श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सोरठि महला ९ ॥ रे नर इह साची जीअ धारि ॥ सगल जगतु है जैसे सुपना बिनसत लगत न बार ॥१॥ रहाउ ॥ बारू भीति बनाई रचि पचि रहत नही दिन चारि ॥ तैसे ही इह सुख माइआ के उरझिओ कहा गवार ॥१॥ अजहू समझि कछु बिगरिओ नाहिनि भजि ले नामु मुरारि ॥ कहु नानक निज मतु साधन कउ भाखिओ तोहि पुकारि ॥२॥८॥ {पन्ना 633}

पद्अर्थ: साची = अटल, सदा कायम रहने वाली। जीअ = दिल में। धारि = टिका ले। सगल = सारा। बिनसत = नाश होते। बार = देर।1। रहाउ।

बारू = रेत। भीति = दीवार। रचि = रच के, उसार के। पचि = पोच के। उरझिओ = मस्त होया। कहा = क्यों? गवार = हे मूर्ख!।1।

अजहू = अब भी। नाहिनि = नहीं। मुरारि = (मुर+अरि) परमात्मा। कहु = कह। निज = अपना। मतु = ख्याल। को = का। तोहि = तुझे। पुकारि = पुकार के।2।

अर्थ: हे मनुष्य! अपने दिल में ये बात पक्की तरह टिका ले, (कि) सारा संसार सपने जैसा है, (इसके) नाश होने में देर नहीं लगती।1। रहाउ।

हे भाई! (जैसे किसी ने) रेत की दीवार खड़ी करके पोच के तैयार की हो, पर वह दीवार चार दिन भी (टिकी) नहीं रहती। इस माया के सुख भी उस (रेत की दीवार) जैसे ही हैं। हे मूर्ख! तू इन सुखों में क्यों मस्त हो रहा है?।1।

हे भाई! अभी भी समझ जा (अभी) कुछ नहीं बिगड़ा; और परमात्मा का नाम सिमरा कर। हे नानक! कह– (हे भाई!) मैं तुझे गुरमुखों का यह निजी ख्याल पुकार के सुना रहा हूँ।2।8।

सोरठि महला ९ ॥ इह जगि मीतु न देखिओ कोई ॥ सगल जगतु अपनै सुखि लागिओ दुख मै संगि न होई ॥१॥ रहाउ ॥ दारा मीत पूत सनबंधी सगरे धन सिउ लागे ॥ जब ही निरधन देखिओ नर कउ संगु छाडि सभ भागे ॥१॥ कहंउ कहा यिआ मन बउरे कउ इन सिउ नेहु लगाइओ ॥ दीना नाथ सकल भै भंजन जसु ता को बिसराइओ ॥२॥ सुआन पूछ जिउ भइओ न सूधउ बहुतु जतनु मै कीनउ ॥ नानक लाज बिरद की राखहु नामु तुहारउ लीनउ ॥३॥९॥ {पन्ना 633}

पद्अर्थ: जगि = जगत में। सुखि = सुख में। संगि = साथ।1। रहाउ।

दारा = स्त्री। सनबंधी = रिश्तेदार। सगरे = सारे। सिउ = साथ। निरधन = कंगाल। कउ = को। संगु = साथ। छाडि = छोड़ के। सभि = सारे।1।

कहंउ कहा = मैं क्या कहूँ? यिआ मन कउ = इस मन को। दीना नाथ = गरीबों का पति। सकल = सारे। भै = (‘भउ’ का बहुवचन)। भै भंजन = डरों का नाश करने वाला। ता को = उसका।2।

सुआन पूछ = कुत्ते की पूँछ। सूधउ = सीधी। मै कीनउ = मैंने की। बिरद = ईश्वरीय मूल प्यार वाला स्वभाव। लीनउ = मैं ले सकता हूँ।3।

अर्थ: हे भाई! इस जगत में कोई (आखिर तक साथ निभाने वाला) मित्र (मैंने) नहीं देखा। सारा संसार अपने सुख में ही जुटा हुआ है। दुख में (कोई किसी के) साथ (साथी) नहीं बनता।1। रहाउ।

हे भाई! स्त्री-मित्र-पुत्र-रिश्तेदार- ये सारे धन से (ही) प्यार करते हैं। जब ही इन्होंने मनुष्य को कंगाल देखा, (तभी) साथ छोड़ के भाग जाते हैं।1।

हे भाई! मैं इस पागल मन को क्या समझाऊँ? (इसने) इन (कच्चे साथियों) के साथ प्यार डाला हुआ है। (जो परमात्मा) गरीबों का रखवाला और सारे डर नाश करने वाला है उसकी सिफत सालाह (इसने) भुलाई हुई है।2।

हे भाई! जैसे कुत्ते की पूँछ सीधी नहीं होती (इसी तरह इस मन की परमात्मा की याद के प्रति लापरवाही हटती नहीं) मैंने बहुत यत्न किया है। हे नानक! (कह– हे प्रभू! अपने) बिरदु भरे प्यार वाले स्वभाव की लाज रख (मेरी मदद कर, तो ही) मैं तेरा नाम जप सकता हूँ।3।9।

सोरठि महला ९ ॥ मन रे गहिओ न गुर उपदेसु ॥ कहा भइओ जउ मूडु मुडाइओ भगवउ कीनो भेसु ॥१॥ रहाउ ॥ साच छाडि कै झूठह लागिओ जनमु अकारथु खोइओ ॥ करि परपंच उदर निज पोखिओ पसु की निआई सोइओ ॥१॥ राम भजन की गति नही जानी माइआ हाथि बिकाना ॥ उरझि रहिओ बिखिअन संगि बउरा नामु रतनु बिसराना ॥२॥ रहिओ अचेतु न चेतिओ गोबिंद बिरथा अउध सिरानी ॥ कहु नानक हरि बिरदु पछानउ भूले सदा परानी ॥३॥१०॥ {पन्ना 633}

पद्अर्थ: गहिओ = पकड़ा, ग्रहण किया। कहा भइओ = क्या हुआ? मूडु = सिर। भेसु = भेष।1। रहाउ।

साच = सदा स्थिर हरी नाम। झूठह = नाशवंत (पदार्थों) में। अकारथु = व्यर्थ। परपंच = पाखण्ड, छल। उदर निज = अपना पेट। पोखिओ = पाला। पसु की निआई = पशुओं की तरह।1।

गति = जुगति। हाथि = हाथ में। उरझि रहिओ = मगन रहा। बिखिअन संगि = मायावी पदार्थों के साथ।2।

अचेतु = गाफिल। अउध = अवधि, उम्र। सिरानी = गुजार दी। हरि = हे हरी! बिरदु = मूल प्यार भरा स्वभाव। परानी = प्राणी, जीव।3।

अर्थ: हे मन! तू गुरू की शिक्षा ग्रहण नहीं करता। (हे भाई! गुरू का उपदेश भुला के) अगर सिर भी मुनवा लिया, और, भगवे रंग के कपड़े पहन लिए, तो भी क्या बना? (आत्मिक जीवन का कुछ भी ना हो सँवरा)।1। रहाउ।

(हे भाई! भगवा भेष तो धार लिया, पर) सदा-स्थिर प्रभू का नाम छोड़ के नाशवंत पदार्थों में ही सुरति जोड़े रखी, (लोगों से) छल करके अपना पेट पालता रहा, और, पशुओं की तरह सोया रहा।1।

हे भाई! (गाफिल मनुष्य) परमात्मा के भजन की जुगति नहीं समझता, माया के हाथ में बिका रहता है। पागल मनुष्य मायावी पदार्थों (के मोह) में मगन रहता है, और, प्रभू के (श्रेष्ठ) रत्न-नाम को भुलाए रखता है।2।

(मनुष्य माया में फस के) बेसुध हुआ रहता है, परमात्मा को याद नहीं करता, सारी उम्र व्यर्थ गुजार लेता है। हे नानक! कह– हे हरी! तू अपने बिरद भरे प्यार वाले मूल स्वभाव को याद रख। ये जीव तो सदा भूले ही रहते हैं।3।10।

सोरठि महला ९ ॥ जो नरु दुख मै दुखु नही मानै ॥ सुख सनेहु अरु भै नही जा कै कंचन माटी मानै ॥१॥ रहाउ ॥ नह निंदिआ नह उसतति जा कै लोभु मोहु अभिमाना ॥ हरख सोग ते रहै निआरउ नाहि मान अपमाना ॥१॥ आसा मनसा सगल तिआगै जग ते रहै निरासा ॥ कामु क्रोधु जिह परसै नाहनि तिह घटि ब्रहमु निवासा ॥२॥ गुर किरपा जिह नर कउ कीनी तिह इह जुगति पछानी ॥ नानक लीन भइओ गोबिंद सिउ जिउ पानी संगि पानी ॥३॥११॥ {पन्ना 633}

पद्अर्थ: दुख मै = दुखों में (घिरे हुए भी)। नही मानै = नहीं घबराता। सुख सनेहु = सुखों का मोह। भै = (‘भउ’ का बहुवचन)। जा कै = जिस के मन में। कंचन = सोना।1। रहाउ।

निंदिआ = चुगली, बुराई। उसतति = खुशमद। हरख सोग ते = खुशी ग़मी से। मान = आदर। अपमाना = निरादरी।1।

मनसा = मनीषा, मनोकामना। ते = से। परसै = छूता। तिह घटि = उसके हृदय में। ब्रहमु निवासा = परमात्मा का निवास।2।

गुर = गुरू ने। जिह नर कउ = जिस मनुष्य पर। तिह = उसने। सिउ = से, में। संगि = साथ।3।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य दुखों में घबराता नहीं, जिस मनुष्य के हृदय में सुखों से मोह नहीं, और (किसी किस्म का) डर नहीं, जो मनुष्य सोने को मिट्टी (के समान) समझता है (उसके अंदर परमात्मा का निवास हो जाता है)।1। रहाउ।

हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर किसी की चुगली-बुराई नहीं, किसी की खुशमद नहीं, जिसके अंदर ना लोभ है, ना मोह है, ना अहंकार है; जो मनुष्य खुशी और ग़मी से निर्लिप रहता है, जिस पर ना आदर असर कर सकता है ना निरादरी (ऐसे मनुष्य के दिल में परमात्मा का निवास हो जाता है)।1।

हे भाई! जो मनुष्य आशाएं-उम्मीदें सब त्याग देता है, जगत से निर्मोह रहता है, जिस मनुष्य को ना काम-वासना छू सकती है ना ही क्रोध छू सकता है, उस मनुष्य के दिल में परमात्मा का निवास हो जाता है।2।

(पर) हे नानक! (कह–) जिस मनुष्य पर गुरू ने मेहर की उसने (ही जीवन की) ये जाच समझी है। वह मनुष्य परमात्मा के साथ ऐसे एक-मेक हो जाता है, जैसे पानी के साथ पानी मिल जाता है।3।11।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh