श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोकु मः ३ ॥ विणु नावै सभि भरमदे नित जगि तोटा सैसारि ॥ मनमुखि करम कमावणे हउमै अंधु गुबारु ॥ गुरमुखि अम्रितु पीवणा नानक सबदु वीचारि ॥१॥ {पन्ना 646}

पद्अर्थ: जगि = जगत में। तोटा = घाटा। संसारि = संसार में। सभि = सारे जीव।

अर्थ: नाम के बिना सारे लोग भटकते फिरते हैं; उनको संसार में सदा घाटा ही घाटा है; हे नानक! मनमुख तो अहंकार के आसरे ऐसे कर्म कमाते हैं जो घोर अंधकार पैदा करते हैं। पर सतिगुरू के सन्मुख जीव शबद को विचार के आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीते हैं।1।

मः ३ ॥ सहजे जागै सहजे सोवै ॥ गुरमुखि अनदिनु उसतति होवै ॥ {पन्ना 646}

अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरू के सन्मुख होता है वह आत्मिक अडोलता में ही जागता है और आत्मिक अडोलता में ही सोता है (भाव, जागते हुए हरी में लीन और सोते हुए भी हरी में लीन रहता है) उसे हर रोज (भाव, हर वक्त) हरी की उस्तति (का ही आहर होता) है।

मनमुख भरमै सहसा होवै ॥ अंतरि चिंता नीद न सोवै ॥ {पन्ना 646}

अर्थ: मनमुख भटकता है, क्योंकि उसे सदा तौखला रहता है; मन में चिंता होने के कारण वह (सुख की) नींद नहीं सोता।

गिआनी जागहि सवहि सुभाइ ॥ नानक नामि रतिआ बलि जाउ ॥२॥ {पन्ना 646}

अर्थ: प्रभू के साथ गहरी सांझ रखने वाले बँदे प्रभू के प्यार में ही जागते सोते हैं (भाव, जागते-सोते हुए एक-रस रहते हैं)। हे नानक! मैं नाम में रंगे हुओं से सदके हूँ।2।

पउड़ी ॥ से हरि नामु धिआवहि जो हरि रतिआ ॥ हरि इकु धिआवहि इकु इको हरि सतिआ ॥ हरि इको वरतै इकु इको उतपतिआ ॥ जो हरि नामु धिआवहि तिन डरु सटि घतिआ ॥ गुरमती देवै आपि गुरमुखि हरि जपिआ ॥९॥ {पन्ना 646}

पद्अर्थ: सतिआ = सत्य, सदा स्थिर रहने वाला।

अर्थ: जो मनुष्य हरी में रंगे हुए हैं, वे उसका नाम सिमरते हैं; उस एक हरी को ध्याते हैं, जो सदा कायम रहने वाला है जो एक खुद हर जगह में व्यापक है और जिस एक ने ही (सारी सृष्टि) पैदा की है। जो मनुष्य नाम सिमरते हैं, उन्होंने सारा डर दूर कर दिया है। पर, वही गुरमुख नाम सिमरता है जिसे प्रभू खुद गुरू की मति के द्वारा ये दाति देता है।9।

सलोक मः ३ ॥ अंतरि गिआनु न आइओ जितु किछु सोझी पाइ ॥ विणु डिठा किआ सालाहीऐ अंधा अंधु कमाइ ॥ नानक सबदु पछाणीऐ नामु वसै मनि आइ ॥१॥ {पन्ना 646}

पद्अर्थ: जितु = जिस (ज्ञानी) से।

अर्थ: जिस ज्ञान से कुछ समझ पड़नी थी वह ज्ञान तो अंदर प्रकट नहीं हुआ, फिर जिस (हरी) को देखा नहीं उसकी उस्तति कैसे हो? ज्ञान-हीन मनुष्य अज्ञानता की कमाई ही करता है। हे नानक! अगर सतिगुरू के शबद को पहचाने तो हरी का नाम मन में आ बसता है।1।

मः ३ ॥ इका बाणी इकु गुरु इको सबदु वीचारि ॥ सचा सउदा हटु सचु रतनी भरे भंडार ॥ गुर किरपा ते पाईअनि जे देवै देवणहारु ॥ {पन्ना 646}

पद्अर्थ: इका, इकु इको = केवल, सिर्फ।

अर्थ: केवल बाणी ही प्रामाणिक गुरू है, गुरू के शबद को ही विचारो- यही सदा-स्थिर रहने वाला सौदा है, यही सच्ची हाट है जिसमें रत्नों के भण्डार भरे पड़े हैं, अगर देने वाला (हरी) दे तो (ये खजाने) सतिगुरू की कृपा से मिलते हैं।

सचा सउदा लाभु सदा खटिआ नामु अपारु ॥ विखु विचि अम्रितु प्रगटिआ करमि पीआवणहारु ॥ नानक सचु सलाहीऐ धंनु सवारणहारु ॥२॥ {पन्ना 646}

पद्अर्थ: विखु = विष, जहर। करमि = मेहर से। धंनु = धन्य, साराहनीय।

अर्थ: जिस मनुष्य ने यह सच्चा सौदा (कर के) बेअंत प्रभू का नाम लाभ कमाया है, उसको (माया) जहर में व्यवहार करते हुए ही नाम-अमृत मिल जाता है, पर ये अमृत पिलाने वाला प्रभू अपनी मेहर से ही पिलाता है। हे नानक! उस सराहने-योग्य परमात्मा को सिमरें जो (जीवों को नाम की दाति दे के) सँवारता है।2।

पउड़ी ॥ जिना अंदरि कूड़ु वरतै सचु न भावई ॥ जे को बोलै सचु कूड़ा जलि जावई ॥ कूड़िआरी रजै कूड़ि जिउ विसटा कागु खावई ॥ {पन्ना 646}

अर्थ: जिनके हृदय में झूठ व्यापक है उन्हें सत्य अच्छा नहीं लगता; अगर कोई मनुष्य सच बोले, तो झूठा (सुन के) जल-बल जाता है; झूठ का व्यापारी झूठ में ही प्रसन्न होता है, जैसे कौआ विष्टा खाता है (और खुश होता है)।

जिसु हरि होइ क्रिपालु सो नामु धिआवई ॥ हरि गुरमुखि नामु अराधि कूड़ु पापु लहि जावई ॥१०॥ {पन्ना 646}

पद्अर्थ: अराधि = आराधना करके, सिमर के।

अर्थ: जिस मनुष्य पर हरी दयालु हो, वह नाम जपता है, अगर सतिगुरू के सन्मुख हो के हरी का नाम आराधें तो झूठ का पाप उतर जाता है।10।

सलोकु मः ३ ॥ सेखा चउचकिआ चउवाइआ एहु मनु इकतु घरि आणि ॥ एहड़ तेहड़ छडि तू गुर का सबदु पछाणु ॥ {पन्ना 646}

अर्थ: हे (बातों में) आए हुए शेख! इस मन को ठिकाने पर ला, टेढ़ी-मेढ़ी बातें छोड़ और सतिगुरू के शबद को समझ।

सतिगुर अगै ढहि पउ सभु किछु जाणै जाणु ॥ आसा मनसा जलाइ तू होइ रहु मिहमाणु ॥ सतिगुर कै भाणै भी चलहि ता दरगह पावहि माणु ॥ {पन्ना 646}

अर्थ: हे शेख! जो (सबका) जानकार सतिगुरू सब कुछ समझता है उसके चरणों में लग; आशाएं और मन की दौड़ मिटा के अपने आप को जगत में मेहमान समझ; अगर तू सतिगुरू की रजा में चलेगा तो ईश्वर की दरगाह में आदर पाएगा।

नानक जि नामु न चेतनी तिन धिगु पैनणु धिगु खाणु ॥१॥ {पन्ना 646}

अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य नाम नहीं सिमरते, उनका (अच्छा) खाना और (अच्छा) पहनना सब धिक्कार है।1।

मः ३ ॥ हरि गुण तोटि न आवई कीमति कहणु न जाइ ॥ नानक गुरमुखि हरि गुण रवहि गुण महि रहै समाइ ॥२॥ {पन्ना 646}

अर्थ: हरी के गुण बयान करते हुए वे गुण समाप्त नहीं होते, और ना ही ये बताया जा सकता है कि इन गुणों की कीमत क्या है; (पर) हे नानक! गुरमुख हरी के गुण गाते हैं। (जो मनुष्य प्रभू के गुण गाता है वह) गुणों में लीन हुआ रहता है।2।

पउड़ी ॥ हरि चोली देह सवारी कढि पैधी भगति करि ॥ हरि पाटु लगा अधिकाई बहु बहु बिधि भाति करि ॥ कोई बूझै बूझणहारा अंतरि बिबेकु करि ॥ सो बूझै एहु बिबेकु जिसु बुझाए आपि हरि ॥ {पन्ना 646}

अर्थ: (ये मानस) शरीर, जैसे, चोली है जो प्रभू ने बनाई है और भक्ति (-रूप का कसीदा) काढ़ के ये चोली पहनने योग्य बनती है। (इस चोली को) बहुत तरह के कई प्रकार के हरी-नाम के गोटे लगे हुए हैं; (इस भेद को) मन में विचार के कोई विरला ही समझने वाला समझता है। इस विचार को वही समझता है जिसे हरी खुद समझाए।

जनु नानकु कहै विचारा गुरमुखि हरि सति हरि ॥११॥ {पन्ना 646}

पद्अर्थ: सति = सत्य, सदा स्थिर रहने वाला।

अर्थ: नानक दास ये विचार बताता है कि सदा स्थिर रहने वाला हरी गुरू के द्वारा (सिमरा जा सकता है)।11।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh