श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सोरठि महला ५ ॥ गुरि पूरै कीती पूरी ॥ प्रभु रवि रहिआ भरपूरी ॥ खेम कुसल भइआ इसनाना ॥ पारब्रहम विटहु कुरबाना ॥१॥ गुर के चरन कवल रिद धारे ॥ बिघनु न लागै तिल का कोई कारज सगल सवारे ॥१॥ रहाउ ॥ मिलि साधू दुरमति खोए ॥ पतित पुनीत सभ होए ॥ रामदासि सरोवर नाते ॥ सभ लाथे पाप कमाते ॥२॥ गुन गोबिंद नित गाईऐ ॥ साधसंगि मिलि धिआईऐ ॥ मन बांछत फल पाए ॥ गुरु पूरा रिदै धिआए ॥३॥ गुर गोपाल आनंदा ॥ जपि जपि जीवै परमानंदा ॥ जन नानक नामु धिआइआ ॥ प्रभ अपना बिरदु रखाइआ ॥४॥१०॥६०॥ {पन्ना 624}

पद्अर्थ: गुरि पूरै = पूरे गुरू ने। पूरी = सफलता। भरपूरी = हर जगह मौजूद। खेम कुसल = आत्मिक सुख आनंद। विटहु = से।1।

रिद = रिदै, हृदय में। तिल का = तिल जितना भी, रक्ती भर भी। सगल = सारे।1। रहाउ।

मिलि साधू = गुरू को मिल के। दुरमति = खोटी अकल। पतित = विकारों में गिरे हुए। पुनीत = पवित्र। रामदासि सरोवर = राम के दासों के सरोवर में, साध-संगति में। नाते = स्नान किया।2।

साध संगि = साध-संगति में। मन बांछत = मन इच्छित। रिदै = हृदय में।3।

परमानंदा = सबसे ऊँचे आनंद का मालिक प्रभू। बिरदु = प्यार करने वाला ईश्वरीय मूल स्वभाव।4।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरू के कमल फूल जैसे कोमल चरण अपने हृदय में बसा लिए, (उसकी जिंदगी के रास्ते में) रक्ती भर भी कोई रुकावट नहीं आती। गुरू उसके सारे काम सँवार देता है।1। रहाउ।

हे भाई! पूरे गुरू ने (आत्मिक जीवन में) सफलता दी है, (मुझे) परमात्मा हर जगह व्यापक दिखाई दे रहा है। मेरे अंदर आत्मिक सुख-आनंद बन गया है– ये है स्नान (जो मैंने गुरू सरोवर में किया है)। मैं परमात्मा से सदके जाता हूँ (जिसने मुझे गुरू मिला दिया है)।1।

हे भाई! गुरू को मिल के मनुष्य खोटी मति दूर कर लेता है। विकारी मनुष्य भी गुरू को मिल के पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं। जो भी मनुष्य राम के दासों के सरोवर में (गुरू की संगति में आत्मिक) स्नान करते हैं (मन को आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल से स्नान करवाते हैं) उनके सारे (पिछले) कमाए हुए पाप उतर जाते हैं।2।

हे भाई! गुरू की संगति में मिल के परमात्मा का नाम सिमरना चाहिए, सदा प्रभू की सिफत सालाह के गीत गाने चाहिए। जो मनुष्य पूरे गुरू को अपने हृदय में बसाता है, वह (प्रभू-दर से) मन माँगी मुरादें पा लेता है।3।

हे दास नानक! (कह–) परमात्मा अपना बिरद सदा कायम रखता है। वह परमात्मा सबसे बड़ा है, सृष्टि को पालने वाला है, आनंद स्वरूप है। जो मनुष्य उसका नाम सिमरता है, उस सबसे ऊँचे आनंद के मालिक को जप जप के वह मनुष्य आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है।4।10।60।

रागु सोरठि महला ५ ॥ दह दिस छत्र मेघ घटा घट दामनि चमकि डराइओ ॥ सेज इकेली नीद नहु नैनह पिरु परदेसि सिधाइओ ॥१॥ हुणि नही संदेसरो माइओ ॥ एक कोसरो सिधि करत लालु तब चतुर पातरो आइओ ॥ रहाउ ॥ किउ बिसरै इहु लालु पिआरो सरब गुणा सुखदाइओ ॥ मंदरि चरि कै पंथु निहारउ नैन नीरि भरि आइओ ॥२॥ हउ हउ भीति भइओ है बीचो सुनत देसि निकटाइओ ॥ भांभीरी के पात परदो बिनु पेखे दूराइओ ॥३॥ भइओ किरपालु सरब को ठाकुरु सगरो दूखु मिटाइओ ॥ कहु नानक हउमै भीति गुरि खोई तउ दइआरु बीठलो पाइओ ॥४॥ सभु रहिओ अंदेसरो माइओ ॥ जो चाहत सो गुरू मिलाइओ ॥ सरब गुना निधि राइओ ॥ रहाउ दूजा ॥११॥६१॥ {पन्ना 624}

पद्अर्थ: दहदिस = दसों दिशाओं में। दह = दस। दिस = दिशा। मेघ = बादल। छत्र = छतरी। घटा घट = घटाएं ही घटाएं। दामनि = बिजली। चमकि = चमक के। नहु = नहीं। नैनह = आँखों में। पिरु = पति। परदेसि = बेगाने देश में।1।

संदेसरो = संदेश। माइआ = हे माँ! कोसरो = कोस। सिधि करत = तय करता था। चतुर पातरो = चार पक्तियां, चार चिठियां। रहाउ।

बिसरै = भूल जाए। सुख दाइओ = सुख देने वाला। मंदरि = मंदिर पर, कोठे पर। चरि कै = चढ़ के। पंथु = रास्ता। निहारउ = मैं देखती हूँॅ। नीरि = नीर से, (वैराग) जल से।2।

भीति = दीवार। हउ हउ भीति = अहंकार की दीवार। बीचो = बीच में। देसि = देश में हृदय में। निकटाइओ = नजदीक ही। के = के। पात = पंख। परदो = परदा।3।

के = का। सगरो = सारा। गुरि = गुरू ने। तउ = तब। दइआरु = दयालु। बीठलो = (विष्ठल, वि = परे, माया के प्रभाव से परे। स्थल = खड़ा हुआ) माया के प्रभाव से परे रहने वाला परमात्मा।4।

रहिण = समाप्त हो गया। अंदेसरो = फिक्र। गुना निधि = गुणों का खजाना। राइओ = प्रभू पातशाह, राजा। रहाउ दूजा।

अर्थ: (जब) बादलों की घन घोर घटाएं दसों दिशाओं में (पसरी होती हैं), बिजली चमक-चमक के डराती है, (जिस स्त्री का) पति परदेस गया होता है, (उसकी) सेज (पति के बिना) सूनी होती है, (उसकी) आँखों में नींद नहीं आती।1।

(पति से विछुड़ के घबराई हुई वह कहती है–) हे माँ! अब तो (पति की ओर से) कोई संदेशा भी नहीं आता। (पहले जब कभी घर से जा के पति) एक कोस रास्ता ही तय करता था तब (उसकी) चार चिठियां आ जाती थीं। रहाउ।

हे माँ! मुझे भी ये सुंदर प्यारा लाल (प्रभू) कैसे भूल सकता है? ये तो सारे गुणों का मालिक है, सारे सुख देने वाला है। मैं भी (विछुड़ी नारी की तरह) कोठे के ऊपर चढ़ के (पति का) राह ताकती हूँ, (मेरी भी) आँखें (वैराग-) नीर से भर आती हैं।2।

हे माँ! मैं सुनती तो ये हूँ, कि (वह पति प्रभू) मेरे हृदय देस में मेरे नजदीक ही बसता है, पर (मेरे और उसके) बीच में मेरी अहंकार की दीवार खड़ी हो गई है, (कहते हैं) भंभीरी के पंखों की तरह (बड़ा बारीक) पर्दा (मेरे और उस पति के बीच में), पर उसके दर्शन किए बिना वह कहीं दूर प्रतीत होता है।3।

हे माँ! जिस सौभाग्यवती पर सब जीवों का मालिक दयावान होता है, उसका वह सारा (विछोड़े का) दुख दूर कर देता है। हे नानक! कह– जब गुरू ने (जीव स्त्री के अंदर से) अहंकार की दीवार गिरा दी, तब उसने माया-रहित दयालु (प्रभू-पति) को (अपने अंदर ही) पा लिया।4।

हे माँ! प्रभू-पातशाह सारे गुणों का खजाना है। जिस जीव-स्त्री को गुरू ने वह मिला दिया, जिसकी उसे चाहत थी, उसकी सारी चिंता-फिक्र खत्म हो जाती है। रहाउ दूजा।11।61।

सोरठि महला ५ ॥ गई बहोड़ु बंदी छोड़ु निरंकारु दुखदारी ॥ करमु न जाणा धरमु न जाणा लोभी माइआधारी ॥ नामु परिओ भगतु गोविंद का इह राखहु पैज तुमारी ॥१॥ हरि जीउ निमाणिआ तू माणु ॥ निचीजिआ चीज करे मेरा गोविंदु तेरी कुदरति कउ कुरबाणु ॥ रहाउ ॥ जैसा बालकु भाइ सुभाई लख अपराध कमावै ॥ करि उपदेसु झिड़के बहु भाती बहुड़ि पिता गलि लावै ॥ पिछले अउगुण बखसि लए प्रभु आगै मारगि पावै ॥२॥ हरि अंतरजामी सभ बिधि जाणै ता किसु पहि आखि सुणाईऐ ॥ कहणै कथनि न भीजै गोबिंदु हरि भावै पैज रखाईऐ ॥ अवर ओट मै सगली देखी इक तेरी ओट रहाईऐ ॥३॥ होइ दइआलु किरपालु प्रभु ठाकुरु आपे सुणै बेनंती ॥ पूरा सतगुरु मेलि मिलावै सभ चूकै मन की चिंती ॥ हरि हरि नामु अवखदु मुखि पाइआ जन नानक सुखि वसंती ॥४॥१२॥६२॥ {पन्ना 624}

पद्अर्थ: गई बहोड़ु = (आत्मिक जीवन की) गायब हुई (राशि पूँजी) को वापस दिलाने वाला। बंदी छोड़ु = (विकारों की) कैद में से छुड़ाने वाला। दुख दारी = दुखों में दारी करने वाला, दुखों में धीरज देने वाला। पैज = इज्जत, लाज।1।

निचीजिआ = नकारों को। चीज करे = आदरणीय बना देता है। रहाउ।

भाइ = प्रेम से, अपनी लगन से। सुभाई = अपने स्वभाव अनुसार। करि = कर के। बहु भाती = कई तरीकों से। बहुड़ि = दुबारा, फिर। गलि = गले से। मारगि = (सीधे) रास्ते पर।2।

अंतरजामी = दिल की जानने वाला। सभ बिधि = हरेक (आत्मिक) हालत। पहि = पास। कथनि = कहने से, ज़बानी कह देने से। भीजै = खुश होता। भावै = अच्छा लगता। पैज = इज्जत। ओट = आसरा। रहाईअै = रखी हुई है।

होइ = हो के। आपे = आप ही। मेलि = मेलता है। चूके = खत्म हो जाती है। चिंती = चिंता। अवखदु = दवाई। मुखि = मुँह में। सुखि = आत्मिक आनंद में। वसंती = बसता है।4।

अर्थ: हे प्रभू जी! तू उन लोगों को सम्मान देता है, जिनका और कोई मान नहीं करता। मैं तेरी ताकत से सदके जाता हूँ। हे भाई! मेरा गोबिंद नकारों को भी आदरणीय बना देता है। रहाउ।

हे प्रभू! तू (आत्मिक जीवन की) खोई हुई (राशि पूँजी) को वापिस दिलवाने वाला है, तू (विकारों की) कैद में से छुड़वाने वाला है, तेरा कोई खास रूप नहीं बताया जा सकता, तू (जीवों को) दुखों में ढाढस देने वाला है। हे प्रभू! मैं कोई अच्छा कर्म अच्छा धर्म करना नहीं जानता, मैं लोभ में फंसा रहता हूँ, मैं माया के मोह में ग्रसित रहता हूँ। पर, हे प्रभू! मेरा नाम ‘गोबिंद का भगत’ पड़ गया है। सो, अब तू ही अपने नाम की खुद ही लाज रख।1।

हे भाई! जैसे कोई बच्चा अपनी लगन के अनुसार स्वभाव के मुताबिक लाखों ग़लतियां करता है, उसका पिता उसको समझा समझा के कई कई तरीकों से झिड़कता भी है, पर फिर भी अपने गले से (उसको) लगा लेता है, इसी तरह प्रभू पिता भी जीवों के पिछले गुनाह बख्श लेता है, और आगे के लिए (जीवन के) ठीक रास्ते पर डाल देता है।2।

हे भाई! परमात्मा हरेक दिल की जानने वाला है, (जीवों की) हरेक (आत्मिक) हालत को जानता है। (उसे छोड़ के) और किस के पास (अपनी व्यथा) कह के सुनाई जा सकती है? हे भाई! परमात्मा निरी ज़बानी बातों से खुश नहीं होता। (कर्मों के कारण जो मनुष्य) परमात्मा को अच्छा लगने लगता है, उसका वह सम्मान रख लेता है।

हे प्रभू! मैंने और सारे आसरे देख लिए हैं, मैंने एक तेरा आसरा ही रखा हुआ है।3।

हे भाई! मालिक-प्रभू दयावान हो के कृपालु हो के खुद ही (जिस मनुष्य की) विनती सुन लेता है, उसे पूरा गुरू मिला देता है (इस तरह, उस मनुष्य के) मन की हरेक चिंता समाप्त हो जाती है।

हे दास नानक! (कह– जिस मनुष्य के) मुँह में परमात्मा नाम-दवा डाल देता है, वह मनुष्य आत्मिक आनंद में जीवन व्यतीत करता है।4।12।62।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh