श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 626 सोरठि महला ५ ॥ जितु पारब्रहमु चिति आइआ ॥ सो घरु दयि वसाइआ ॥ सुख सागरु गुरु पाइआ ॥ ता सहसा सगल मिटाइआ ॥१॥ हरि के नाम की वडिआई ॥ आठ पहर गुण गाई ॥ गुर पूरे ते पाई ॥ रहाउ ॥ प्रभ की अकथ कहाणी ॥ जन बोलहि अम्रित बाणी ॥ नानक दास वखाणी ॥ गुर पूरे ते जाणी ॥२॥२॥६६॥ {पन्ना 626} पद्अर्थ: जितु = जिस में। चिति = चिक्त में, हृदय में। जितु चिति = जिस हृदय घर में। सो घरु = वह हृदय घर। दयि = प्यार वाले प्रभू ने। सुख सागरु = सुखों के समुंद्र। ता = तब। सहसा = सहम।1। वडिआई = शोभा, सिफत सालाह। आठ पहिर = हर वक्त। ते = से। पाई = प्राप्त की। रहाउ। अकथ = बयान ना हो सकने वाली। कहाणी = स्वरूप का वर्णन। बोलहि = बोलते हैं। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली। वखाणी = उचारी। ते = से।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम की सिफत सालाह करनी, आठों पहर परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाने- (ये दाति) पूरे गुरू से ही मिलती है। रहाउ। हे भाई! जिस हृदय-घर में परमात्मा आ बसा है, प्रीतम प्रभू ने वह हृदय-घर (आत्मिक गुणों से) भरपूर कर दिया। हे भाई! (जब किसी भाग्यशाली को) सुखों का समुंद्र गुरू मिल गया, तब उसने अपना सारा सहम दूर कर लिया।1। हे भाई! परमात्मा के स्वरूप की बातचीत बताई नहीं जा सकती। प्रभू के सेवक आत्मिक जीवन देने वाली सिफत सालाह की बाणी उचारते रहते हैं। हे नानक! वही सेवक ये बाणी उचारते हैं, जिन्होंने पूरे गुरू से ये समझ हासिल की है।2।2।66। सोरठि महला ५ ॥ आगै सुखु गुरि दीआ ॥ पाछै कुसल खेम गुरि कीआ ॥ सरब निधान सुख पाइआ ॥ गुरु अपुना रिदै धिआइआ ॥१॥ अपने सतिगुर की वडिआई ॥ मन इछे फल पाई ॥ संतहु दिनु दिनु चड़ै सवाई ॥ रहाउ ॥ जीअ जंत सभि भए दइआला प्रभि अपने करि दीने ॥ सहज सुभाइ मिले गोपाला नानक साचि पतीने ॥२॥३॥६७॥ {पन्ना 626} पद्अर्थ: आगै = आगे आने वाले जीवन काल में, परलोक में। गुरि = गुरू ने। पाछै = बीते समय में, इस लोक में। कुसल खेम = सुख आनंद। निधान = खजाने। रिदै = हृदय में।1। वडिआई = बड़प्पन, उच्च आत्मिक अवस्था। दिनु दिनु = हर रोज, दिनो दिन। सवाई = ज्यादा। रहाउ। सभि = सारे। दइआला = दया का घर, दया भरपूर। प्रभि = प्रभू ने। सहज = आत्मिक अडोलता। सुभाइ = प्रेम से। साचि = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में। पतीने = पतीजे, मस्त हो गए।2। अर्थ: हे संत जनो! (देखो) अपने गुरू की ऊँची आत्मिक अवस्था। (जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है वह) मन-मांगी मुरादें प्राप्त कर लेता है। गुरू की ये उदारता दिनो दिन बढ़ती चली जाती है। रहाउ। हे संत जनो! जिस मनुष्य ने अपने गुरू को (अपने) हृदय में बसा लिया, उसने सारे (आत्मिक) खजाने सारे आनंद प्राप्त कर लिए। गुरू ने उस मनुष्य को आगे आने वाले जीवन राह में सुख बख्श दिया, बीते समय में भी उसे गुरू ने सुख आनंद दिया।1। हे संत जनो! (जो भी जीव गुरू की शरण पड़ते हैं वह) सारे ही जीव दया-भरपूर (हृदय वाले) हो जाते हैं, प्रभू उन्हें अपने बना लेता है। हे नानक! (अंदर पैदा हो चुकी) आत्मिक अडोलता और प्रीति के कारण उन्हें सृष्टि का पालक-प्रभू मिल जाता है, वह सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा (की याद) में मगन रहते हैं।2।3।67। सोरठि महला ५ ॥ गुर का सबदु रखवारे ॥ चउकी चउगिरद हमारे ॥ राम नामि मनु लागा ॥ जमु लजाइ करि भागा ॥१॥ प्रभ जी तू मेरो सुखदाता ॥ बंधन काटि करे मनु निरमलु पूरन पुरखु बिधाता ॥ रहाउ ॥ नानक प्रभु अबिनासी ॥ ता की सेव न बिरथी जासी ॥ अनद करहि तेरे दासा ॥ जपि पूरन होई आसा ॥२॥४॥६८॥ {पन्ना 626} पद्अर्थ: रखवारे = रखवाला। चउकी = पहरा। चउगिरद = चारों तरफ। नामि = नाम में। लजाइ करि = शर्मिंदा हो के।1। प्रभ = हे प्रभू! बंधन = (माया के मोह आदि की) जंजीरें। काटि = काट के। निरमलु = पवित्र। पुरखु = सर्व व्यापक। बिधाता = सृजनहार प्रभू। रहाउ। ता की = उस (प्रभू) की। सेव = सेवा भक्ति। बिरथी = व्यर्थ। जासी = जाएगी। करहि = करते हैं। जपि = जप के। आसा = मनो कामना।2। अर्थ: हे प्रभू जी! मेरे लिए तो तू ही सुखों का दाता है। (हे भाई! जो मनुष्य प्रभू के नाम में मन जोड़ता है) सर्व-व्यापक सृजनहार प्रभू (उसके माया के मोह आदि के सारे) बंधन काट के उसके मन को पवित्र कर देता है। रहाउ। (हे भाई! विकारों के मुकाबले में) गुरू का शबद ही हम जीवों का रखवाला है, शबद ही (हमें विकारों से बचाने के लिए) हमारे चारों तरफ पहरा है। (गुरू के शबद की बरकति से जिस मनुष्य का) मन परमात्मा के नाम में जुड़ता है, उससे (विकार तो एक तरफ रहे,) जम (भी) शर्मिंदा हो के भाग जाता है।1। हे नानक! (कह–) अविनाशी प्रभू (ऐसा उदार-चिक्त है कि) उसकी की हुई सेवा-भक्ति व्यर्थ नहीं जाती। हे प्रभू! तेरे सेवक (सदा) आत्मिक आनंद भोगते हैं, तेरा नाम जप के उनकी हरेक मनोकामना पूरी हो जाती है।2।4।68। सोरठि महला ५ ॥ गुर अपुने बलिहारी ॥ जिनि पूरन पैज सवारी ॥ मन चिंदिआ फलु पाइआ ॥ प्रभु अपुना सदा धिआइआ ॥१॥ संतहु तिसु बिनु अवरु न कोई ॥ करण कारण प्रभु सोई ॥ रहाउ ॥ प्रभि अपनै वर दीने ॥ सगल जीअ वसि कीने ॥ जन नानक नामु धिआइआ ॥ ता सगले दूख मिटाइआ ॥२॥५॥६९॥ {पन्ना 626} पद्अर्थ: गुर बलिहारी = गुरू से सदके। जिनि = जिस (गुरू) ने। पूरन = पूरी तरह। पैज = लाज, इज्जत। चिंदिआ = चितवा हुआ।1। तिसु बिनु = उस परमात्मा के बिना। करण = जगत। कारण = मूल। सोई = वही। रहाउ। प्रभि = प्रभू ने। वर = बख्शिशें। जीअ = (‘जीव’ का बहुवचन)। वसि = अपने वश।2। अर्थ: हे संत जनो! उस परमात्मा के बिना (जीवों का) कोई और (रक्षक) नहीं है। वही परमात्मा जगत का मूल है। रहाउ। हे संत जनो! मैं अपने गुरू से कुर्बान जाता हूँ, जिसने (प्रभू के नाम की दाति दे के) पूरी तरह से (मेरी) इज्जत रख ली है। हे भाई! जो भी मनुष्य सदा अपने प्रभू का ध्यान धरता है वह मन-मांगी मुरादें प्राप्त कर लेता है।1। हे संत जनो! प्यारे प्रभू ने (जीवों को) सब वर दिए हुए हैं, सारे जीवों को उसने अपने वश में किया हुआ है। हे दास नानक! (कह– जब भी किसी ने) परमात्मा का नाम सिमरा, तब उसने अपने सारे दुख दूर कर लिए।2।5।69। सोरठि महला ५ ॥ तापु गवाइआ गुरि पूरे ॥ वाजे अनहद तूरे ॥ सरब कलिआण प्रभि कीने ॥ करि किरपा आपि दीने ॥१॥ बेदन सतिगुरि आपि गवाई ॥ सिख संत सभि सरसे होए हरि हरि नामु धिआई ॥ रहाउ ॥ जो मंगहि सो लेवहि ॥ प्रभ अपणिआ संता देवहि ॥ हरि गोविदु प्रभि राखिआ ॥ जन नानक साचु सुभाखिआ ॥२॥६॥७०॥ {पन्ना 626} पद्अर्थ: गुरि = गुरू ने। तापु = दुख कलेश। वाजे = बज गए। अनहद = एक रस, बिना बजाए। तूरे = बाजे। कलिआण = सुख। प्रभि = प्रभू ने। करि = कर के।1। बेदन = पीड़ा। सतिगुरि = सतिगुरू ने। सभि = सारे। सरसे = स+रस, रस सहित, आनंद भरपूर। धिआई = सिमर के। रहाउ। मंगहि = मांगते हैं। लेवहि = हासिल करते हैं। प्रभ = हे प्रभू! देवहि = तू देता है। प्रभि = प्रभू ने। सुभाखि्आ = उचारा है। अर्थ: हे भाई! सारे सिख संत परमात्मा का नाम सिमर सिमर के आनंद भरपूर हुए रहते हैं। (जिसने भी परमात्मा का नाम सिमरा) गुरू ने खुद (उसकी हरेक) पीड़ा दूर कर दी। रहाउ। पूरे गुरू ने (हरी नाम की दवा दे के जिस मनुष्य के अंदर से) ताप दूर कर दिया, (उसके अंदर आत्मिक आनंद के, मानो) एक-रस बाजे बजने लग पड़े। प्रभू ने कृपा करके खुद ही वह सारे सुख आनंद बख्श दिए।1। हे प्रभू! (तेरे दर से तेरे संत जन) जो कुछ माँगते हैं, वह हासिल कर लेते हैं। तू अपने संतों को (खुद सब कुछ) देता है। (हे भाई! बालक) हरि गोबिंद को (भी) प्रभू ने (खुद) बचाया है (किसी देवी आदि ने नहीं)। हे दास नानक! (कह–) मैं तो सदा स्थिर रहने वाले प्रभू का नाम ही उचारता हूँ।2।6।70। सोरठि महला ५ ॥ सोई कराइ जो तुधु भावै ॥ मोहि सिआणप कछू न आवै ॥ हम बारिक तउ सरणाई ॥ प्रभि आपे पैज रखाई ॥१॥ मेरा मात पिता हरि राइआ ॥ करि किरपा प्रतिपालण लागा करीं तेरा कराइआ ॥ रहाउ ॥ जीअ जंत तेरे धारे ॥ प्रभ डोरी हाथि तुमारे ॥ जि करावै सो करणा ॥ नानक दास तेरी सरणा ॥२॥७॥७१॥ {पन्ना 626} पद्अर्थ: सोई = वही काम। कराइ = तू कराना। भावै = अच्छा लगता है। मोहि = मुझे। तउ = तेरी। प्रभि = प्रभू ने। आपे = आप ही। पैज = इज्जत। हरि राइआ = हे प्रभू पातशाह! करी = मैं करता हूँ। रहाउ। धारे = सहारे लिए हुए। हाथि = हाथ में। करावै = कराता है।2। अर्थ: हे प्रभू पातशाह! तू ही मेरी माँ है, तू ही मेरा पिता है। मेहर करके तू खुद ही मेरी पालना कर रहा है। हे प्रभू! मैं वही कुछ करता हूँ, जो तू मुझसे करवाता है। रहाउ। हे प्रभू पातशाह! तू मुझसे वही काम करवाया कर जो तूझे अच्छा लगता है, मुझे कोई समझदारी वाली बात करनी नहीं आती। हे प्रभू! हम (तेरे) बच्चे तेरी शरण आए हैं। हे भाई! (शरण पड़े जीव की) प्रभू ने खुद ही इज्जत (हमेशा) रखवाई है।1। हे प्रभू! (हम जीवों की जिंदगी की) डोर तेरे हाथ में है, सारे जीव तेरे ही आसरे हैं। हे नानक! (कह– हे प्रभू!) तेरे दास तेरी ही शरण पड़े रहते हैं। हे भाई! हम जीव वही कुछ कर सकते हैं जो कुछ परमात्मा हमसे करवाता है।2।7।71। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |