श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 632 सोरठि महला ९ ॥ मन रे प्रभ की सरनि बिचारो ॥ जिह सिमरत गनका सी उधरी ता को जसु उर धारो ॥१॥ रहाउ ॥ अटल भइओ ध्रूअ जा कै सिमरनि अरु निरभै पदु पाइआ ॥ दुख हरता इह बिधि को सुआमी तै काहे बिसराइआ ॥१॥ जब ही सरनि गही किरपा निधि गज गराह ते छूटा ॥ महमा नाम कहा लउ बरनउ राम कहत बंधन तिह तूटा ॥२॥ अजामलु पापी जगु जाने निमख माहि निसतारा ॥ नानक कहत चेत चिंतामनि तै भी उतरहि पारा ॥३॥४॥ {पन्ना 632} पद्अर्थ: बिचारो = (परमात्मा के नाम का) ध्यान धर। जिह सिमरत = जिसको सिमरते हुए। गनका = वेश्वा (देखें भाई गुरदास जी की वार दसवीं) किसी संत ने इसे एक तोता दिया था, जो ‘राम राम’ उचारता था। उससे ‘राम राम’ सिमरन की लगन इस वेश्वा को भी लग गई थी। उर = हृदय में।1। रहाउ। ध्रूअ = ध्रुव (देखें भाई गुरदास जी की वार दसवीं) राजा उक्तानपाद का पुत्र। सौतेली माँ द्वारा अपमान से उपराम हो के जंगल में भक्ति करने लगा, और सदा के लिए अटल शोभा कमा ली। सिमरन = सिमरन से। निरभै पदु = निर्भयता का आत्मिक दर्जा। इह बिधि को = इस तरह की। हरता = दूर करने वाला। काहे = क्यों?।1। गही = पकड़ी। गज = हाथी (देखें भाई गुरदास जी की वार दसवीं) एक गंधर्व श्राप के कारण हाथी की जूनि में जा पड़ा था। जब ये वरुण के तालाब में घुसा, तो एक तेंदुए ने उसे पकड़ लिया। राम = नाम की बरकति से तेंदुए के पंजे से बचा।2। अजामलु = कनौज का एक वैश्वागामी ब्राहमण। किसी महात्मा के कहने पर इसने अपने एक पुत्र का नाम ‘नारायण’ रखा। वहीं से ‘नारायण’ का सिमरन करने की लगन लग गई, और, विकारों से बच निकला। चेत = सिमर। चिंतामन = परमात्मा, वह मणि जो हरेक चितवनी पूरी करती है।3। अर्थ: हे मन! परमात्मा की शरण पड़ कर उसके नाम का ध्यान धरा कर। जिस परमात्मा का सिमरन करके गनिका (विकारों में डूबने से) बच गई थी तू भी, (हे भाई!) उसकी सिफत सालाह अपने दिल में बसाए रख। रहाउ। हे भाई! जिस परमात्मा के सिमरन से ध्रूव सदा के लिए अटल हो गया है और उसने निर्भयता का आत्मिक दर्जा हासिल कर लिया था, तूने उस परमात्मा को क्यों भुलाया हुआ है, वह तो इस तरह के दुखों का नाश करने वाला है।1। हे भाई! जिस वक्त ही (हाथी ने) कृपा के समुंद्र परमात्मा का आसरा लिया वह हाथी (गज) तेंदुए की पकड़ से निकल गया। मैं कहाँ तक परमात्मा के नाम की वडिआई बताऊँ? परमात्मा का नाम उचार के उस (हाथी) के बंधन टूट गए थे।2। हे भाई! सारा जगत जानता है कि अजामल विकारी था (परमात्मा के नामका सिमरन करके) पलक झपकने जितने समय में ही उसका पार-उतारा हो गया था। नानक कहता है– (हे भाई! तू) सारी चितवनियां पूरी करने वाले परमात्मा का नाम सिमरा कर। तू भी (संसार समुंद्र से) पार लांघ जाएगा।3।4। सोरठि महला ९ ॥ प्रानी कउनु उपाउ करै ॥ जा ते भगति राम की पावै जम को त्रासु हरै ॥१॥ रहाउ ॥ कउनु करम बिदिआ कहु कैसी धरमु कउनु फुनि करई ॥ कउनु नामु गुर जा कै सिमरै भव सागर कउ तरई ॥१॥ कल मै एकु नामु किरपा निधि जाहि जपै गति पावै ॥ अउर धरम ता कै सम नाहनि इह बिधि बेदु बतावै ॥२॥ सुखु दुखु रहत सदा निरलेपी जा कउ कहत गुसाई ॥ सो तुम ही महि बसै निरंतरि नानक दरपनि निआई ॥३॥५॥ {पन्ना 632} पद्अर्थ: कउनु उपाउ = कौन सा उपाय? जा ते = जिससे। को = का। त्रासु = डर। हरै = दूर कर लिए।1। कउनु करम = कौन सा कर्म? कहु = बताओ। करई = करे। कउनु नाम गुर = गुरू का कौन सा नाम? जा कै सिमरै = जिसके सिमरन से। कउ = को। तरई = पार लांघ जाए।1। कल मह = कलियुग में, जगत में। किरपा निधि नामु = कृपा के खजाने प्रभू का नाम। जाहि = जिसे। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। सम = बराबर। नाहिन = नही। बिधि = युक्ति।2। सुख दुख रहत = सुखों दुखो से अलग। जा कउ = जिस को। गुसाई = धरती का पति। निरंतरि = एक रस, बिना दूरी के। दरपन निआई = शीशे की तरह।3। अर्थ: (हे भाई! बता) मनुष्य वह कौन से उपाय करे जिससे परमात्मा की भक्ति प्राप्त कर सके, और जम का डर दूर कर सके।1। रहाउ। (हे भाई!) बता, वह कौन से (धार्मिक) कर्म हैं, वह कैसी विद्या है, वह कौन सा धर्म है (जो मनुष्य) करे; वह कौन सा गुरू का (बताया) नाम है जिसका सिमरन करने से मनुष्य संसार समुंद्र से पार लांघ सकता है।1। (हे भाई!) कृपा के खजाने परमात्मा का नाम ही जगत में है जिसको (जो मनुष्य) जपता है (वह) उच्च आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है। और किसी तरह के भी कोई कर्म उस (नाम) के बराबर नहीं हें- वेद (भी) यह युक्ति बताता है।2। हे नानक! (कह– हे भाई!) जिसे (जगत) धरती का पति (गोसाई) कहता है वह सुखों दुखों से अलग रहता है, वह सदा (माया से) निर्लिप रहता है। वह तेरे अंदर भी एक रस बस रहा है, जैसे शीशे (में अक्स बसता हैं उसका सदा सिमरन करना चाहिए)।3।5। सोरठि महला ९ ॥ माई मै किहि बिधि लखउ गुसाई ॥ महा मोह अगिआनि तिमरि मो मनु रहिओ उरझाई ॥१॥ रहाउ ॥ सगल जनम भरम ही भरम खोइओ नह असथिरु मति पाई ॥ बिखिआसकत रहिओ निस बासुर नह छूटी अधमाई ॥१॥ साधसंगु कबहू नही कीना नह कीरति प्रभ गाई ॥ जन नानक मै नाहि कोऊ गुनु राखि लेहु सरनाई ॥२॥६॥ {पन्ना 632} पद्अर्थ: माई = हे माँ! किहि बिधि = किस तरह? लखउ = मैं पहचानूँ। अगिआनी = अज्ञान में। तिमरि = अंधेरे में। मो मनु = मेरा मन।1। भरम ही = भरमि ही (शब्द ‘भ्रमि’ की ‘ि’ मात्रा क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण हटा दी गई है) भटकन ही। खोइओ = गवा लिया है। असथिरु = अडोल रहने वाली। बिखिआसकत = (बिखिया+आस्तक) माया में लंपट। निस = रात। बासुर = दिन। अधमाई = नीचता।1। संगु = साथ, मेल मिलाप, संगति। कीरति = सिफत सालाह। प्रभ = प्रभू की।2। अर्थ: हे माँ! धरती के प्रभू-पति को मैं किस तरह पहचानूँ? मेरा मन (तो) बड़े मोह भरी अग्यानता में, मोह के अँधेरे में (सदा) फसा रहता है।1। रहाउ। बहुत जनमों में (अभी तक ऐसी) मति नहीं हासिल की (जो मुझे) अडोल रख सके। दिन-रात मैं माया में ही लिपटा रहता हूँ। मेरी ये नीचता खत्म होने को नहीं आती।1। हे माँ! मैंने कभी गुरमुखों की संगति नहीं की, मैंने कभी परमात्मा के सिफत सालाह का गीत नहीं गाया। हे दास नानक! (कह– हे प्रभू!) मेरे अंदर कोई गुण नहीं है। मुझे अपनी शरण में रख।2।6। सोरठि महला ९ ॥ माई मनु मेरो बसि नाहि ॥ निस बासुर बिखिअन कउ धावत किहि बिधि रोकउ ताहि ॥१॥ रहाउ ॥ बेद पुरान सिम्रिति के मत सुनि निमख न हीए बसावै ॥ पर धन पर दारा सिउ रचिओ बिरथा जनमु सिरावै ॥१॥ मदि माइआ कै भइओ बावरो सूझत नह कछु गिआना ॥ घट ही भीतरि बसत निरंजनु ता को मरमु न जाना ॥२॥ जब ही सरनि साध की आइओ दुरमति सगल बिनासी ॥ तब नानक चेतिओ चिंतामनि काटी जम की फासी ॥३॥७॥ {पन्ना 632} पद्अर्थ: माई = हे माँ! मेरो = मेरा। बसि = वश में। निस = रात। बासुर = दिन। बिखिअन कउ = विषियों की खातिर। धावत = दौड़ता है। किहि बिधि = किस तरीके से? रोकउ = रोकूँ। ताहि = उसको।1। रहाउ। के = का। मत = उपदेश, ख्याल। निमख = आँख झपकने जितना समय। हीऐ = हृदय में। दारा = स्त्री। सिउ = साथ। सिरावै = गुजारता है।1। मदि = नशे में। बावरो = कमला, झल्ला। गिआना = आत्मिक जीवन की समझ। भीतरि = में। मरमु = भेद। को = का।2। साध = गुरू। दुरमति = बुरी मति। सगल = सारी। चिंतामनि = चितवा हुआ पूरी करने वाली मणि, परमात्मा। फासी = फंदा।3। अर्थ: हे माँ! मेरा मन मेरे काबू में नहीं। रात-दिन पदार्थों की खातिर दौड़ता फिरता है। मैं इसे कैसे रोकूँ?।1। रहाउ। ये जीव वेदों-पुराणों-स्मृतियों का उपदेश सुन के (भी) रक्ती भर समय के लिए भी (उस उपदेश को अपने) हृदय में नहीं बसाता। पराए धन, पराई स्त्री के मोह में मस्त रहता है, (इस तरह अपना) जनम व्यर्थ गुजारता है।1। जीव माया के नशे में पागल हो रहा है, आत्मिक जीवन के बारे में इसे कोई सूझ नहीं आती। माया से निर्लिप प्रभू इसके दिल में ही बसता है पर ये भेद ये जीव नहीं समझता।2। जब जीव गुरू की शरण पड़ता है, तब इसकी सारी कोझी मति नाश हो जाती है। तब, हे नानक! ये सारी मनोकामनाएं पूरी करने वाले परमात्मा को सिमरता है, और, इसकी जम की फाही (भी) काटी जाती है।3।7। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |