श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 631 सोरठि महला ५ ॥ सुनहु बिनंती ठाकुर मेरे जीअ जंत तेरे धारे ॥ राखु पैज नाम अपुने की करन करावनहारे ॥१॥ प्रभ जीउ खसमाना करि पिआरे ॥ बुरे भले हम थारे ॥ रहाउ ॥ सुणी पुकार समरथ सुआमी बंधन काटि सवारे ॥ पहिरि सिरपाउ सेवक जन मेले नानक प्रगट पहारे ॥२॥२९॥९३॥ {पन्ना 631} पद्अर्थ: ठाकुर मेरे = हे मेरे पालनहार प्रभू! जीअ जंत = छोटे बड़े सारे जीव। धारे = आसरे। पैज = लाज, इज्जत। करन करावनहारे = हे सब कुछ कर सकने वाले, और, जीवों से करा सकने वाले!।1। खसमाना = पति वाला फर्ज। थारे = तेरे। रहाउ। समरथ = सारी ताकतों के मालिक। काटि = काट के। सवारे = सुंदर जीवन वाले बना दिए। पहिरि = पहना के। सिरपाउ = सिरोपा, आदर मान वाला पोशाका। प्रगट = मशहूर। पहारे = जगत में।2। अर्थ: हे प्यारे प्रभू जी! (तू हमारा पति है) पति वाले फर्ज पूरे कर। (चाहे हम) बुरे हैं (चाहे हम) अच्छे हैं, हम तेरे ही हैं (हमारे विकारों के बँधन काट)। रहाउ। हे मेरे ठाकुर! हे सब कुछ कर सकने और करा सकने वाले प्रभू! (मेरी) विनती सुन। सारे छोटे बड़े जीव तेरे ही आसरे हैं (तेरा नाम है ‘शरण योग’। हम जीव तेरे ही आसरे हैं) तू अपने (इस) नाम की लाज रख (और, हमारे माया के बँधन काट)।1। हे नानक! (कह–हे भाई! जिन सेवकों की) पुकार सब ताकतों के मालिक प्रभू ने सुन ली, उनके (माया के) बँधन काट के प्रभू ने उनके जीवन सुंदर बना दिए। उन सेवकों को दासों को आदर-मान दे के अपने चरणों में मिला लिया, और, संसार में प्रमुख कर दिया।2।29।93। सोरठि महला ५ ॥ जीअ जंत सभि वसि करि दीने सेवक सभि दरबारे ॥ अंगीकारु कीओ प्रभ अपुने भव निधि पारि उतारे ॥१॥ संतन के कारज सगल सवारे ॥ दीन दइआल क्रिपाल क्रिपा निधि पूरन खसम हमारे ॥ रहाउ ॥ आउ बैठु आदरु सभ थाई ऊन न कतहूं बाता ॥ भगति सिरपाउ दीओ जन अपुने प्रतापु नानक प्रभ जाता ॥२॥३०॥९४॥ {पन्ना 631} पद्अर्थ: जीअ जंत सभि = जीव जंतु सब, सारे जीव और सारे जंतु। वसि = वश में। दरबारे = दरबार में (जगह देता है)। अंगीकारु = पक्ष, सहायता। भव निधि = संसार समुंद्र। पारि उतारे = पार लंघा लिए।1। सगल = सारे। सवारे = सवार देता है। क्रिपाल = कृपा का घर। क्रिपा निधि = कृपा का खजाना। पूरन = सब ताकतों वाले। रहाउ। सभ थाई = सब जगहों पर। ऊन = कमी। कतहूँ बाता = किसी भी बात की। प्रताप = तेज। जाता = जाना जाता है, उघड़ पड़ता है।2। अर्थ: हे भाई! हमारा पति दीनों पर दया करने वाला है, कृपा का घर है, कृपा का खजाना है, सब ताकतों का मालिक है। (हमारा पति-प्रभू) संत जनों के सारे काम सँवार देता है (दुनिया के) सारे जीवों को उनके आज्ञाकार बना देता है। सेवकों का सदा पक्ष करता है, और, उनको संसार समुंद्र से पार लंघा लेता है।1। हे भाई! (हमारा पति-प्रभू) सँत-जनों के सारे काम सँवार देता है। हमारा पति दीनों पर दया करने वाला है, कृपा का घर है, कृपा का खजाना है, सब ताकतों का मालिक है। रहाउ। हे नानक! (कह– परमात्मा के सेवकों को संत जनों को) हर जगह आदर मिलता है (हर जगह लोग) स्वागत करते हैं। (संतजनों को) किसी बात की कोई कमी नहीं रहती। परमात्मा अपने सेवकों को भक्ति (का) सिरोपा बख्शता है (इस तरह) परमात्मा का तेज-प्रताप (सारे संसार में) रौशन हो जाता है।2।30।94। सोरठि महला ९ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रे मन राम सिउ करि प्रीति ॥ स्रवन गोबिंद गुनु सुनउ अरु गाउ रसना गीति ॥१॥ रहाउ ॥ करि साधसंगति सिमरु माधो होहि पतित पुनीत ॥ कालु बिआलु जिउ परिओ डोलै मुखु पसारे मीत ॥१॥ आजु कालि फुनि तोहि ग्रसि है समझि राखउ चीति ॥ कहै नानकु रामु भजि लै जातु अउसरु बीत ॥२॥१॥ {पन्ना 631} पद्अर्थ: सिउ = से। प्रीति = प्यार। स्रवन = कानों से। गोबिंद गुन = गोबिंद के गुण, परमात्मा की सिफत सालाह के गीत। अरु = और। (शब्द ‘अरु’ और ‘अरि’ में फर्क है)। रसना = जीभ से।1। रहाउ। माधो = माधव, माया का पति, प्रभू। होहि = हो जाते हैं। पतित = विकारों में गिरे हुए, विकारी लोग। पुनीत = पवित्र। बिआल = व्याल, साँप। जिउ = जैसे। परिओ डोलै = फिर रहा है। पसारे = पसार के, बिखेर के, खोल के। मीत = हे मित्र!।1। आजु कालि = आज कल, जल्दी ही। फुनि तोहि = तुझे भी। ग्रसि है = ग्रस लेगा, हड़प जाएगा। चीति = चिक्त में। कहै नानकु = नानक कहता है। जातु बीत = बीतता जा रहा है। अउसरु = जिंदगी का समय।2। अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा से प्यार बना। (हे भाई!) कानों से परमात्मा की उस्तति सुना कर, और, जीभ से परमात्मा (की सिफत सालाह) के गीत गाया कर। रहाउ। हे भाई! गुरमुखों की संगत किया कर, परमात्मा का सिमरन करता रह। (सिमरन की बरकति से) विकारी भी पवित्र बन जाते हैं। हे मित्र! (इस काम में आलस ना कर, देख) मौत साँप की तरह मुँह खोल के घूम रही है।1। हे भाई! अपने चिक्त में ये बात समझ ले कि (ये मौत) तुझे भी जल्दी ही हड़प कर लेगी। नानक (तुझे) कहता है– (अब अभी वक्त है) परमात्मा का भजन कर ले, ये वक्त गुजरता जा रहा है।2।1। सोरठि महला ९ ॥ मन की मन ही माहि रही ॥ ना हरि भजे न तीरथ सेवे चोटी कालि गही ॥१॥ रहाउ ॥ दारा मीत पूत रथ स्मपति धन पूरन सभ मही ॥ अवर सगल मिथिआ ए जानउ भजनु रामु को सही ॥१॥ फिरत फिरत बहुते जुग हारिओ मानस देह लही ॥ नानक कहत मिलन की बरीआ सिमरत कहा नही ॥२॥२॥ {पन्ना 631} पद्अर्थ: माहि = में। रही = रह गई। भजे = भजन किया। तीरथ = (तीर्थ = a holy person) संत जन। देखें; 1. “नामि रते तीरथ से निरमल, दुखु हउमै मैलु चुकाइआ॥ 2. सोरठि महला ९ “ना हरि भजिओ ना गुरजनु सेविओ” पंना 632 (शबद तीजा) सेवे = सेवा की। चोटी = बोदी। कालि = काल ने। गही = पकड़ ली।1। रहाउ। दारा = स्त्री। पूत = पुत्र। रथ = गाड़ियां। संपति = माल असबाब। सभ मही = सारी धरती। अवर = और। सगल = सारा। मिथिआ = नाशवंत। जानहु = समझो। को = का। सही = ठीक, साथ निभाने वाला, असल साथी।1। जुग = जुगों में। हारिओ = थक गया। मानस देह = मानस शरीर। लही = मिला। बरीआ = बारी। कहा नही = क्यों नही?।2। अर्थ: ( हे भाई! देखो, माया धारी के दुर्भाग्य! उस के) मन की आस मन में ही रह गई। ना उसने परमात्मा का भजन किया, ना ही उसने संतजनों की सेवा की, और, मौत ने चोटी आ पकड़ी।1। रहाउ। हे भाई! स्त्री, मित्र, पुत्र, गाड़ियां, माल असबाब, धन पदार्थ, सारी ही धरती - ये सब कुछ नाशवंत समझो। परमात्मा का भजन (ही) असल (साथी) है।1। हे भाई! कई युग (जोनियों में) भटक-भटक के तू थक गया था। (अब) तुझे मनुष्य का शरीर मिला है। नानक कहता है– (हे भाई! परमात्मा को) मिलने की यही बारी है, अब तू सिमरन क्यों नहीं करता?।2।2। सोरठि महला ९ ॥ मन रे कउनु कुमति तै लीनी ॥ पर दारा निंदिआ रस रचिओ राम भगति नहि कीनी ॥१॥ रहाउ ॥ मुकति पंथु जानिओ तै नाहनि धन जोरन कउ धाइआ ॥ अंति संग काहू नही दीना बिरथा आपु बंधाइआ ॥१॥ ना हरि भजिओ न गुर जनु सेविओ नह उपजिओ कछु गिआना ॥ घट ही माहि निरंजनु तेरै तै खोजत उदिआना ॥२॥ बहुतु जनम भरमत तै हारिओ असथिर मति नही पाई ॥ मानस देह पाइ पद हरि भजु नानक बात बताई ॥३॥३॥ {पन्ना 631-632} पद्अर्थ: कुमति = बुरी मति। दारा = स्त्री। रासि = रस में। रचिओ = मस्त है। रहाउ। मुकति पंथु = (इन) विकारों से खलासी का रास्ता। नाहनि = नहीं। धाइआ = दौड़ा फिरता है। संग = साथ। काहू = किसी ने भी। बिरथा = व्यर्थ ही। आपु = अपने आप को।1। गिआना = आत्मिक जीवन की सूझ। घट = हृदय। तेरै घट ही माहि = तेरे हृदय में ही। उदिआना = जंगल।2। तै हारिओ = तूने (मानस जनम की बाजी) हार ली है। असथिर = अडोलता में रखने वाली। मानस देह पद = मानस शरीर का दर्जा। पाइ = पा के। नानक = हे नानक!।3। अर्थ: हे मन! तूने कैसी कुबुद्धि ले ली है? तू पराई स्त्री, पराई निंदा के रस में मस्त रहता है। परमात्मा की भक्ति तूने (कभी) नहीं की।1। रहाउ। हे भाई! तूने विकारों से खलासी पाने का रास्ता (अभी तक) नहीं समझा, धन एकत्र करने के लिए तू सदा दौड़-भाग करता रहा है। (दुनिया के पदार्थों में से) किसी ने भी आखिर में किसी का साथ नहीं दिया। तूने व्यर्थ ही अपने आप को (माया के मोह में) जकड़ रखा है।1। हे भाई! (अभी तक) ना तूने परमात्मा की भक्ति की है, ना गुरू की शरण पड़ा है, ना ही तेरे अंदर आत्मिक जीवन की सूझ आई है। माया से निर्लिप प्रभू तेरे हृदय में बस रहा है, पर तू (बाहर) जंगलों में उसे तलाश रहा है।2। हे भाई! अनेकों जन्मों में भटक-भटक के तूने (मनुष्य जन्म की बाजी) हार ली है, तूने ऐसी अक्ल नहीं सीखी जिसकी बरकति से (जन्मों के चक्करों में से) तुझे अडोलता हासिल हो सके। हे नानक! (कह– हे भाई! गुरू ने तो ये) बात समझाई है कि मानस जन्म का (ऊँचा) दर्जा हासिल करके परमात्मा का भजन कर।3।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |