श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मः ३ ॥ संता नालि वैरु कमावदे दुसटा नालि मोहु पिआरु ॥ अगै पिछै सुखु नही मरि जमहि वारो वार ॥ त्रिसना कदे न बुझई दुबिधा होइ खुआरु ॥ मुह काले तिना निंदका तितु सचै दरबारि ॥ नानक नाम विहूणिआ ना उरवारि न पारि ॥२॥ {पन्ना 649}

पद्अर्थ: उरवारि = उरला पासा, इस लोक में।

अर्थ: निंदक मनुष्य संत-जनों से वैर करते हैं और दुर्जनों से मोह-प्यार रखते हैं; उन्हें लोक-परलोक में कहीं सुख नहीं मिलता, बार-बार दुविधा में ख्वार हो हो के, पैदा होते मरते हैं; उनकी तृष्णा कभी नहीं उतरती, हरी के सच्चे दरबार में उन निंदकों के मुँह काले होते हैं। हे नानक! नाम से टूटे हुए लोगों को ना इस लोक में ना ही परलोक में (आसरा मिलता है)।2।

पउड़ी ॥ जो हरि नामु धिआइदे से हरि हरि नामि रते मन माही ॥ जिना मनि चिति इकु अराधिआ तिना इकस बिनु दूजा को नाही ॥ {पन्ना 649}

पद्अर्थ: मनि चिति = मन से चिक्त से। मन चिक्त से पूरी लगन से।

अर्थ: जो मनुष्य हरी का नाम सिमरते हैं, वे अंदर से हरी-नाम में रंगे जाते हैं; जिन्होंने ऐकाग्रचिक्त हो के एक हरी को आराधा है, वे उसके बिना किसी और को नहीं जानते।

सेई पुरख हरि सेवदे जिन धुरि मसतकि लेखु लिखाही ॥ हरि के गुण नित गावदे हरि गुण गाइ गुणी समझाही ॥ वडिआई वडी गुरमुखा गुर पूरै हरि नामि समाही ॥१७॥ {पन्ना 649}

पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। गुणी = गुणों वाला प्रभू। नामि = नाम में।

अर्थ: (पिछले किए कर्मों के अनुसार) शुरू से ही जिनके माथे पर (संस्कार-रूप) लेख उकरे हुए हैं, वह मनुष्य हरी को जपते हैं; वे सदा हरी के गुण गाते हैं, गुण गा गा के गुणों के मालिक हरी की (औरों को) शिक्षा देते हैं। गुरमुखों में ये बड़ा गुण है कि पूरे सतिगुरू के द्वारा हरी के नाम में लीन होते हैं।17।

सलोकु मः ३ ॥ सतिगुर की सेवा गाखड़ी सिरु दीजै आपु गवाइ ॥ सबदि मरहि फिरि ना मरहि ता सेवा पवै सभ थाइ ॥ {पन्ना 649}

अर्थ: सतिगुरू के हुकम में चलना बड़ा मुश्किल काम है, सिर देना पड़ता है, और अहंकार गवा के (सेवा होती है); जो मनुष्य सतिगुरू की शिक्षा के द्वारा (संसार की ओर से) मरते हैं, वह फिर जनम मनण में नहीं रहते, उनकी सारी सेवा कबूल हो जाती है।

पारस परसिऐ पारसु होवै सचि रहै लिव लाइ ॥ जिसु पूरबि होवै लिखिआ तिसु सतिगुरु मिलै प्रभु आइ ॥ {पन्ना 649}

अर्थ: जो मनुष्य सच्चे नाम में बिरती जोड़े रखता है वह (मानो) पारस को छू के पारस ही हो जाता है। जिसके हृदय में आरम्भ से ही (संस्कार-रूप) लेख उकरा हो, उसको सतिगुरू और प्रभू मिलता है।

नानक गणतै सेवकु ना मिलै जिसु बखसे सो पवै थाइ ॥१॥ {पन्ना 649}

पद्अर्थ: गणतै = अच्छे किए कर्मों का लेखा करने से।

अर्थ: हे नानक! लेखा करके सेवक (हरी को) नहीं मिल सकता, जिसको हरी बख्शता है, वही कबूल होता है।1।

मः ३ ॥ महलु कुमहलु न जाणनी मूरख अपणै सुआइ ॥ सबदु चीनहि ता महलु लहहि जोती जोति समाइ ॥ {पन्ना 649}

पद्अर्थ: सुआइ = स्वार्थ के कारण। सुआउ = स्वार्थ।

अर्थ: मूर्ख अपनी गरज़ के कारण (सही) ठौर-ठिकाने को नहीं समझ पाते, (कि असल में गरज़ कहाँ पूरी हो सकेगी) अगर सतिगुरू के शबद को खोजें तो हरी की ज्योति में बिरती जोड़ के (हरी की हजूरी-रूपी असली) ठिकाना तलाश लें।

सदा सचे का भउ मनि वसै ता सभा सोझी पाइ ॥ सतिगुरु अपणै घरि वरतदा आपे लए मिलाइ ॥ {पन्ना 649}

पद्अर्थ: अपणै घरि = अपने स्वरूप में, प्रभू चरणों में।

अर्थ: अगर सच्चे हरी का डर (भाव, अदब) सदा मन में टिका रहे, तो ये सारी समझ आ जाती है कि सतिगुरू जो सदा अपने स्वरूप में टिका रहता है, खुद ही सेवक को मिला लेता है।

नानक सतिगुरि मिलिऐ सभ पूरी पई जिस नो किरपा करे रजाइ ॥२॥ {पन्ना 649}

अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य पर प्रभू अपनी रजा में मेहर करे, उसको सतिगुरू को मिल कर पूर्ण सफलता मिलती है।2।

पउड़ी ॥ धंनु धनु भाग तिना भगत जना जो हरि नामा हरि मुखि कहतिआ ॥ धनु धनु भाग तिना संत जना जो हरि जसु स्रवणी सुणतिआ ॥ {पन्ना 649}

अर्थ: वे भक्त भाग्यशाली हैं जो मुँह से हरी का नाम उचारते हैं; उन संतो के बडैं भाग्य हैं जो हरी का यश कानों से सुनते हैं।

धनु धनु भाग तिना साध जना हरि कीरतनु गाइ गुणी जन बणतिआ ॥ धनु धनु भाग तिना गुरमुखा जो गुरसिख लै मनु जिणतिआ ॥ {पन्ना 649}

अर्थ: उन साध जनों के धन्य भाग हैं, जो हरी का कीर्तन करके खुद गुणवान बनते हैं; उन गुरमुखों के बड़े भाग्य हैं जो सतिगुरू की शिक्षा ले के अपने मन पर विजय पाते हैं।

सभ दू वडे भाग गुरसिखा के जो गुर चरणी सिख पड़तिआ ॥१८॥ {पन्ना 649}

नोट: इस पउड़ी में बताया गया है असल भाग्यशाली वे मनुष्य हैं जो अपनी सियानप चतुराई छोड़ के गुरू के बताए हुए राह पर चलते हैं।

अर्थ: सबसे बड़े भाग्य उन गुरसिखों के हैं, जो सतिगुरू के चरणों में पड़ते हैं (भाव, जो अहंम मिटा के गुरू की ओट लेते हैं)।

सलोकु मः ३ ॥ ब्रहमु बिंदै तिस दा ब्रहमतु रहै एक सबदि लिव लाइ ॥ नव निधी अठारह सिधी पिछै लगीआ फिरहि जो हरि हिरदै सदा वसाइ ॥ {पन्ना 649}

पद्अर्थ: बिंदै = जानता है। ब्रहमु = परमात्मा। ब्रहमतु = ब्राहमण वाले लक्षण। ऐक सबदि = केवल शबद में।

अर्थ: जो मनुष्य केवल गुरू शबद में बिरती जोड़ के ब्रहम को पहचाने, उसका ब्राहमणपन बरकरार रहता है; जो मनुष्य हरी को दिल में बसाए, नौ-निधियां और अठारह सिद्धियां उसके पीछे लगी फिरती हैं।

बिनु सतिगुर नाउ न पाईऐ बुझहु करि वीचारु ॥ नानक पूरै भागि सतिगुरु मिलै सुखु पाए जुग चारि ॥१॥ {पन्ना 649}

पद्अर्थ: करि = करके।

अर्थ: विचार के समझो, सतिगुरू के बिना नाम नहीं मिलता, हे नानक! पूरे भाग्यों से जिसको सतिगुरू मिले वह चारों युगों में (अर्थात, हमेशा) सुख पाता है।1।

मः ३ ॥ किआ गभरू किआ बिरधि है मनमुख त्रिसना भुख न जाइ ॥ गुरमुखि सबदे रतिआ सीतलु होए आपु गवाइ ॥ {पन्ना 649}

पद्अर्थ: सीतलु = ठंडे, शांत, संतोखी। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। गुरमुखि = गुरू के हुकम में चलने वाला मनुष्य।

अर्थ: जवान हो या वृद्ध- मनमुख की तृष्णा भूख दूर नहीं होती, सतिगुरू के सनमुख हुए मनुष्य शबद में रंगे होने के कारण और अहंकार गवा के अंदर से संतोषी होते हैं।

अंदरु त्रिपति संतोखिआ फिरि भुख न लगै आइ ॥ नानक जि गुरमुखि करहि सो परवाणु है जो नामि रहे लिव लाइ ॥२॥ {पन्ना 649-650}

पद्अर्थ: त्रिपति = अघाना। जि = जो कुछ।

अर्थ: (उनका) हृदय तृप्ति के कारण संतोषी होता है, और फिर (उनको माया की) भूख नहीं लगती। हे नानक! गुरमुख मनुष्य जो कुछ करते हैं, वह कबूल होता है, क्योंकि वह नाम में बिरती जोड़े रखते हैं।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh