कुसल खेम = सुख आनंद।3।

सहाई = मददगार। पाई = पैरों पर। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। मंगलु = सिफत सालाह का गीत।4।

अर्थ: हे भाई! गुरू के चरनों को दिल में बसा के मैं आत्मिक आनंद में टिका रहता हूँ। हे भाई! प्रभू की शरण पड़ने से कहीं भी कोई डर छू नहीं सकता। रहाउ।

हे सबसे बड़े! हे सृष्टि के पालनहार! हे सब जीवों के रखवाले! तू सारे जीवों पर दयावान रहता है। तू सबका मालिक है, तू गुणों का मालिक है, तू गहरे जिगरे वाला है। (जीवों को) दिया हुआ सारा घर-घाट तेरा ही है।1।

हे प्रभू! तेरे सेवकों दिल में ही नाम बसता है। हे प्रभू! तूने (अपने दासों के हृदय में भक्ति की) कभी ना हिलने वाली नींव रख दी है। हे प्रभू! तू ही मेरा बल है, तू ही मेरा धन है, तेरा ही मुझे आसरा है। तू मेरा सबसे बड़ा मालिक है।2।

हे भाई! जिस जिस मनुष्य ने गुरू की संगति प्राप्त की है, उस उस को प्रभू ने स्वयं (संसार समुंद्र से) पार लंघा दिया है। जिस मनुष्य को प्रभू ने मेहर करके अपने नाम का स्वाद बख्शा है, उसके अंदर सदा आत्मिक आनंद बना रहता है।3।

हे भाई! परमात्मा जिस मनुष्य का मददगार बनता है, सारी दुनिया उठ के उसके पैरों में आ लगती है। हे नानक! हरेक सांस के साथ परमात्मा का ध्यान धरना चाहिए। सदा परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाते रहना चाहिए।4।4।54।

सोरठि महला ५ ॥ सूख सहज आनंदा ॥ प्रभु मिलिओ मनि भावंदा ॥ पूरै गुरि किरपा धारी ॥ ता गति भई हमारी ॥१॥ हरि की प्रेम भगति मनु लीना ॥ नित बाजे अनहत बीना ॥ रहाउ ॥ हरि चरण की ओट सताणी ॥ सभ चूकी काणि लोकाणी ॥ जगजीवनु दाता पाइआ ॥ हरि रसकि रसकि गुण गाइआ ॥२॥ प्रभ काटिआ जम का फासा ॥ मन पूरन होई आसा ॥ जह पेखा तह सोई ॥ हरि प्रभ बिनु अवरु न कोई ॥३॥ करि किरपा प्रभि राखे ॥ सभि जनम जनम दुख लाथे ॥ निरभउ नामु धिआइआ ॥ अटल सुखु नानक पाइआ ॥४॥५॥५५॥ {पन्ना 622}

पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। मनि = मन में। भावंदा = प्यारा लगने वाला। गुरि = गुरू ने। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।1।

प्रेम भगति = प्यार भरी भक्ति। बाजे = बजती है। अनहद = एक रस, लगातार। रहाउ।

ओट = आसरा। सताणी = स+ताणी, तगड़ी। काणि = मुथाजी। लोकाणी = लोगों की। जगजीवनु = जगत का जीवन, जगत का जीवन दाता। रसकि = प्रेम से, रस ले ले के।2।

फाहा = फंदा। जह = जहाँ। पेखा = मैं देखता हूँ। तह = वहाँ।3।

प्रभि = प्रभू ने। सभि = सारे। अटल = कभी ना खत्म होने वाला।4।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य का मन परमात्मा की प्यार भरी भक्ति में टिका रहता है, उसके अंदर सदा एक रस (आत्मिक आनंद की, मानो) वीणा बजती रहती है। रहाउ।

(हे भाई! जब से) पूरे गुरू ने (मेरे पर) मेहर की है तब से मेरी ऊँची आत्मिक अवस्था बन गई है, (मुझे) मन में प्यारा लगने वाला परमात्मा मिल गया है, मेरे अंदर आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद बने रहते हैं।1।

हे भाई! जिस मनुष्य ने प्रभू-चरनों का बलवान आसरा ले लिया, दुनिया के लोगों वाली उसकी सारी मुथाजी खत्म हो गई। उसे जगत का सहारा दातार प्रभू मिल जाता है। वह सदा बड़े प्रेम से परमात्मा के गीत गाता रहता है।2।

हे भाई! मेरी भी प्रभू ने जम की फांसी काट दी है, मेरे मन की (ये चिरों की) आशा पूरीहो गई है। अब मैं जिधर देखता हूँ, मुझे उस परमात्मा के बिना कोई और दिखाई नहीं देता।3।

हे नानक! प्रभू ने कृपा करके जिनकी रक्षा की, उनके अनेकों जन्मों के सारे दुख दूर हो गए। जिन्होंने निर्भय प्रभू का नाम सिमरा, उन्होंने वह आत्मिक आनंद प्राप्त कर लिया जो कभी दूर नहीं होता।4।5।55।

सोरठि महला ५ ॥ ठाढि पाई करतारे ॥ तापु छोडि गइआ परवारे ॥ गुरि पूरै है राखी ॥ सरणि सचे की ताकी ॥१॥ परमेसरु आपि होआ रखवाला ॥ सांति सहज सुख खिन महि उपजे मनु होआ सदा सुखाला ॥ रहाउ ॥ हरि हरि नामु दीओ दारू ॥ तिनि सगला रोगु बिदारू ॥ अपणी किरपा धारी ॥ तिनि सगली बात सवारी ॥२॥ प्रभि अपना बिरदु समारिआ ॥ हमरा गुणु अवगुणु न बीचारिआ ॥ गुर का सबदु भइओ साखी ॥ तिनि सगली लाज राखी ॥३॥ बोलाइआ बोली तेरा ॥ तू साहिबु गुणी गहेरा ॥ जपि नानक नामु सचु साखी ॥ अपुने दास की पैज राखी ॥४॥६॥५६॥ {पन्ना 622}

पद्अर्थ: ठाढि = ठंड, शांति। करतारे = करतार ने। परवारे = परवार को, जीव के सारी ज्ञानेंन्द्रियों को। गुरि = गुरू ने। सचे की = सदा कायम रहने वाले प्रभू की। ताकी = देखी।1।

रखवाला = रक्षक। सहज सुख = आत्मिक अडोलता से सुख। उपजे = पैदा हो गए। सुखाला = सुखी। रहाउ।

दारू = दवा। तिनि = उस (दारू) ने। बिदारू = नाश कर दिया। बात = (जीवन की) कहानी।2।

प्रभि = प्रभू ने। बिरदु = ईश्वर का मूल प्यार वाला स्वभाव। समारिआ = याद रखा। हमरा = हम जीवों का। साखी = साक्षात। तिनि = उस (शबद) ने। लाज = इज्जत।3।

बोली = मैं बोलता हूँ, मैंतेरी सिफत सालाह करता हूँ। गुणी = गुणों का मालिक। गहेरा = गहरा। सचु साखी = सदा साथ निभने वाला मददगार। साखी = साख भरने वाला, साथ निभाने वाला। पैज = इज्जत।4।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य का रखवाला परमात्मा खुद बन जाता है, उसका मन सदा के लिए सुखी हो जाता है (क्योंकि उसके अंदर) एक छिन में आत्मिक अडोलता के सुख और शांति पैदा हो जाते हैं। रहाउ।

हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर करतार ने ठंड बरता दी, उसके परिवार को (उसकी ज्ञानेन्द्रियों को विकारों का) ताप छोड़ जाता है। हे भाई! पूरे गुरू ने जिस मनुष्य की मदद की, उसने सदा कायम रहने वाले परमात्मा का आसरा देख लिया।1।

हे भाई! (विकार रोगों का इलाज करने के लिए गुरू ने मनुष्य को) परमात्मा का नाम-दवा दी, उस नाम-दवाई ने उस मनुष्य के सारे ही (विकार-) रोग काट दिए। जब प्रभू ने उस मनुष्य पर मेहर की, तो उसने अपनी सारी जीवन कहानी ही सुंदर बना ली (अपना सारा जीवन ही सँवार लिया)।2।

हे भाई! प्रभू ने (सदा ही) अपने प्यार करने वाले मूल प्राकृतिक स्वभाव (बिरद) को याद रखा है। वह हम जीवों के कोई भी गुण-अवगुण दिल से लगा के नहीं रखता। (प्रभू की कृपा से जिस मनुष्य के अंदर) गुरू के शबद ने अपना प्रभाव डाला, शबद ने उसकी सारी इज्जत रख ली (उसको विकारों के जाल में फंसने से बचा लिया)।3।

हे प्रभू! तू हमारा मालिक है, तू गुणों का खजाना है, तू गहरे जिगरे वाला है। जब तू प्रेरणा देता है तब ही मैं तेरी सिफत-सालाह कर सकता हूं। हे नानक! सदा स्थिर प्रभू का नाम जपा कर, यही सदा हामी भरने वाला है। प्रभू अपने सेवक की (सदा) इज्जत रखता आया है।4।6।56।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh