श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 625 सोरठि महला ५ ॥ सिमरि सिमरि प्रभ भए अनंदा दुख कलेस सभि नाठे ॥ गुन गावत धिआवत प्रभु अपना कारज सगले सांठे ॥१॥ जगजीवन नामु तुमारा ॥ गुर पूरे दीओ उपदेसा जपि भउजलु पारि उतारा ॥ रहाउ ॥ तूहै मंत्री सुनहि प्रभ तूहै सभु किछु करणैहारा ॥ तू आपे दाता आपे भुगता किआ इहु जंतु विचारा ॥२॥ किआ गुण तेरे आखि वखाणी कीमति कहणु न जाई ॥ पेखि पेखि जीवै प्रभु अपना अचरजु तुमहि वडाई ॥३॥ धारि अनुग्रहु आपि प्रभ स्वामी पति मति कीनी पूरी ॥ सदा सदा नानक बलिहारी बाछउ संता धूरी ॥४॥१३॥६३॥ {पन्ना 625} पद्अर्थ: सिमरि सिमरि = बार बार याद कर कर के। कलेस = झगड़े। सभि = सारे। सांठे = साध लिए। सगले = सारे।1। जग जीवन = जगत (के जीवों) को आत्मिक जीवन देने वाला। जपि = जप के। भउजलु = संसार समुंद्र। रहाउ। मंत्री = सलाहकार। सुनहि = तू सुनता है। करणैहार = कर सकने की समर्था वाला। आपे = खुद ही। भुगता = भोगने वाला। किआ विचारा = कोई पाइयां नहीं।2। वखाणी = मैं बयान करूँ। पेखि = देख के। जीवै = आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेता है। तुमहि = तेरी। वडाई = बड़प्पन।3। अनुग्रहु = कृपा। धारि = कर के। प्रभ = हे प्रभू! पति = इज्जत। मति = बुद्धि। बलिहारी = सदके। बाछहु = मैं चाहता हूँ। धूरी = चरण धूड़।4। अर्थ: हे प्रभू! तेरा नाम जगत (के जीवों) को आत्मिक जीवन देने वाला है। पूरे सतिगुरू ने (जिस मनुष्य को तेरा नाम सिमरने का) उपदेश दिया, (वह मनुष्य) नाम ज पके संसार समुंद्र से पार लांघ गया। रहाउ। हे प्रभू! तेरा नाम सिमर सिमर के (सिमरन करने वाले मनुष्य) प्रसन्नचिक्त हो जाते हैं, (उनके अंदर से) सारे दुख-कलेश दूर हो जाते हैं। (हे भाई! भाग्यशाली मनुष्य) अपने प्रभू के गुण गाते हुए और उसका ध्यान धरते हुए अपने सारे काम सँवार लेते हैं।1। हे प्रभू! तू खुद ही अपना सलाहकार है, तू खुद ही (हरेक जीव को) दातें देने वाला है, तू खुद ही (हरेक जीव में बैठ के पदार्थों को) भोगने वाला है। इस जीव की कोई बिसात नहीं है।2। हे प्रभू! मैं तेरे गुण कह के बयान के लायक नहीं हूँ तेरी कद्र-कीमति बताई नहीं जा सकती। तेरा बड़प्पन हैरान कर देने वाला है। (हे भाई! मनुष्य) अपने प्रभू के दर्शन कर करके आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेता है।3। हे प्रभू! हे स्वामी! तू स्वयं ही (जीव पर) कृपा करके उसको (लोक-परलोक में) आदर देता है, उसे पूर्ण बुद्धि दे देता है। हे नानक! (कह– हे प्रभू!) मैं सदा ही तुझसे कुर्बान जाता हूँ। मैं (तेरे दर से) संत जनों की चरण-धूड़ माँगता हूँ।4।13।63। सोरठि मः ५ ॥ गुरु पूरा नमसकारे ॥ प्रभि सभे काज सवारे ॥ हरि अपणी किरपा धारी ॥ प्रभ पूरन पैज सवारी ॥१॥ अपने दास को भइओ सहाई ॥ सगल मनोरथ कीने करतै ऊणी बात न काई ॥ रहाउ ॥ करतै पुरखि तालु दिवाइआ ॥ पिछै लगि चली माइआ ॥ तोटि न कतहू आवै ॥ मेरे पूरे सतगुर भावै ॥२॥ सिमरि सिमरि दइआला ॥ सभि जीअ भए किरपाला ॥ जै जै कारु गुसाई ॥ जिनि पूरी बणत बणाई ॥३॥ तू भारो सुआमी मोरा ॥ इहु पुंनु पदारथु तेरा ॥ जन नानक एकु धिआइआ ॥ सरब फला पुंनु पाइआ ॥४॥१४॥६४॥ {पन्ना 625} पद्अर्थ: नमसकारे = सिर निवाता है, शरण पड़ता है। प्रभि = प्रभू ने। पैज = इज्जत।1। को = का। सहाई = मददगार। करतै = करतार ने। ऊणी बात = कमी। रहाउ। पुरखि = पुरख ने, सर्वव्यापक प्रभू ने। तालु = ताला, गुप्त नाम खजाना। दिवाइआ = दिला दिया (गुरू के द्वारा)। तोटि = कमी। कतहू = कहीं भी। सतगुर भावै = गुरू को अच्छी लगती है।2। दइआला = दया का घर प्रभू। सभि = सारे। जीअ = (‘जीउ’ का बहुवचन)। किरपाला = कृपा के घर प्रभू का रूप। जै जै कारु = शोभा, सिफत सालाह। गुसाई = सृष्टि का मालिक। जिनि = जिस (गुसाई) ने। बणत = योजना, युक्ति।3। मोरा = मेरा। पुंनु = बख्शीश। पदारथु = नाम वस्तु। सरब फला = सारे फल देने वाला।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपने सेवकों का मददगार बनता है। करतार ने (सदा से ही अपने भक्तों की) सारी मनोकामनाएं पूरी की हैं, सेवक को (किसी किस्म की) कोई कमी नहीं रहती। रहाउ। हे भाई ! जो पूरे गुरू की शरण पड़ता है, (यकीन जानिए कि) परमात्मा ने उसके सारे काम सवार दिए हैं। प्रभू ने उस मनुष्य पर मेहर (की निगाह) की, और (लोक-परलोक में) उसकी लाज अच्छी तरह रख ली।1। (हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है) सर्वव्यापक करतार ने (उसको गुरू के द्वारा) गुप्त नाम-खजाना दिलवा दिया, (उसकी माया की लालसा नहीं रह जाती) माया उसके पीछे-पीछे चलती फिरती है। (माया की ओर से उसे) कहीं भी कमी महसूस नहीं होती। मेरे पूरे सतिगुरू को (उस भाग्यशाली मनुष्य के लिए यही बात) अच्छी लगती है।2। हे भाई! दया के घर परमात्मा का नाम सिमर सिमर के (सिमरन करने वाले) सारे ही जीव उस दया-स्वरूप प्रभू का रूप बन जाते हैं। (इस वास्ते हे भाई!) उस सृष्टि के मालिक प्रभू की सिफत सालाह करते रहा करो, जिस ने (जीवों को अपने साथ मिलाने की) ये सुंदर योजना बना दी है।3। हे प्रभू! तू मेरा बड़ा मालिक है। तेरा नाम-पदार्थ (जो मुझे गुरू के माध्यम से मिला है) तेरी ही बख्शिश है। हे दास नानक! (कह–) जिस मनुष्य ने (गुरू की शरण पड़ कर) परमात्मा को सिमरना शुरू कर दिया, उसने सारे फल देने वाली (ईश्वरीय) कृपा पा ली।4।14।64। सोरठि महला ५ घरु ३ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रामदास सरोवरि नाते ॥ सभि उतरे पाप कमाते ॥ निरमल होए करि इसनाना ॥ गुरि पूरै कीने दाना ॥१॥ सभि कुसल खेम प्रभि धारे ॥ सही सलामति सभि थोक उबारे गुर का सबदु वीचारे ॥ रहाउ ॥ साधसंगि मलु लाथी ॥ पारब्रहमु भइओ साथी ॥ नानक नामु धिआइआ ॥ आदि पुरख प्रभु पाइआ ॥२॥१॥६५॥ {पन्ना 625} पद्अर्थ: रामदास सरोवरि = राम के दासों के सरोवर में, साध-संगति में जहाँ नाम जल का प्रवाह चलता है। नाते = नहाए। सभि = सारे। कमाते = कमाए हुए, किए हुए। करि = कर के। गुरि = गुरू ने। दाना = बख्शिश।1। सभि = सारे। कुसल खेम = सुख आनंद। प्रभि = प्रभू ने। सभि थोक = सारी चीजें, आत्मिक जीवन के सारे गुण। उबारे = बचा लिए। बीचारे = विचार के, सोच मंडल में टिका के। रहाउ। साध संगि = साध-संगति में। मलु = विकारों की मैल। साथी = सहायक, मददगार। पुरख = सर्वव्यापक।2। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरू के शबद को अपनी सोच मंडल में टिका के आत्मिक जीवन के सारे गुण (विकारों के जाल में फसने से) ठीक ठाक बचा लिए, प्रभू ने (उसके हृउय में) सारे आत्मिक सुख आनंद पैदा कर दिए। रहाउ। हे भाई! जो मनुष्य राम के दासों के सरोवर में (साध-संगति में नाम-अमृत से) स्नान करते हैं, उनके (पिछले) किए हुए पाप उतर जाते हैं। (हरी नाम जल से) स्नान करके वे पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं। पर ये कृपा पूरे गुरू ने ही की हुई होती है।1। हे भाई! साध-संगति में (टिकने से) विकारों की मैल दूर हो जाती है, (साध-संगति की बरकति से) परमात्मा मददगार बन जाता है। हे नानक! (जिस मनुष्य ने रामदास सरोवर में आ के) परमात्मा का नाम सिमरा, उसने उस प्रभू को पा लिया जो सबका आदि है और सर्व-व्यापक है।2।1।65। नोट: यहाँ से ‘घर ३’ के शबद दो बंदों वाले शुरू होते हैं। दुपदे–दो बंदों वाले। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |