श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गुर परसादी भउ पइआ वडभागि वसिआ मनि आइ ॥ भै पइऐ मनु वसि होआ हउमै सबदि जलाइ ॥ {पन्ना 645}

अर्थ: बड़े भाग्यों से सतिगुरू की कृपा से भउ उपजता है और मन में आ के बसता है; (हरी का) भय उपजते ही, और अहंकार सतिगुरू के शबद से जला के मन वश में आता है।

सचि रते से निरमले जोती जोति मिलाइ ॥ सतिगुरि मिलिऐ नाउ पाइआ नानक सुखि समाइ ॥२॥ {पन्ना 645}

अर्थ: जो मनुष्य ज्योति रूपी प्रभू में अपनी बिरती मिला के सच्चे में रंगे गए हैं, वे निर्मल हो गए हैं; (पर) हे नानक! सतिगुरू के मिलने से ही नाम मिलता है और सुख में समाई होती है।2।

पउड़ी ॥ एह भूपति राणे रंग दिन चारि सुहावणा ॥ एहु माइआ रंगु कसु्मभ खिन महि लहि जावणा ॥ चलदिआ नालि न चलै सिरि पाप लै जावणा ॥ {पन्ना 645}

पद्अर्थ: भूपति = राजा। सिरि = सिर पर।

अर्थ: राजाओं और रानियों के ये रंग चार दिनों (अर्थात, थोड़े समय) तक ही शोभायमान रहते हैं; माया का ये रंग कुसंभ का रंग है (भाव, कुसंभ की तरह छण-भंगुर है), छिन-मात्र में उतर जाएगा, (संसार से) चलने के वक्त माया साथ नहीं जाती, (पर इसके कारण किए) पाप अपने सिर ले लिए जाते हैं।

जां पकड़ि चलाइआ कालि तां खरा डरावणा ॥ ओह वेला हथि न आवै फिरि पछुतावणा ॥६॥ {पन्ना 645}

अर्थ: जब जम-काल ने पकड़ के आगे लगा लिया, तो (जीव) बहुत भय-भीत होता है; (मनुष्य-जन्म वाला) वह समय फिर नहीं मिलता, इसलिए पछताता है।6।

सलोकु मः ३ ॥ सतिगुर ते जो मुह फिरे से बधे दुख सहाहि ॥ फिरि फिरि मिलणु न पाइनी जमहि तै मरि जाहि ॥ सहसा रोगु न छोडई दुख ही महि दुख पाहि ॥ नानक नदरी बखसि लेहि सबदे मेलि मिलाहि ॥१॥ {पन्ना 645}

पद्अर्थ: मुह फिरे = (मुहफिरा = वह मनुष्य जिसने मुँह मोड़ा हुआ हो) मनमुख।

अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरू की ओर से मनमुख हैं, वह (अंत में) बँधे दुख सहते हैं, प्रभू को मिल नहीं सकते, बार-बार पैदा होते मरते रहते हैं; उन्हें चिंता का रोग कभी नहीं छोड़ता, सदा दुखी ही रहते है। हे नानक! कृपा-दृष्टि वाला प्रभू अगर उन्हें बख्श ले तो सतिगुरू के शबद के द्वारा उस में मिल जाते हैं।1।

मः ३ ॥ जो सतिगुर ते मुह फिरे तिना ठउर न ठाउ ॥ जिउ छुटड़ि घरि घरि फिरै दुहचारणि बदनाउ ॥ नानक गुरमुखि बखसीअहि से सतिगुर मेलि मिलाउ ॥२॥ {पन्ना 645}

पद्अर्थ: बखसीअहि = बख्शे जाते हैं।

अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरू से मनमुख हैं उनका ना ठौर ना ठिकाना; वे व्यभचारिन छॅुटड़ स्त्री की भांति हैं, जो घर-घर में बदनाम होती फिरती है। हे नानक! जो गुरू के सन्मुख हो के बख्शे जाते हैं, वे सतिगुरू की संगति में मिल जाते हैं।2।

पउड़ी ॥ जो सेवहि सति मुरारि से भवजल तरि गइआ ॥ जो बोलहि हरि हरि नाउ तिन जमु छडि गइआ ॥ से दरगह पैधे जाहि जिना हरि जपि लइआ ॥ हरि सेवहि सेई पुरख जिना हरि तुधु मइआ ॥ गुण गावा पिआरे नित गुरमुखि भ्रम भउ गइआ ॥७॥ {पन्ना 645}

अर्थ: जो मनुष्य सच्चे हरी को सेवते हैं, वे संसार समुंद्र को पार कर लेते हैं; जो मनुष्य हरी का नाम सिमरते हैं, उन्हें जम छोड़ जाता है; जिन्होंने हरी का नाम जपा है, उन्हें दरगाह में आदर मिलता है; (पर) हे हरी! जिन पर तेरी मेहर होती है, वही मनुष्य तेरी भक्ति करते हैं। सतिगुरू के सन्मुख हो के भ्रम और डर दूर हो जाते हैं, (मेहर कर) हे प्यारे! मैं भी सदा तेरे गुण गाऊँ।7।

सलोकु मः ३ ॥ थालै विचि तै वसतू पईओ हरि भोजनु अम्रितु सारु ॥ जितु खाधै मनु त्रिपतीऐ पाईऐ मोख दुआरु ॥ {पन्ना 645}

अर्थ: जिस हृदय-रूपी थाल में (सत्य-संतोष और विचार) तीन चीजें पड़ी हैं, उस हृदय-थाल में श्रेष्ठ अमृत भोजन हरी का नाम (परोसा जाता) है, जिस के खाने से मन अघा जाता है और विकारों से खलासी का दर प्राप्त होता है।

इहु भोजनु अलभु है संतहु लभै गुर वीचारि ॥ {पन्ना 645}

अर्थ: हे संत जनो! ये भोजन दुर्लभ है, सतिगुरू की (बताई हुई) विचार से मिलता है।

एह मुदावणी किउ विचहु कढीऐ सदा रखीऐ उरि धारि ॥ एह मुदावणी सतिगुरू पाई गुरसिखा लधी भालि ॥ {पन्ना 645}

पद्अर्थ: मुदावणी = आत्मिक प्रसन्नता देने वाली वस्तु (नाम)।

अर्थ: आत्मिक आनंद देने वाली इस (सिफत सालाह की आत्मिक खुराक की बात) गुरू ने बताई है, गुरू के सिखों ने खोज के पा ली है। इसको सदैव अपने दिल में संभाल के रखना चाहिए; ये भूलनी नहीं चाहिए।

नानक जिसु बुझाए सु बुझसी हरि पाइआ गुरमुखि घालि ॥१॥ {पन्ना 645}

अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य को (इसकी) समझ देता है वह समझता है, और वह सतिगुरू के सन्मुख हो के मेहनत से हरी को मिलता है।1।

नोट: इस शलोक की व्याख्या गुरू अर्जुन देव जी ने मुदावणी महला ५ में की है।

मः ३ ॥ जो धुरि मेले से मिलि रहे सतिगुर सिउ चितु लाइ ॥ आपि विछोड़ेनु से विछुड़े दूजै भाइ खुआइ ॥ नानक विणु करमा किआ पाईऐ पूरबि लिखिआ कमाइ ॥२॥ {पन्ना 645}

पद्अर्थ: विछोड़ेनु = विछोड़े उस (हरी) ने।

अर्थ: हरी ने जो धुर से मिलाए हैं, वही मनुष्य सतिगुरू से चिक्त जोड़ के (हरी में) लीन हुए हैं; (पर) जो उस हरी ने खुद विछोड़े हैं, वे माया के मोह में (फस के) विछुड़ चुके हरी से विछड़े हुए हैं। हे नानक! की हुई कमाई के बिना कुछ नहीं मिलता, आरम्भ से (किए कर्मों के अनुसार) उकरे हुए (संस्कार-रूपी लेखों की कमाई) कमानी पड़ती है।2।

पउड़ी ॥ बहि सखीआ जसु गावहि गावणहारीआ ॥ हरि नामु सलाहिहु नित हरि कउ बलिहारीआ ॥ जिनी सुणि मंनिआ हरि नाउ तिना हउ वारीआ ॥ गुरमुखीआ हरि मेलु मिलावणहारीआ ॥ हउ बलि जावा दिनु राति गुर देखणहारीआ ॥८॥ {पन्ना 645}

अर्थ: हरी की सिफत सालाह करने वाली (संत-जन रूप) सहेलियां इकट्ठी बैठ के स्वयं हरी का यश गाती हैं, हरी से सदके जाती हैं (औरों को शिक्षा देती हैं कि) ‘सदा हरी के नाम की उपमा करो’ मैं सदके हूँ जिन्होंने सुन के हरी का नाम माना है, उन हरी को मिलाने वाली गुरमुख सहेलियों से मैं सदके हूँ; सतिगुरू के दर्शन करने वालियों से मैं दिन-रात बलिहारे जाता हूँ।8।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh