श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोकु मः ३ ॥ परथाइ साखी महा पुरख बोलदे साझी सगल जहानै ॥ गुरमुखि होइ सु भउ करे आपणा आपु पछाणै ॥ गुर परसादी जीवतु मरै ता मन ही ते मनु मानै ॥ {पन्ना 647}

पद्अर्थ: साखी = शिक्षा का वचन।

अर्थ: महापुरुष किसी के संबंध में शिक्षा के वचन बोलते हैं (पर वह शिक्षा) सारे संसार के लिए सांझे होते हैं, जो मनुष्य सतिगुरू के सन्मुख होते हैं, वह (सुन के) प्रभू का डर (हृदय में धारण) करते हैं, और अपने आप की खोज करते हैं (आत्म-विश्लेषण करते हैं)। सतिगुरू की कृपा से वे संसार में कार्य-व्यवहार करते हुए भी माया से उदास रहते हैं, और उनका मन अपने आप में पतीजा रहता है (बाहर भटकने से हट जाता है)।

जिन कउ मन की परतीति नाही नानक से किआ कथहि गिआनै ॥१॥ {पन्ना 647}

अर्थ: हे नानक! जिन का मन पतीजा नहीं, उनको ज्ञान की बातें करने का कोई लाभ नहीं होता।1।

मः ३ ॥ गुरमुखि चितु न लाइओ अंति दुखु पहुता आइ ॥ अंदरहु बाहरहु अंधिआं सुधि न काई पाइ ॥ पंडित तिन की बरकती सभु जगतु खाइ जो रते हरि नाइ ॥ जिन गुर कै सबदि सलाहिआ हरि सिउ रहे समाइ ॥ {पन्ना 647}

अर्थ: हे पंडित! जिन मनुष्यों ने सतिगुरू के सन्मुख हो के (हरी में) मन नहीं जोड़ा, उन्हें आखिर दुख ही होता है। उन अंदर व बाहर के अंधों को कोई समझ नहीं आती। (पर) हे पंडित! जो मनुष्य हरी के नाम में रंगे हुए हैं, जिन्होंने सतिगुरू के शबद के द्वारा सिफत सालाह की है और हरी में लीन हैं, उनकी कमाई की बरकति सारा संसार खाता है।

पंडित दूजै भाइ बरकति न होवई ना धनु पलै पाइ ॥ पड़ि थके संतोखु न आइओ अनदिनु जलत विहाइ ॥ कूक पूकार न चुकई ना संसा विचहु जाइ ॥ नानक नाम विहूणिआ मुहि कालै उठि जाइ ॥२॥ {पन्ना 647}

पद्अर्थ: कूक पूकार = रोना चिल्लाना, गिले गुजारिश। संसा = संशय, तौख़ला। मुहि कालै = काले मुँह से, बदनामी कमा के।

अर्थ: हे पण्डित! माया के मोह में (फसे रहने से) बरकति नहीं हो सकती (आत्मिक जीवन फलता-फूलता नहीं) और ना ही नाम-धन मिलता है; पढ़-पढ़ के थक जाते हैं, पर संतोष नहीं आता और हर वक्त (उम्र) जलते हुए गुजरती है; उनकी गिला-गुजारिश खत्म नहीं होती और मन में से चिंता नहीं जाती। हे नानक! नाम से वंचित रहने के कारण मनुष्य काला मुँह ले के ही (संसार से) उठ जाता है।2।

पउड़ी ॥ हरि सजण मेलि पिआरे मिलि पंथु दसाई ॥ जो हरि दसे मितु तिसु हउ बलि जाई ॥ गुण साझी तिन सिउ करी हरि नामु धिआई ॥ हरि सेवी पिआरा नित सेवि हरि सुखु पाई ॥ {पन्ना 647}

पद्अर्थ: सजण = गुरमुख। मिलि = मिल के। पंथु = राह। दसाई = मैं पूछूँ। करी = मैं करूँ। धिआई = मैं सिमरूँ।

अर्थ: हे प्यारे हरी! मुझे गुरमुख मिला, जिनको मिल के मैं तेरा राह पूछूँ। जो मनुष्य मुझे हरी मित्र (की खबर) बताए, मैं उससे सदके हूँ। उनके साथ मैं गुणों की सांझ डालूँ और हरी का नाम सिमरूँ। मैं सदा प्यारे हरी को सिमरूँ और सिमर के सुख लूँ।

बलिहारी सतिगुर तिसु जिनि सोझी पाई ॥१२॥ {पन्ना 647}

अर्थ: मैं सदके हूँ उस सतिगुरू से जिसने (परमात्मा की) समझ बख्शी है।12।

सलोकु मः ३ ॥ पंडित मैलु न चुकई जे वेद पड़ै जुग चारि ॥ त्रै गुण माइआ मूलु है विचि हउमै नामु विसारि ॥ पंडित भूले दूजै लागे माइआ कै वापारि ॥ अंतरि त्रिसना भुख है मूरख भुखिआ मुए गवार ॥ {पन्ना 647}

अर्थ: पण्डित की भी मैल दूर नहीं होती, चाहे चारों युगों तक वेद पढ़ता रहे (क्योंकि) तीन गुणों वाली माया (इस मैल का) कारण है, (जिसके कारण पंडित) अहंकार में नाम भुला देता है; भूले हुए पंडित माया के व्यापार में और माया के मोह में लगे हुए हैं, उनके अंदर तृष्णा है, भूख है, गवार मूर्ख भूले हुए ही मर गए है (चाहे धर्म-पुस्तकें पढ़ते हैं) (भाव, माया के लालच में रह के आत्मिक मौत सहेड़ते हैं)।

सतिगुरि सेविऐ सुखु पाइआ सचै सबदि वीचारि ॥ अंदरहु त्रिसना भुख गई सचै नाइ पिआरि ॥ नानक नामि रते सहजे रजे जिना हरि रखिआ उरि धारि ॥१॥ {पन्ना 647}

अर्थ: सतिगुरू के बताए हुए राह पर चलने से और सच्चे शबद में विचार करने से सुख मिलता है; सच्चे नाम में प्यार करने से अंदर से तृष्णा और भूख दूर हो जाती है। हे नानक! जो मनुष्य नाम में रंगे हुए हैं जिन्होंने हरी को हृदय में परोया हुआ है वे आत्मिक अडोलता में टिक के संतोषी हो गए हैं।1।

मः ३ ॥ मनमुख हरि नामु न सेविआ दुखु लगा बहुता आइ ॥ अंतरि अगिआनु अंधेरु है सुधि न काई पाइ ॥ मनहठि सहजि न बीजिओ भुखा कि अगै खाइ ॥ नामु निधानु विसारिआ दूजै लगा जाइ ॥ {पन्ना 647}

अर्थ: मनमुख ने हरी का नाम नहीं सिमरा, इसलिए बहुत दुखी होता है। उसके हृदय में अज्ञान (रूपी) अंधेरा होता है (इसलिए) उसे कुछ समझ नहीं आता। मन के हठ के कारण वह अडोल अवस्था में कुछ नहीं बीजता (नाम नहीं जपता), (इस आत्मिक खुराक से वंचित) भूखा आगे क्या खाएगा? (मनमुख) नाम-खजाना बिसार के माया में लगा हुआ है।

नानक गुरमुखि मिलहि वडिआईआ जे आपे मेलि मिलाइ ॥२॥ {पन्ना 647}

अर्थ: हे नानक! सतिगुरू के सन्मुख हुए मनुष्यों को महिमा मिलती है अगर हरी खुद ही संगति में मिला ले।2।

पउड़ी ॥ हरि रसना हरि जसु गावै खरी सुहावणी ॥ जो मनि तनि मुखि हरि बोलै सा हरि भावणी ॥ जो गुरमुखि चखै सादु सा त्रिपतावणी ॥ गुण गावै पिआरे नित गुण गाइ गुणी समझावणी ॥ जिसु होवै आपि दइआलु सा सतिगुरू गुरू बुलावणी ॥१३॥ {पन्ना 647}

अर्थ: जो जीभ हरी का यश गाती है, वह बड़ी सुंदर लगती है। जो मन से तन से और मुँह से हरी का नाम बोलती है वह हरी को प्यारी लगती है, जो सतिगुरू के सन्मुख हो के स्वाद चखती है, वह तृप्त हो जाती है (भाव, वह जीभ और रसों की तरफ नहीं दौड़ती), प्यारे हरी के गुण सदा गाती है, और गुण गा के गुणवान (हरी) की (औरों को) शिक्षा देती है। जिस (जीभ) पे हरी खुद दयालु होता है, वह ‘गुरू गुरू’ जपती है।13।

सलोकु मः ३ ॥ हसती सिरि जिउ अंकसु है अहरणि जिउ सिरु देइ ॥ मनु तनु आगै राखि कै ऊभी सेव करेइ ॥ इउ गुरमुखि आपु निवारीऐ सभु राजु स्रिसटि का लेइ ॥ {पन्ना 647-648}

पद्अर्थ: सिरि = सिर पर। अंकसु = महावत का कुँडा। ऊभी = खड़े हो के, सचेत हो के। आपु = स्वै भाव, अपनत्व। निवारीअै = दूर की जाती है।

अर्थ: जैसे हाथी के सिर कुंडा है और जैसे अहरण (वदान के नीचे) सिर देती है, वैसे ही शरीर और मन (सतिगुरू को) अर्पण करके सावधान हो के सेवा करो; सतिगुरू के सन्मुख होने से मनुष्य इस तरह स्वैभाव गवाता है और, मानो, सारी सृष्टि का राज ले लेता है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh