श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 630 सोरठि महला ५ ॥ आगै सुखु मेरे मीता ॥ पाछे आनदु प्रभि कीता ॥ परमेसुरि बणत बणाई ॥ फिरि डोलत कतहू नाही ॥१॥ साचे साहिब सिउ मनु मानिआ ॥ हरि सरब निरंतरि जानिआ ॥१॥ रहाउ ॥ सभ जीअ तेरे दइआला ॥ अपने भगत करहि प्रतिपाला ॥ अचरजु तेरी वडिआई ॥ नित नानक नामु धिआई ॥२॥२३॥८७॥ {पन्ना 630} पद्अर्थ: आगै = आगे आने वाले जीवन में। मीता = हे मित्र! पाछे = पीछे बीत चुके समय में। प्रभि = प्रभू ने। परमेसुरि = परमेश्वर ने। बणत = विउंत, संयोग, योजना। कत हू = कहीं भी।1। साचे सिउ = सदा कायम रहने वाले। सिउ = साथ। मानिआ = पतीज गया। निरंतरि = निर+अंतरि। अंतरि = दूरी, एक रस, बिना दूरी के।1। रहाउ। जीअ = (‘जीव’ का बहुवचन)। दइआला = हे दया के घर! करहि = तू करता है। अचरजु = हैरान कर देने वाला। वडिआई = बख्शिश। धिआई = ध्याता है।2। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य का मन सदा कायम रहने वाले मालिक (के नाम) से पतीज जाता है, वह मनुष्य उस मालिक प्रभू को सब में एक-रस बसता पहचान लेता है।1। रहाउ। हे मेरे मित्र! जिस मनुष्य के आगे आने वाले जीवन में प्रभू ने सुख बना दिया, जिसके बीत चुके जीवन में भी प्रभू ने आनंद बनाए रखा, जिस मनुष्य के लिए परमेश्वर ने ऐसी योजना बना रखी, वह मनुष्य (लोक-परलोक में) कहीं भी डोलता नहीं।1। हे दया के घर प्रभू! सारे जीव तेरे पैदा किए हुए हैं, तू अपने भक्तों की रखवाली स्वयं ही करता है। हे प्रभू! तू आश्चर्य स्वरूप है। तेरी बख्शिश भी हैरान कर देने वाली है। हे नानक! (कह– जिस मनुष्य पर प्रभू बख्शिश करता है, वह) सदा उसका नाम सिमरता रहता है।2।23।87। सोरठि महला ५ ॥ नालि नराइणु मेरै ॥ जमदूतु न आवै नेरै ॥ कंठि लाइ प्रभ राखै ॥ सतिगुर की सचु साखै ॥१॥ गुरि पूरै पूरी कीती ॥ दुसमन मारि विडारे सगले दास कउ सुमति दीती ॥१॥ रहाउ ॥ प्रभि सगले थान वसाए ॥ सुखि सांदि फिरि आए ॥ नानक प्रभ सरणाए ॥ जिनि सगले रोग मिटाए ॥२॥२४॥८८॥ {पन्ना 630} पद्अर्थ: नाराइणु = (नार+आयन) परमात्मा। कंठि = गले से। लाइ = लगा के। साखै = साखी, शिक्षा। सचु = सदा स्थिर प्रभू का नाम।1। गुरि = गुरू ने। पूरी = सफलता। दुसमन = (कामादिक) वैरी। मारि = मार के। विडारे = नाश कर दिए। कउ = को।1। रहाउ। प्रभि = प्रभू ने। सगले थान = सारे स्थान, सारी ज्ञानेन्द्रियां। वसाऐ = आत्मिक गुणों से बसा दिए। सुख सांदि = आत्मिक आनंद में, शांत अवस्था में। आऐ = आ टिके। जिनि = जिस प्रभू ने।2। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को पूरे गुरू ने (जीवन में) सफलता बख्शी, प्रभू ने (कामादिक उसके) सारे ही वैरी समाप्त कर दिए, और, उस सेवक को (नाम सिमरन की) श्रेष्ठ बुद्धि दे दी।1। रहाउ। हे भाई! परमात्मा मेरे साथ (मेरे हृदय में बस रहा) है। (उसकी बरकति से) जमदूत मेरे नजदीक नहीं फटकता (मुझे मौत का आत्मिक मौत का खतरा नहीं रहा)। हे भाई! जिस मनुष्य को गुरू की सदा-स्थिर हरी-नाम-सिमरन की शिक्षा मिल जाती है, प्रभू उस मनुष्य को अपने गले से लगाए रखता है।1। (हे भाई! जिन मनुष्यों को गुरू ने जीवन सफलता बख्शी) प्रभू ने उनके सारी ज्ञानेन्द्रियों को आत्मिक गुणों से भरपूर कर दिया, वह मनुष्य (कामादिक विकारों से) पलट के आत्मिक आनंद में आ टिके। हे नानक! उस प्रभू की शरण पड़ा रह, जिसने (शरण पड़ों के) सारे रोग दूर कर दिए।2।28।88। सोरठि महला ५ ॥ सरब सुखा का दाता सतिगुरु ता की सरनी पाईऐ ॥ दरसनु भेटत होत अनंदा दूखु गइआ हरि गाईऐ ॥१॥ हरि रसु पीवहु भाई ॥ नामु जपहु नामो आराधहु गुर पूरे की सरनाई ॥ रहाउ ॥ तिसहि परापति जिसु धुरि लिखिआ सोई पूरनु भाई ॥ नानक की बेनंती प्रभ जी नामि रहा लिव लाई ॥२॥२५॥८९॥ {पन्ना 630} पद्अर्थ: दाता = देने वाला। ता की = उस (गुरू) की। भेटत = मिलते ही। गाईअै = गाना चाहिए।1। भाई = हे भाई! नामो = नाम ही। रहाउ। तिसहि = तिसु ही, उसी को ही (यहाँ ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्री क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण हट गई है)। धुरि = प्रभू की दरगाह से। प्रभ = हे प्रभू! नामि = नाम में। रहा = रहूँ। लिव = लगन।2। अर्थ: हे भाई! पूरे गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम जपा करो, हर वक्त नाम ही सिमरा करो, परमात्मा का नाम-अमुत पीते रहा करो। रहाउ। हे भाई! गुरू सारे सुखों को देने वाला है, उस (गुरू) की शरण पड़ना चाहिए। गुरू के दर्शन करने से आत्मिक आनंद प्राप्त होता है, हरेक दुख दूर हो जाता है, (गुरू की शरण पड़ कर) परमात्मा की सिफत सालाह करनी चाहिए।1। पर, हे भाई! (ये नाम की दाति गुरू के दर से) उस मनुष्य को ही मिलती है जिसकी किस्मत में परमात्मा की हजूरी से इसकी प्राप्ती लिखी होती है। वह मनुष्य सर्वगुण संपन्न हो जाता है। हे प्रभू जी! (तेरे दास) नानक की (भी तेरे दर पर ये) विनती है– मैं तेरे नाम में सुरति जोड़े रखूँ।2।25।89। सोरठि महला ५ ॥ करन करावन हरि अंतरजामी जन अपुने की राखै ॥ जै जै कारु होतु जग भीतरि सबदु गुरू रसु चाखै ॥१॥ प्रभ जी तेरी ओट गुसाई ॥ तू समरथु सरनि का दाता आठ पहर तुम्ह धिआई ॥ रहाउ ॥ जो जनु भजनु करे प्रभ तेरा तिसै अंदेसा नाही ॥ सतिगुर चरन लगे भउ मिटिआ हरि गुन गाए मन माही ॥२॥ सूख सहज आनंद घनेरे सतिगुर दीआ दिलासा ॥ जिणि घरि आए सोभा सेती पूरन होई आसा ॥३॥ पूरा गुरु पूरी मति जा की पूरन प्रभ के कामा ॥ गुर चरनी लागि तरिओ भव सागरु जपि नानक हरि हरि नामा ॥४॥२६॥९०॥ {पन्ना 630} पद्अर्थ: करन करावन = सब कुछ कर सकने वाला और जीवों से करवा सकने वाला। अंतजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। जै जै कारु = शोभा। भीतरि = (अभ्यंतर) अंदर, में।1। प्रभ = हे प्रभू! ओट = आसरा। गुसाई = धरती के पति! सरनि = (शरन्य) आसरा। धिआई = मैं ध्याऊँ। रहाउ। प्रभ = हे प्रभू! अंदेसा = चिंता फिक्र। माही = में।2। सहज = आत्मिक अडोलता। घनेरे = बहुत। दिलासा = हौसला। जिणि = जीत के (शब्द ‘जिणि’ और ‘जिनि’ का अंतर याद रखें)। सेती = साथ।3। मति = बुद्धि, शिक्षा। पूरी = त्रुटि हीन। जा की = जिस (गुरू) की। लागि = लग के। भव सागरु = संसार समुंद्र। जपि = जप के।4। अर्थ: हे (मेरे) प्रभू जी! हे धरती के पति! (मुझे) तेरा (ही) आसरा है। तू सब ताकतों का मालिक है, तू (सब जीवों को) सहारा देने वाला है, (मेरे पर मेहर कर) मैं आठों पहर तुझे याद करता रहूँ। रहाउ। हे भाई! सब कुछ कर सकने वाला और जीवों से करा सकने वाला, हरेक के दिल की जानने वाला प्रभू अपने सेवक की (सदा लाज) रखता है। जो सेवक गुरू के शबद को (हृदय में बसाता है, परमात्मा के नाम का) स्वाद चखता है उसकी शोभा (सारे) संसार में होती है।1। हे प्रभू! जो मनुष्य तेरी भक्ति करता है, उसे कोई चिंता-फिक्र नहीं सता सकता, (जिसके माथे को) गुरू के चरण छूते हैं, उसका हरेक डर मिट जाता है, वह मनुष्य अपने मन में परमात्मा के सिफत सालाह के गीत गाता रहता है।2। हे सतिगुरू! जिस मनुष्य को तूने (विकारों से टकराने के लिए) हौसला दिया, उसके अंदर आत्मिक अडोलता के बहुत सुख-आनंद पैदा हो जाते हैं। वह मनुष्य (जीवन खेल) जीत के (जगत में से) शोभा कमा के हृदय-गृह में टिका रहता है, उसकी (हरेक) आशा पूरी हो जाती है।3। हे नानक! (कह–) जो गुरू किसी भी तरह की कमी वाला नहीं है (त्रुटिहीन है), जिस की गुरू की शिक्षा में कमी नहीं है, जो गुरू अपना सारा समय पूर्ण प्रभू (के नाम सिमरन के) उद्यमों में लगाता है, उस गुरू के चरणों में लग के, और, परमात्मा का नाम सदा जप के (मैं) संसार समुंद्र से (सही सलामति) पार लांघ रहा हूँ।4।26।90। सोरठि महला ५ ॥ भइओ किरपालु दीन दुख भंजनु आपे सभ बिधि थाटी ॥ खिन महि राखि लीओ जनु अपुना गुर पूरै बेड़ी काटी ॥१॥ मेरे मन गुर गोविंदु सद धिआईऐ ॥ सगल कलेस मिटहि इसु तन ते मन चिंदिआ फलु पाईऐ ॥ रहाउ ॥ जीअ जंत जा के सभि कीने प्रभु ऊचा अगम अपारा ॥ साधसंगि नानक नामु धिआइआ मुख ऊजल भए दरबारा ॥२॥२७॥९१॥ {पन्ना 630} पद्अर्थ: किरपालु = दयावान। दीन दुख भंजनु = गरीबों के दुख नाश करने वाला। आपे = आप ही। सभ बिधि = सारे तरीके। थाटी = बनाई। राखि लीओ = बचा लिया। जनु = दास। गुर पूरे = पूरे गुरू ने। बेड़ी = पैरों की जंज़ीर।1। गोविंदु = धरती का मालिक हरी। सद = सदा। कलेस = दुख झगड़े। मिटहि = मिट जाते हैं। ते = से। मन चिंदिआ = मन इच्छित। चिंदिआ = चितवा हुआ। रहाउ। जा के = जिस (परमात्मा) के। सभि = सारे। कीने = पैदा किए हुए हैं। अगम = अपहुँच। अपारा = बेअंत। साध संगि = साध-संगति में। मुख ऊजल = उज्वल मुँह वाले। दरबारा = प्रभू की हजूरी में।2। अर्थ: हे मेरे मन! सदा गुरू का ध्यान धरना चाहिए, सदा परमात्मा का नाम सिमरना चाहिए (इस उद्यम से) इस शरीर में से सारे दुख-कलेश मिट जाते हैं, और मन मांगी मुरादें हासिल कर ली जाती हैं। रहाउ। हे भाई! गरीबों के दुख नाश करने वाला परमात्मा (अपने सेवक पर सदा) दयावान होता आया है; उसने स्वयं ही (अपने सेवकों की रक्षा करने की) सारी विधि बनाई है। उसने एक पलक में अपने सेवक को (सदा) बचा लिया, (उसकी मेहर से) पूरे गुरू ने (सेवक के दुखों कलेशों की) बेड़ी काट दी।1। हे नानक! (कह–) सारे जीव-जंतु जिस परमात्मा के पैदा किए हुए हैं वह प्रभू सबसे ऊँचा है, अपहुँच है, बेअंत है। जिन मनुष्यों ने (गुरू की शरण पड़ कर उस परमात्मा का) नाम सिमरा, वे परमात्मा की हजूरी में सुर्खरू हो गए।2।27।91। सोरठि महला ५ ॥ सिमरउ अपुना सांई ॥ दिनसु रैनि सद धिआई ॥ हाथ देइ जिनि राखे ॥ हरि नाम महा रस चाखे ॥१॥ अपने गुर ऊपरि कुरबानु ॥ भए किरपाल पूरन प्रभ दाते जीअ होए मिहरवान ॥ रहाउ ॥ नानक जन सरनाई ॥ जिनि पूरन पैज रखाई ॥ सगले दूख मिटाई ॥ सुखु भुंचहु मेरे भाई ॥२॥२८॥९२॥ {पन्ना 630-631} पद्अर्थ: सिमरउ = सिमरूँ, मैं सिमरता हूँ। सांई = पति प्रभू। रैनि = रात। सद = सदा। धिआई = मैं ध्यान धरता हूं। देइ = दे के। जिनि = जिस (पति-प्रभू) ने।1। गुर ऊपरि = गुरू से। कुरबानु = सदके। जीअ = सारे जीवों पर। रहाउ। नानक जन = हे दास नानक! जिनि = जिस (परमात्मा) ने। पूरन = अच्छी तरह। पैज = इज्जत। सगले = सारे। भुंचहु = खाओ। भाई = हे भाई!।2। अर्थ: हे भाई! मैं अपने गुरू से सदके जाता हूँ, (जिसकी मेहर से) सर्व-व्यापक दातार प्रभू जी (सेवकों पर) कृपाल होते हैं, सारें जीवों पर मेहरवान होते हैं। रहाउ। हे भाई! मैं (उस) पति-प्रभू (का नाम) सिमरता हूँ, दिन-रात सदा (उसका) ध्यान धरता हूं, जिसने अपना हाथ दे के (उन मनुष्यों को दुखों-विकारों से) बचा लिया जिन्होंने परमात्मा के नाम का श्रेष्ठ रस चखा।1। हे दास नानक! (कह–) हे मेरे भाईयो! उस परमात्मा की शरण पड़े रहो, जिस ने (शरण आए मनुष्यों की) इज्जत (दुखों-विकारों के मुकाबले पर) अच्छी तरह रख ली, जिसने उनके सारे दुख दूर कर दिए। हे भाईओ! (तुम भी उसकी शरण पड़ कर) आत्मिक आनंद लो।2।28।92। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |