श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सोरठि महला ५ ॥ हरि नामु रिदै परोइआ ॥ सभु काजु हमारा होइआ ॥ प्रभ चरणी मनु लागा ॥ पूरन जा के भागा ॥१॥ मिलि साधसंगि हरि धिआइआ ॥ आठ पहर अराधिओ हरि हरि मन चिंदिआ फलु पाइआ ॥ रहाउ ॥ परा पूरबला अंकुरु जागिआ ॥ राम नामि मनु लागिआ ॥ मनि तनि हरि दरसि समावै ॥ नानक दास सचे गुण गावै ॥२॥८॥७२॥ {पन्ना 627}

पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। परोइआ = अच्छी तरह बसा लिया। सभु = सारा। काजु = जीवन मनोरथ। जा के = जिस मनुष्य के।1।

मिलि = मिल के। साध संगि = साध-संगति में। अराधिओ = सिमरा। मन चिंदिआ = मन इच्छित। रहाउ।

परा पूरबला = अनेकों पहले जन्मों का। अंकुरु = अंगूर। जागिआ = फूट पड़ा। नामि = नाम में। मनि तनि = मन से तन से, पूरी तरह से। दरसि = दर्शन मे। सचे = सदा स्थििर हरी के।2।

अर्थ: ( हे भाई! जिस भी मनुष्य ने) साध-संगति में मिल के परमात्मा का नाम सिमरन किया, आठों पहर (हर वक्त) परमात्मा का नाम याद किया, उसने हरेक मन-मांगी मुरादें पा लीं। रहाउ।

हे भाई! जिस मनुष्य के भाग्य अच्छी तरह जाग पड़ते हैं, उसका मन परमात्मा के चरणों में लीन रहता है। हे भाई! जब परमात्मा का नाम अच्छी तरह दिल में बसा लिया जाता है, तब हम जीवों का सारा जीवन-मनोरथ सफल हो जाता है।1।

हे दास नानक! (कह– साध-संगति में मिल के जब किसी मनुष्य के) अनेकों पूर्बले जन्मों के संस्कारों के बीज अंकुरित हो जाते हैं (पूर्बले संस्कार जाग जाते हैं, तब उसका) मन परमात्मा के नाम में लगने लग जाता है, वह मनुष्य मन से तन से परमात्मा के दीदार में मस्त रहता है, वह मनुष्य सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के गुण गाता रहता है।2।8।72।

सोरठि महला ५ ॥ गुर मिलि प्रभू चितारिआ ॥ कारज सभि सवारिआ ॥ मंदा को न अलाए ॥ सभ जै जै कारु सुणाए ॥१॥ संतहु साची सरणि सुआमी ॥ जीअ जंत सभि हाथि तिसै कै सो प्रभु अंतरजामी ॥ रहाउ ॥ करतब सभि सवारे ॥ प्रभि अपुना बिरदु समारे ॥ पतित पावन प्रभ नामा ॥ जन नानक सद कुरबाना ॥२॥९॥७३॥ {पन्ना 627}

पद्अर्थ: गुर मिलि = गुरू को मिल के। सभि = सारे। मंदा को = कोई बुरा बोल। अलाऐ = बोलता। सभ = सारी (दुनिया) को। जै जै कारु = परमात्मा की सिफत सालाह। सुणाऐ = सुनाता है।1।

साची = सदा कायम रहने वाली। सभि = सारे। हाथि = हाथ में। तिसै कै हाथि = उसी के हाथ में। अंतरजामी = दिल की जानने वाला। रहाउ।

प्रभि = प्रभू ने। बिरदु = ईश्वर का मूल प्यार वाला स्वभाव। समारे = याद रखा हुआ है। पतित पावन = विकारों में गिरे हुए लोगों को पवित्र करने वाला।2।

अर्थ: हे संत जनो! मालिक प्रभू का आसरा पक्का आसरा है (क्योंकि) सारे जीव उस प्रभू के हाथ में हैं, और वह प्रभू हरेक जीव के दिल की जानने वाला है। रहाउ।

हे संत जनो! (जिस मनुष्य ने) गुरू को मिल के परमात्मा को याद करना शुरू कर दिया, उसने अपने सारे काम सवार लिए। वह मनुष्य (किसी को) कोई बुरे बोल नहीं बोलता, वह सारी दुनिया को प्रभू की सिफत सालाह ही सुनाता रहता है।1।

हे संत जनो! (जिस मनुष्य ने प्रभू का पक्का आसरा लिया, प्रभू ने उसके) सारे काम सवार दिए। प्रभू ने अपना ये बिरद (प्यार करने वाला स्वभाव) हमेशा ही याद रखा हुआ है। (हे संत जनो!) परमात्मा का नाम विकारियों को पवित्र करने वाला है। हे दास नानक! (कह– मैं उससे) सदा सदके जाता हूँ।2।9।73।

सोरठि महला ५ ॥ पारब्रहमि साजि सवारिआ ॥ इहु लहुड़ा गुरू उबारिआ ॥ अनद करहु पित माता ॥ परमेसरु जीअ का दाता ॥१॥ सुभ चितवनि दास तुमारे ॥ राखहि पैज दास अपुने की कारज आपि सवारे ॥ रहाउ ॥ मेरा प्रभु परउपकारी ॥ पूरन कल जिनि धारी ॥ नानक सरणी आइआ ॥ मन चिंदिआ फलु पाइआ ॥२॥१०॥७४॥ {पन्ना 627}

पद्अर्थ: पारब्रहमि = परमात्मा ने। साजि = साज के, पैदा करके। सवारिआ = सुंदर बना दिया। लहुड़ा = छोटा बच्चा। उबारिआ = बचा लिया है। करहु = बेशक करो (हुकमी भविष्यत्, अन्न पुरख, बहुवचन)। पित माता = माता पिता। जीअ का दाता = जीवन देने वाला।1।

सुभ = भलाई। चितवनि = चितवते हैं। राखहि = तू रखता है। पैज = लाज। सवारे = सवार के, सफल करे। रहाउ।

परउपकारी = दूसरों की भलाई करने वाला। कल = सक्ता, शक्ति। जिनि = जिस (प्रभू) ने। मन चिंदिआ = मनचाहा। चिंदिआ = सोचा हुआ।2।

अर्थ: हे प्रभू! तेरे सेवक सब का भला मांगते हैं। (अपने सेवकों की मांग के मुताबिक) तू काम सवार के सेवकों की इज्जत रख लेता है। रहाउ।

हे भाई! परमात्मा ने इस छोटे बच्चे (हरगोबिंद) को सजाया और सँवारा। परमात्मा ही जीवन का दाता है (रक्षक है)। (साध-संगति की अरदास सुन के) गुरूने इसको बचा लिया है। (गुरू परमात्मा की मेहर के सदका इस के) माता-पिता बेशक खुशी मनाएं।1।

हे भाई! जिस मेरे प्रभू ने सारे जगत में अपनी शक्ति टिकाई हुई है, वही सबकी भलाई करने वाला है। हे नानक! (कह– हे भाई!) जो भी मनुष्य (उस प्रभू की) शरण आ पड़ता है, वह मन-मांगी मुरादें पा लेता है।2।10।74।

सोरठि महला ५ ॥ सदा सदा हरि जापे ॥ प्रभ बालक राखे आपे ॥ सीतला ठाकि रहाई ॥ बिघन गए हरि नाई ॥१॥ मेरा प्रभु होआ सदा दइआला ॥ अरदासि सुणी भगत अपुने की सभ जीअ भइआ किरपाला ॥ रहाउ ॥ प्रभ करण कारण समराथा ॥ हरि सिमरत सभु दुखु लाथा ॥ अपणे दास की सुणी बेनंती ॥ सभ नानक सुखि सवंती ॥२॥११॥७५॥ {पन्ना 627}

पद्अर्थ: जापे = जापि, जपा कर। आपे = आप ही। ठाकि = रोक के। नाई = सिफत सलाह (स्ना = नाई, सिफत सलाह)।1।

सभ जीअ = सारे जीवों पर। रहाउ।

करण कारण = जगत का मूल। करण = जगत। समराथा = सब ताकतों का मालिक। सुखि = सुख में, सुख से।2।

अर्थ: हे भाई! मेरा प्रभू सदा ही दयावान रहता है। सारे ही जीवों पर वह दयालु रहता है। वह अपने भक्त की आरजू (हमेशा) सुनता है। रहाउ।

हे भाई! सदा ही (सिर्फ) परमात्मा का नाम जपा करो। प्रभू जी खुद ही बालकों के रखवाले हैं। (बालक हरगोबिंद से प्रभू ने स्वयं ही) सीतला (चेचक) रोक ली है। परमात्मा की सिफत सालाह की बरकति से खतरे दूर हो गए हैं।1।

हे भाई! प्रभू जगत का मूल है, और, सब ताकतों का मालिक है। प्रभू का नाम सिमरने से हरेक दुख दूर हो जाता है। हे नानक! प्रभू ने (हमेशा ही) अपने सेवकों की विनती सुनी है (प्रभू जी की मेहर से ही) सारी दुनिया सुखी बसती है।2।11।75।

सोरठि महला ५ ॥ अपना गुरू धिआए ॥ मिलि कुसल सेती घरि आए ॥ नामै की वडिआई ॥ तिसु कीमति कहणु न जाई ॥१॥ संतहु हरि हरि हरि आराधहु ॥ हरि आराधि सभो किछु पाईऐ कारज सगले साधहु ॥ रहाउ ॥ प्रेम भगति प्रभ लागी ॥ सो पाए जिसु वडभागी ॥ जन नानक नामु धिआइआ ॥ तिनि सरब सुखा फल पाइआ ॥२॥१२॥७६॥ {पन्ना 627}

पद्अर्थ: धिआऐ = ध्यान धरता है। मिलि = मिल के, (गुरू चरणों में) जुड़ के। कुसल सेती = आत्मिक आनंद से। घरि = घर में, हृदय घर में, अंतरात्मे। वडिआई = बरकति।1।

संतहु = हे संत जनो! आराधि = आराधना करके, सिमर के। सभो किछु = हरेक चीज। साधहु = सफल करो। रहाउ।

प्रेम भगति = प्यार भरी भक्ति। तिनि = उस (मनुष्य) ने। सरब सुखा = सारे सुख देने वाले।2।

अर्थ: हे संत जनो! सदा ही परमात्मा का नाम सिमरा करो। परमात्मा का नाम सिमर के हरेक चीज प्राप्त की जाती है। (तुम भी परमात्मा का नाम सिमर के अपने) सारे काम सवारो। रहाउ।

हे संत जनो! जो मनुष्य अपने गुरू का ध्यान धरता है, वह (गुरू चरणों में) जुड़ के आत्मिक आनंद से अपने हृदय-घर में टिक जाता है (बाहर भटकने से बच जाता है)। ये नाम की ही बरकति है (कि मनुष्य अन्य आसरों की तलाश छोड़ देता है)। (पर) इस (हरी-नाम) का मूल्य नहीं आँका जा सकता (किसी दुनियावी पदार्थ के बदले नहीं मिलता)।1।

(हे संत जनो! जो मनुष्य गुरू का ध्यान धरता है) प्रभू की प्यार भरी भक्ति में उसका मन लग जाता है। पर ये दाति वही मनुष्य हासिल करता है जिसके बड़े भाग्य हों। हे दास नानक! (कह–) जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम सिमरा है, उसने सारे सुख देने वाले (फल) प्राप्त कर लिए हैं।2।12।76।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh