श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सोरठि महला ५ ॥ विचि करता पुरखु खलोआ ॥ वालु न विंगा होआ ॥ मजनु गुर आंदा रासे ॥ जपि हरि हरि किलविख नासे ॥१॥ संतहु रामदास सरोवरु नीका ॥ जो नावै सो कुलु तरावै उधारु होआ है जी का ॥१॥ रहाउ ॥ जै जै कारु जगु गावै ॥ मन चिंदिअड़े फल पावै ॥ सही सलामति नाइ आए ॥ अपणा प्रभू धिआए ॥२॥ संत सरोवर नावै ॥ सो जनु परम गति पावै ॥ मरै न आवै जाई ॥ हरि हरि नामु धिआई ॥३॥ इहु ब्रहम बिचारु सु जानै ॥ जिसु दइआलु होइ भगवानै ॥ बाबा नानक प्रभ सरणाई ॥ सभ चिंता गणत मिटाई ॥४॥७॥५७॥ {पन्ना 623}

पद्अर्थ: करता = करतार। पुरखु = सर्व व्यापक। विचि खलोआ = खुद सहायता करता है। वालु न विंगा होआ = रक्ती भर भी नुकसान नहीं होता। मजनु = स्नान, राम के दासों के सरोवर में स्नान, नाम-जल से आत्मिक स्नान। गुरि = गुरू ने। आंदा रासे = रास कर लिया, सफल कर दिया। जपि = जप के। किलविख = पाप।1।

राम दास सरोवरु = राम के दासों का सरोवर, साध-संगति। नीका = अच्छा, सोहणा। नावै = नहाता है। उधारु = पार उतारा। जी का = प्राण का।1। रहाउ।

जै जै कारु = शोभा। जगु = जगत। मनि = मन में। चिंदिअड़े = चितवे हुए। सही सलामति = आत्मिक जीवन को पूरी तौर पर बचा के। नाइ = नहा के।2।

संत सरोवरि = संतों के सरोवर में, साध-संगति में। नावै = नहाता है। परम गति = सबसे उच्च आत्मिक अवस्था। न आवै जाई = न आवै न जाई, पैदा होता मरता नहीं है।3।

ब्रहमु बिचारु = परमात्मा से सांझ की सोच। सु = वह मनुष्य। बाबा = हे भाई! नानक! गणत = गिनती, फिक्र।4।

अर्थ: हे संत जनो! साध-संगति (एक) सुंदर (स्थान) है। जो मनुष्य (साध-संगति में) आत्मिक स्नान करता है (मन को नाम-जल से पवित्र करता है), उसके जीवन का (विकारों से) पार-उतारा हो जाता है, वह अपनी सारी कुल को भी (संसार समुंद्र से) पार लंघा लेता है।1। रहाउ।

(हे भाई! साध-संगति में जिस मनुष्य का) आत्मिक स्नान गुरू ने सफल कर दिया, वह मनुष्य सदा परमात्मा का नाम जप-जप के (अपने सारे) पाप नाश कर लेता है। सर्व-व्यापक करतार खुद उसकी सहायता करता है, (उसकी आत्मिक राशि-पूँजी का) रक्ती भर भी नुकसान नहीं होता।1।

हे भाई! (जो मनुष्य राम के दासों के सरोवर में टिक के) अपने परमात्मा की आराधना करता है, (वह मनुष्य इस सत्संग-सरोवर में आत्मिक) स्नान कर के अपनी आत्मिक जीवन की राशि-पूँजी को पूर्ण-तौर पर बचा लेता है। सारा जगत उसकी शोभा के गीत गाता है, वह मनुष्य मन-वांछित फल हासिल कर लेता है।2।

हे भाई! जो मनुष्य संतो के सरोवर में (साध-संगति में) आत्मिक स्नान करता है, वह मनुष्य सबसे उच्च आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है। जो मनुष्य सदा परमात्मा का नाम सिमरता रहता है, वह जनम-मरण के चक्कर में नहीं पड़ता।3।

हे भाई! परमात्मा के मिलाप की इस विचार को वही मनुष्य समझता है जिस पर परमात्मा खुद दयावान होता है। हे नानक! (कह–) हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की शरण पड़ा रहता है, वह अपनी हरेक किस्म की चिंता-फिक्र दूर कर लेता है।4।7।57।

सोरठि महला ५ ॥ पारब्रहमि निबाही पूरी ॥ काई बात न रहीआ ऊरी ॥ गुरि चरन लाइ निसतारे ॥ हरि हरि नामु सम्हारे ॥१॥ अपने दास का सदा रखवाला ॥ करि किरपा अपुने करि राखे मात पिता जिउ पाला ॥१॥ रहाउ ॥ वडभागी सतिगुरु पाइआ ॥ जिनि जम का पंथु मिटाइआ ॥ हरि भगति भाइ चितु लागा ॥ जपि जीवहि से वडभागा ॥२॥ हरि अम्रित बाणी गावै ॥ साधा की धूरी नावै ॥ अपुना नामु आपे दीआ ॥ प्रभ करणहार रखि लीआ ॥३॥ हरि दरसन प्रान अधारा ॥ इहु पूरन बिमल बीचारा ॥ करि किरपा अंतरजामी ॥ दास नानक सरणि सुआमी ॥४॥८॥५८॥ {पन्ना 623}

पद्अर्थ: पारब्रहमि = पारब्रहम ने। ऊरी = ऊणी, कम। गुरि = गुरू ने। निसतारे = (संसार सागर से) पार लंघा दिए। समारे = संभालता है, दिल में बसाए रखता है।1।

करि = बना के। जिउ = जैसे।1। रहाउ।

वडभागी = बड़े भाग्यों वालों ने। जिनि = जिस (गुरू) ने। पंथु = रास्ता। भाइ = प्यार में। जीवहि = जीते हैं, आत्मिक जीवन प्राप्त करते हैं।2।

अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली। नावै = नहाए। आपे = खुद ही।3।

अधारा = आसरा। बिमल = शुद्ध, पवित्र। अंतरजामी = हे हरेक के दिल की जानने वाले!।4।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपने सेवक का सदा रक्षक बना रहता है। जैसे माँ-बाप (बच्चों को) पालते हैं, वैसे ही प्रभू कृपा करके अपने सेवकों को अपने बनाए रखता है।1। रहाउ।

(हे भाई! सदा से ही) परमात्मा ने अपने सेवक से प्रीति आखिर तक निभाई है। सेवक को किसी बात की कोई कमी नहीं रहती। सेवक सदा परमात्मा का नाम अपने दिल में संभाल के रखता है। गुरू ने (सेवकों को सदा ही) चरणों से लगा के (संसार-समुंद्र से) पार लंघाया है।1।

हे भाई! बड़े भाग्यों वाले मनुष्यों ने (वह) गुरू पा लिया, जिस (गुरू) ने (उनके वास्ते) जम के देश को ले जाने वाला रास्ता मिटा दिया (क्योंकि गुरू की कृपा से) उनका मन परमात्मा की भक्ति में प्रभू के प्रेम में मगन रहता है। वे भाग्यशाली मनुष्य परमात्मा का नाम जप जप के आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेते हैं।2।

(हे भाई! परमात्मा का सेवक) परमात्मा की आत्मिक जीवन देने वाली बाणी गाता रहता है सेवक गुरमुखों के चरणों की धूड़ में स्नान करता रहता है (सवै भाव मिटा के संत जनों की शरण पड़ा रहता है)। परमात्मा ने खुद ही (अपने सेवक को) अपना नाम बख्शा है, सृजनहार प्रभू ने खुद ही (सदा से अपने सेवक को विकारों से) बचाया है।3।

हे भाई! (प्रभू के सेवक का) ये पवित्र और पूर्ण विचार बना रहता है कि परमात्मा के दर्शन ही (सेवक की) जिंदगी का आसरा हैं। हे दास नानक! (तू भी प्रभू दर पर अरदास कर, और कह–) हे सबके दिलों की जानने वाले! हे स्वामी! (मेरे पर) मेहर कर, मैं तेरी शरण आया हूँ।4।8।58।

सोरठि महला ५ ॥ गुरि पूरै चरनी लाइआ ॥ हरि संगि सहाई पाइआ ॥ जह जाईऐ तहा सुहेले ॥ करि किरपा प्रभि मेले ॥१॥ हरि गुण गावहु सदा सुभाई ॥ मन चिंदे सगले फल पावहु जीअ कै संगि सहाई ॥१॥ रहाउ ॥ नाराइण प्राण अधारा ॥ हम संत जनां रेनारा ॥ पतित पुनीत करि लीने ॥ करि किरपा हरि जसु दीने ॥२॥ पारब्रहमु करे प्रतिपाला ॥ सद जीअ संगि रखवाला ॥ हरि दिनु रैनि कीरतनु गाईऐ ॥ बहुड़ि न जोनी पाईऐ ॥३॥ जिसु देवै पुरखु बिधाता ॥ हरि रसु तिन ही जाता ॥ जमकंकरु नेड़ि न आइआ ॥ सुखु नानक सरणी पाइआ ॥४॥९॥५९॥ {पन्ना 623}

पद्अर्थ: गुरि पूरे = पूरे गुरू ने। संगि = (अपने) साथ। सहाई = साथी, मददगार। जह = जहाँ। सुहेले = सुखी। प्रभि = प्रभू ने।1।

सुभाई = प्यार से। मनचिंदे = मन चाहे। सगले = सारे। जीअ कै संगि = जिंद के साथ।1। रहाउ।

हम = मैं। रेनारा = रेणु, चरण धूड़। अधारा = आसरा। पतित = विकारों में गिरे हुए। पुनीत = पवित्र। जसु = सिफत सालाह।2।

सद = सदा। रैनि = रात। बहुड़ि = दुबारा।3।

बिधाता = करतार, रचनहार। रसु = स्वाद। तिन ही = उस मनुष्य ने ही। (शब्द ‘तिनि ही’ में से ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा विशेषण ‘ही’ के कारण हट गई है)। जम कंकरु = (किंकर) जम का सेवक, जम दूत।4।

अर्थ: हे भाई! सदा प्यार से परमात्मा के सिफत सालाह के गीत गाते रहा करो। (सिफत सालाह की बरकति से) मन मांगे फल (प्रभू के दर से) प्राप्त करते रहोगे, परमात्मा जीवन के साथ (बसता) साथी (प्रतीत होता रहेगा)।1। रहाउ।

(हे भाई जिस मनुष्य को) पूरे गुरू ने (परमात्मा के) चरणों में जोड़ दिया, उसने वह परमात्मा पा लिया जो हर वक्त अंग-संग बसता है, और (जीवन का) मददगार है। (अगर प्रभू चरणों में जुड़े रहें तो) जहाँ भी जाएं, वहीं सुखी रह सकते हैं (पर जिन्हें चरणों में मिलाया है) प्रभू ने (खुद ही) कृपा करके मिलाया है।1।

हे भाई! मैं तो संत जनों की धूड़ बना रहता हूँ, (संत जनों की कृपा से) परमात्मा जीवन का आसरा (प्रतीत होता रहता है)। संत जन कृपा करके परमात्मा की सिफत सालाह की दाति देते हैं, (और इस तरह) विकारों में गिरे हुओं को (भी) पवित्र जीवन वाला बना लेते हैं।2।

हे भाई! दिन-रात (हर समय) परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाते रहना चाहिए, (सिफत सालाह की बरकति से) दुबारा जनम-मरन का चक्कर नहीं पड़ता। परमात्मा खुद (सिफत सालाह करने वालों की) रक्षा करता है, सदा उनके प्राणों के साथ रक्षक बना रहता है।3।

(पर) हे नानक! उस मनुष्य ने ही परमात्मा के नाम का स्वाद समझा है (कद्र जानी है), जिसे सृजनहार सर्व-व्यापक प्रभू खुद (ये दाति) देता है। परमात्मा की शरण पड़ा रह के वह आत्मिक आनंद लेता रहता है। जम दूत भी उसके नजदीक नहीं फटकते।4।9।49।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh