श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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नानक गुरमुखि बुझीऐ जा आपे नदरि करेइ ॥१॥ {पन्ना 648}

अर्थ: हे नानक! जब हरी खुद कृपा भरी नजर करता है तब सतिगुरू के सन्मुख हो के ये समझ आती है।1।

मः ३ ॥ जिन गुरमुखि नामु धिआइआ आए ते परवाणु ॥ नानक कुल उधारहि आपणा दरगह पावहि माणु ॥२॥ {पन्ना 648}

अर्थ: (संसार में) आए वह मनुष्य कबूल हैं जिन्होंने सतिगुरू के बताए राह पर चल कर नाम सिमरा है; हे नानक! वह मनुष्य अपना कुल तार लेते हैं और खुद दरगाह में आदर पाते हैं।2।

पउड़ी ॥ गुरमुखि सखीआ सिख गुरू मेलाईआ ॥ इकि सेवक गुर पासि इकि गुरि कारै लाईआ ॥ जिना गुरु पिआरा मनि चिति तिना भाउ गुरू देवाईआ ॥ गुर सिखा इको पिआरु गुर मिता पुता भाईआ ॥ गुरु सतिगुरु बोलहु सभि गुरु आखि गुरू जीवाईआ ॥१४॥ {पन्ना 648}

अर्थ: सतिगुरू ने गुरमुख सिख (रूप) सहेलियां (आपस में) मिलाई हैं; उनमें से कई सतिगुरू के पास सेवा करती हैं, कईयों को सतिगुरू ने (और) कामों में लगाया हुआ है; जिनके मन में प्यारा गुरू बसता है, सतिगुरू उनको अपना प्यार बख्शता है, सतिगुरू का अपने सिखों मित्रों पुत्रों और भाईयों से एक जैसा ही प्यार होता है। (हे सिख सहेलियो!) सारे ही ‘गुरू गुरू’ कहो, ‘गुरू गुरू’ कहने से गुरू आत्मिक जीवन दे देता है।14।

सलोकु मः ३ ॥ नानक नामु न चेतनी अगिआनी अंधुले अवरे करम कमाहि ॥ जम दरि बधे मारीअहि फिरि विसटा माहि पचाहि ॥१॥ {पन्ना 648}

अर्थ: हे नानक! अंधे अज्ञानी नाम नहीं सिमरते और और ही काम करते रहते हैं, (नतीजा ये निकलता है कि) जम के दर पर बंधे हुए मार खाते हैं और फिर (विकार-रूपी) विष्टा में सड़ते हैं।1।

मः ३ ॥ नानक सतिगुरु सेवहि आपणा से जन सचे परवाणु ॥ हरि कै नाइ समाइ रहे चूका आवणु जाणु ॥२॥ {पन्ना 648}

पद्अर्थ: नाइ = नाम में।

अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य अपने सतिगुरू की बताई हुई कार करते हैं वे मनुष्य सच्चे और कबूल हैं; वे हरी के नाम में लीन रहते हैं और उनका पैदा होना-मरना समाप्त हो जाता है।2।

पउड़ी ॥ धनु स्मपै माइआ संचीऐ अंते दुखदाई ॥ घर मंदर महल सवारीअहि किछु साथि न जाई ॥ हर रंगी तुरे नित पालीअहि कितै कामि न आई ॥ जन लावहु चितु हरि नाम सिउ अंति होइ सखाई ॥ जन नानक नामु धिआइआ गुरमुखि सुखु पाई ॥१५॥ {पन्ना 648}

पद्अर्थ: संपै = दौलत। संचीअै = इकट्ठा करते हैं। सवारीअहि = बनाते हैं। हर रंगी = हरेक किस्म के।

अर्थ: धन, दौलत और माया इकट्ठी की जाती है, पर आखिर को दुखदाई होती है; घर, मंदिर और महल बनाए जाते हैं, पर कुछ भी साथ नहीं जाता। कई रंगों के घोड़े सदा पाले जाते हैं, पर किसी काम नहीं आते। हे भाई सज्जनो! हरी के नाम से चिक्त जोड़ो, जो आखिर को साथी बने। हे दास नानक! जो मनुष्य नाम सिमरता है, वह सतिगुरू के सन्मुख रह के सुख पाता है।15।

सलोकु मः ३ ॥ बिनु करमै नाउ न पाईऐ पूरै करमि पाइआ जाइ ॥ नानक नदरि करे जे आपणी ता गुरमति मेलि मिलाइ ॥१॥ {पन्ना 648}

अर्थ: पूरी मेहर से ही हरी का नाम पाया जा सकता है, मेहर (कृपा) के बिना नाम नहीं मिलता; हे नानक! अगर हरी अपनी कृपा-दृष्टि करे, तो सतिगुरू की शिक्षा में लीन करके मिला लेता है।1।

मः १ ॥ इक दझहि इक दबीअहि इकना कुते खाहि ॥ इकि पाणी विचि उसटीअहि इकि भी फिरि हसणि पाहि ॥ नानक एव न जापई किथै जाइ समाहि ॥२॥ {पन्ना 648}

पद्अर्थ: दझहि = जलाए जाते हैं। उसटीअहि = फेंके जाते हैं। हसणि = हसन में। हसण = वह सूखा कूँआं जिसमें पारसी अपने मुर्दों को रख के गिद्धों को खिला देते हैं। ऐव = इस तरह (भाव, जलाने, दबाने आदि से)। न जापई = पता नहीं लगता।

अर्थ: (मरने पर) कोई जलाए जाते हैं, कोई दबाए जाते हैं, एक को कुत्ते खाते हैं, कोई जल प्रवाह कर दिए जाते हैं और कोई सूखे कूँएं में रख दिए जाते हैं। पर, हे नानक! (शरीर के) जलाने-दबाने आदि से ये पता नहीं लग सकता कि रूहें कहाँ जा बसती हैं।2।

पउड़ी ॥ तिन का खाधा पैधा माइआ सभु पवितु है जो नामि हरि राते ॥ तिन के घर मंदर महल सराई सभि पवितु हहि जिनी गुरमुखि सेवक सिख अभिआगत जाइ वरसाते ॥ {पन्ना 648}

अर्थ: जो मनुष्य हरी के नाम रंग में रंगे हुए हैं, उनका माया का उपयोग, खाना-पहनना सब कुछ पवित्र है; उनके घर, मन्दिर, महल और सराएं सब पवित्र हैं, जिनमें गुरमुख सेवक सिख व अतिथि जा के सुख लेते हैं।

तिन के तुरे जीन खुरगीर सभि पवितु हहि जिनी गुरमुखि सिख साध संत चड़ि जाते ॥ तिन के करम धरम कारज सभि पवितु हहि जो बोलहि हरि हरि राम नामु हरि साते ॥ {पन्ना 648}

पद्अर्थ: खुरगीर = (फारसी: ख़ू = गीर) पसीना जज़ब करने वाला, तारहू जो ज़ीन के नीचे पहना जाता है। तुरे = घोड़े। साते = सत्य, सदा स्थिर रहने वाला हरी।

अर्थ: उनके घोड़े, ज़ीनें, ताहरू सब पवित्र हैं, जिन पर गुरसिख साध संत चढ़ते हैं; उनके काम-काज सब पवित्र हैं जो हर वक्त हरी का नाम उचारते हैं।

जिन कै पोतै पुंनु है से गुरमुखि सिख गुरू पहि जाते ॥१६॥ {पन्ना 648}

अर्थ: (पहले किए कर्मों के अनुसार) जिन के पल्ले (भले संस्कार रूप) पुंन हैं, वे गुरसिख सिख सतिगुरू की शरण आते हैं।16।

सलोकु मः ३ ॥ नानक नावहु घुथिआ हलतु पलतु सभु जाइ ॥ जपु तपु संजमु सभु हिरि लइआ मुठी दूजै भाइ ॥ जम दरि बधे मारीअहि बहुती मिलै सजाइ ॥१॥ {पन्ना 648}

पद्अर्थ: हिरि लइआ = चुराया जाता है।

अर्थ: हे नानक! नाम से टूटे हुए का लोक-परलोक सब व्यर्थ जाता है; उनका जप तप और संजम सब छिन जाता है, और माया के मोह में (उनकी मति) ठॅगी जाती है; जम के द्वार पर बँधे हुए मार खाते हैं और (उनको) बहुत सज़ा मिलती है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh