श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 629 सोरठि महला ५ ॥ गुरु पूरा आराधे ॥ कारज सगले साधे ॥ सगल मनोरथ पूरे ॥ बाजे अनहद तूरे ॥१॥ संतहु रामु जपत सुखु पाइआ ॥ संत असथानि बसे सुख सहजे सगले दूख मिटाइआ ॥१॥ रहाउ ॥ गुर पूरे की बाणी ॥ पारब्रहम मनि भाणी ॥ नानक दासि वखाणी ॥ निरमल अकथ कहाणी ॥२॥१८॥८२॥ {पन्ना 629} पद्अर्थ: साधे = साध लेता, सफल कर लेता है। मनोरथ = मनो काना। बाजे = बज पड़ते हैं। अनहद = एक रस, बिना बजाए। तूरे = बाजे।1। संतहु = हे संत जनो! संत असथानि = संतों के स्थान में, साध-संगति में। सहजे = आत्मिक अडोलता में।1। पारब्रहम मनि = पारब्रहम के मन में। भाणी = अच्छी लगती है। दासि = दास ने। निरमल = पवित्र (करने वाली)। अकथ कहाणी = उस प्रभू की सिफत सालाह जिसका स्वरूप बयान से परे है।2। अर्थ: हे संत जनो! जो मनुष्य साध-संगति में आ टिकते हैं, वे आत्मिक अडोलता में लीन रह के आत्मिक आनंद हासिल करते हैं। वे अपने सारे दुख दूर कर लेते हैं, परमात्मा का नाम जप के वे आत्मिक सुख लेते हैं।1। रहाउ। हे संत जनो! जिन मनुष्यों ने पूरे गुरू का ध्यान धरा, उन्होंने अपने सारे काम सवार लिए। उनकी सारी मनोकामनाएं पूरी हो गई, उनके अंदर प्रभू की सिफत सालाह के बाजे एक-रस बजते रहते हैं।1। (पर) हे नानक! पूरे गुरू की बाणी (किसी विरले) दास ने ही (आत्मिक अडोलता में टिक के) उचारी है। ये बाणी परमात्मा के मन को (भी) प्यारी लगती है (क्योंकि) ये (पढ़ने वाले का जीवन) पवित्र करने वाली है, ये बाणी उस प्रभू की सिफत सालाह है जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता।2।18।82। सोरठि महला ५ ॥ भूखे खावत लाज न आवै ॥ तिउ हरि जनु हरि गुण गावै ॥१॥ अपने काज कउ किउ अलकाईऐ ॥ जितु सिमरनि दरगह मुखु ऊजल सदा सदा सुखु पाईऐ ॥१॥ रहाउ ॥ जिउ कामी कामि लुभावै ॥ तिउ हरि दास हरि जसु भावै ॥२॥ जिउ माता बालि लपटावै ॥ तिउ गिआनी नामु कमावै ॥३॥ गुर पूरे ते पावै ॥ जन नानक नामु धिआवै ॥४॥१९॥८३॥ {पन्ना 629} पद्अर्थ: लाज = शर्म। गावै = गाता है।1। कउ = वास्ते। अलकाईअै = आलस किया जाए। जितु = जिससे। सिमरनि = सिमरन से। जितु सिमरनि = जिसके सिमरन से।1। रहाउ। कामी = विषयी मनुष्य। कामि = काम वासना में। लुभावै = मगन रहता है। भावै = पसंद आता है।2। बालि = बालक (के मोह) में। लपटावै = चिपकी रहती है। गिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ वाला।3। मे = से। जन नानक = हे दास नानक!।4। अर्थ: हे भाई! जिस सिमरन की बरकति से परमात्मा की हजूरी में सुर्खरू होते हैं, और, सदा ही आत्मिक आनंद लेते हैं (वह सिमरन ही हमारा असल काम है, इस) अपने (असल) काम की खातिर कभी भी आलस नहीं करना चाहिएं1। रहाउ। हे भाई! जैसे (किसी मनुष्य को कुछ खाने को मिल जाए, तो वह) भूखा मनुष्य खाते हुए शर्म महसूस नहीं करता, इसी तरह परमात्मा का सेवक (अपनी आत्मिक भूख मिटाने के लिए बड़े चाव से) परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाता है।1। हे भाई! जैसे कोई कामी मनुष्य काम-वासना में मगन रहता है, वैसे ही परमात्मा के सेवक को परमात्मा की सिफत सालाह ही अच्छी लगती है।2। हे भाई! जैसे माँ अपने बच्चे (के मोह) से चिपकी रहती है, वैसे ही आत्मिक जीवन की सूझ वाला मनुष्य नाम (-सिमरन की) कमाई करता है।3। पर, हे दास नानक! (वही मनुष्य परमात्मा का) नाम सिमरता है जो (ये दाति) पूरे गुरू से हासिल करता है।4।19।83। सोरठि महला ५ ॥ सुख सांदि घरि आइआ ॥ निंदक कै मुखि छाइआ ॥ पूरै गुरि पहिराइआ ॥ बिनसे दुख सबाइआ ॥१॥ संतहु साचे की वडिआई ॥ जिनि अचरज सोभ बणाई ॥१॥ रहाउ ॥ बोले साहिब कै भाणै ॥ दासु बाणी ब्रहमु वखाणै ॥ नानक प्रभ सुखदाई ॥ जिनि पूरी बणत बणाई ॥२॥२०॥८४॥ {पन्ना 629} पद्अर्थ: सुख सांदि = ख़ैरीयत से, आत्मिक अरोगता से। घरि = हृदय घर में। कै मुखि = के मुंह में। छाइआ = राख। गुरि = गुरू ने। पहिराइआ = सिरोपा दिया, आदर मान बख्शा। सबाइआ = सारे।1। साचे की = सदा कायम रहने वाले परमात्मा की। वडिआई = बड़ी शान, बड़ी ताकत। जिनि = जिस (साचे) ने। अचरज = हैरान कर देने वाली। सोभ = (अपने दास की) शोभा।1। रहाउ। बोले = बोलता है। कै भाणै = की रजा में। वखाणै = उचारता है। ब्रहमु = परमात्मा (का नाम)। नानक = हे नानक! जिनि = जिस (प्रभू) ने। पूरी बणत = ऐसी योजना जिसमें कोई खामी नहीं है।2। अर्थ: हे संत जनो! (देखो) बड़ी शान उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा की, जिस ने (अपने दास की सदा ही) हैरान कर देने वाली शोभा बना दी है।1। रहाउ। (हे संत जनो! परमात्मा की कृपा से जिस मनुष्य को) पूरे गुरू ने आदर-मान बख्शा, उसके सारे ही दुख दूर हो गए, वही पूरी आत्मिक अरोगता से अपने हृदय-घर में (सदा के लिए) टिक गया। उस की निंदा करने वाले के मुँह पर राख ही पड़ी (प्रभू के दास के निंदक ने सदा बदनामी का टिका ही कमाया)।1। हे नानक! (प्रभू के जिस सेवक को गुरू ने इज्जत दी, वह सेवक सदा) परमात्मा की रजा में ही वचन बोलता है, वह सेवक (परमात्मा की सिफत सालाह की) बाणी सदा उचारता है, परमात्मा का नाम उचारता है। हे भाई! जिस परमात्मा ने (गुरू की शरण पड़ के नाम-सिमरन की ये) कभी गलत ना साबित होने वाली योजना (विधि) बना दी है, वह सदा (अपने सेवक को) सुख देने वाला है।2।20।84। सोरठि महला ५ ॥ प्रभु अपुना रिदै धिआए ॥ घरि सही सलामति आए ॥ संतोखु भइआ संसारे ॥ गुरि पूरै लै तारे ॥१॥ संतहु प्रभु मेरा सदा दइआला ॥ अपने भगत की गणत न गणई राखै बाल गुपाला ॥१॥ रहाउ ॥ हरि नामु रिदै उरि धारे ॥ तिनि सभे थोक सवारे ॥ गुरि पूरै तुसि दीआ ॥ फिरि नानक दूखु न थीआ ॥२॥२१॥८५॥ {पन्ना 629} पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। घरि = घर में, प्रभू चरणों में। सही सलामति = आत्मिक जीवन की राशि पूँजी को विकारों से पूरी तरह बचा के। संसारे = संसार में (विचरते हुए), दुनिया की किरत कार करते हुए। गुरि = गुरू ने। लै = ले के, (उसकी) बाँह पकड़ के। गणत = लेखा। न गणई = नहीं गिनता। गुपाला = सृष्टि का पालक प्रभू।1। रहाउ। रिदै = दिल में। उरि = दिल में। तिनि = उस मनुष्य ने। सभे थोक = सारी चीजें, सारे आत्मिक गुण। तुसि = प्रसन्न हो के। न थीआ = ना हुआ।2। अर्थ: हे संत जनो! मेरा प्रभू (अपने सेवकों पर) सदा ही दयावान रहता है। प्रभू अपने भक्तों के कर्मों का लेखा नहीं विचारता, (क्योंकि) सृष्टि का पालक प्रभू बच्चों की तरह (सेवकों को विकारों से) बचाए रखता है (इसलिए उनके विकारों का कोई लेखा नहीं रह जाता)।1। रहाउ। हे संत जनो! जो मनुष्य परमात्मा का नाम अपने दिल में बसाए रखता है, वह मनुष्य अपनी आत्मिक जीवन की राशि-पूँजी को विकारों से पूरी तरह बचा के हृदय-घर में टिका रहता है। दुनिया के कार्य-व्यवहार करते हुए भी (उसके मन में माया के प्रति) संतोष बना रहता है। पूरे गुरू ने उसकी बाँह पकड़ के उसको (संसार-समुंद्र से) पार लंघा लिया होता है।1। हे संत जनो! जो मनुष्य परमात्मा का नाम अपने हृदय में बसाए रखता है (यकीन जानिए) उसने अपने सारे आत्मिक गुण सुंदर बना लिए हैं। हे नानक! पूरे गुरू ने (जिस मनुष्य को) प्रसन्न हो के नाम की दाति बख्शी, उसे दुबारा कभी कोई दुख नहीं व्याप सका।2।21।85। सोरठि महला ५ ॥ हरि मनि तनि वसिआ सोई ॥ जै जै कारु करे सभु कोई ॥ गुर पूरे की वडिआई ॥ ता की कीमति कही न जाई ॥१॥ हउ कुरबानु जाई तेरे नावै ॥ जिस नो बखसि लैहि मेरे पिआरे सो जसु तेरा गावै ॥१॥ रहाउ ॥ तूं भारो सुआमी मेरा ॥ संतां भरवासा तेरा ॥ नानक प्रभ सरणाई ॥ मुखि निंदक कै छाई ॥२॥२२॥८६॥ {पन्ना 629} पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = तन में। सोई = वह (परमात्मा) ही। जै जै कारु = शोभा। सभु कोई = हरेक जीव। वडिआई = बरकति, बख्शिश। ता की = उस (पूरे गुरू की बख्शिश) की।1। हउ जाई = मैं जाता हूँ। नावै = नाम से। जिस नो: ‘जिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है। पिआरे = हे प्यारे! जसु = सिफत सालाह का गीत।1। रहाउ। भारो = बड़ा। सुआमी = मालिक। भरवासा = भरोसा, सहारा। कै मुखि = के मुँह पर। छाई = राख। निंदक = निंदा करने वाला, दोखी।2। अर्थ: हे मेरे प्यारे प्रभू! मैं तेरे नाम से सदके जाता हूँ। तू जिस मनुष्य पर कृपा करता है, वह सदा तेरी सिफत सालाह के गीत गाता है।1। रहाउ। हे भाई! जिस मनुष्य के मन में तन में वह परमात्मा ही बसा रहता है, हरेक जीव उसकी शोभा करता है। (पर ये) पूरे गुरू की ही बख्शिश है (जिसकी मेहर से परमात्मा की याद किसी भाग्यशाली के मन तन में बसती है) गुरू की कृपा का मूल्य नहीं पड़ सकता।1। हे प्रभू! तू मेरा बड़ा मालिक है। तेरे संतों को (भी) तेरा ही सहारा रहता है। हे नानक! जो मनुष्य प्रभू की शरण पड़ा रहता है (उसका दुख दूर करने वाले) निंदक के मुँह पर राख ही पड़ती है (प्रभू की शरण पड़े मनुष्य का कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता)।2।22।86। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |