श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोकु मः ४ ॥ गुरमुखि अंतरि सांति है मनि तनि नामि समाइ ॥ नामो चितवै नामु पड़ै नामि रहै लिव लाइ ॥ नामु पदारथु पाइआ चिंता गई बिलाइ ॥ {पन्ना 653}

पद्अर्थ: मनि तनि = मन से शरीर से। नामि = नाम में। नामो = नाम ही। बिलाइ गई = दूर हो गई।

अर्थ: अगर मनुष्य सतिगुरू के सन्मुख है उसके अंदर ठंढ है और वह मन से तन से नाम में लीन रहता है, वह नाम ही चितवता है, नाम ही पढ़ता है और नाम में ही बिरती जोड़े रखता है, नाम (रूपी) सुंदर वस्तु पा के उसकी चिंताएं दूर हो जाती है।

सतिगुरि मिलिऐ नामु ऊपजै तिसना भुख सभ जाइ ॥ नानक नामे रतिआ नामो पलै पाइ ॥१॥ {पन्ना 653}

पद्अर्थ: पलै पाइ = मिलता है।

अर्थ: यदि गुरू मिल जाए तो नाम (हृदय में) अंकुरित होता है, तृष्णा दूर हो जाती है (माया की) सारी भूख दूर हो जाती है। हे नानक! नाम में रंगे जाने के कारण नाम ही (हृदय रूप) पल्ले में उकर जाता है।1।

मः ४ ॥ सतिगुर पुरखि जि मारिआ भ्रमि भ्रमिआ घरु छोडि गइआ ॥ ओसु पिछै वजै फकड़ी मुहु काला आगै भइआ ॥ {पन्ना 653}

अर्थ: जिस मनुष्य को गुरू परमेश्वर ने मारा है (भाव, जिसे रॅब के राह से बिल्कुल ही नफ़रत है) वह भ्रम में भटकता हुआ अपने ठिकाने से हिल जाता है। उसके पीछे लोग फकॅड़ी बजाते हैं और आगे (जहाँ भी जाता है) मुँह कालिख कमाता है।

ओसु अरलु बरलु मुहहु निकलै नित झगू सुटदा मुआ ॥ किआ होवै किसै ही दै कीतै जां धुरि किरतु ओस दा एहो जेहा पइआ ॥ {पन्ना 653}

पद्अर्थ: अरलु बरलु = अनाब शनाब, बकवास। झगू सुटदा = झाग गिराता (भाव, निंदा करता)। किरतु = पिछली की हुई कमाई।

अर्थ: उसके मुँह से निरी बकवास ही निकलती है और वह सदा निंदा करके दुखी होता रहता है। किसी के करने से कुछ होने वाला नहीं है (भाव, कोई उसे सद्बुद्धि नहीं दे सकता), क्योंकि धुर से ही (किए बुरे कर्मों के संस्कारों के तहत अब भी) ऐसी ही (भाव, निंदनीय) कमाई करनी पड़ रही है।

जिथै ओहु जाइ तिथै ओहु झूठा कूड़ु बोले किसै न भावै ॥ वेखहु भाई वडिआई हरि संतहु सुआमी अपुने की जैसा कोई करै तैसा कोई पावै ॥ एहु ब्रहम बीचारु होवै दरि साचै अगो दे जनु नानकु आखि सुणावै ॥२॥ {पन्ना 653}

अर्थ: वह (मनमुख) जहाँ भी जाता है वहीं झूठा होता है, झूठ बोलता है और किसी को अच्छा नहीं लगता। हे संत जनो! प्यारे मालिक प्रभू की महिमा देखो, कि जैसी कोई कमाई करता है, वैसा ही उसे फल मिलता है। ये सच्ची विचार सच्ची दरगाह में होती है, दास नानक पहले ही तुम्हें ये कह के सुना रहा है (ताकि भले बीज बीज के भले फल की आशा की जा सके)।2।

पउड़ी ॥ गुरि सचै बधा थेहु रखवाले गुरि दिते ॥ पूरन होई आस गुर चरणी मन रते ॥ गुरि क्रिपालि बेअंति अवगुण सभि हते ॥ गुरि अपणी किरपा धारि अपणे करि लिते ॥ नानक सद बलिहार जिसु गुर के गुण इते ॥२७॥ {पन्ना 653}

पद्अर्थ: थेहु = सत्संग रूप गाँव। गुरि = गुरू ने। हते = नाश कर दिए। इते = इतने।

अर्थ: सच्चे सतिगुरू ने (सत्संग रूप) गाँव बसाया है, (उस गाँव के लिए सत्संगी) रखवाले भी सतिगुरू ने ही दिए हैं, जिनके मन गुरू के चरणों में जुड़े हैं, उनकी आस पूरी हो गई है (भाव, तृष्णा मिट गई है); दयालु और बेअंत गुरू ने उनके सारे पाप नाश कर दिए हैं; अपनी मेहर करके सतिगुरू ने उनको अपना बना लिया है। हे नानक! मैं सदा उस सतिगुरू से सदके हूँ, जिसमें इतने गुण हैं।27।

सलोक मः १ ॥ ता की रजाइ लेखिआ पाइ अब किआ कीजै पांडे ॥ हुकमु होआ हासलु तदे होइ निबड़िआ हंढहि जीअ कमांदे ॥१॥ {पन्ना 653}

पद्अर्थ: रजाइ = रजा में। पाइ = पा के। पांडे = हे पण्डित! हंढहि = फिरते हैं। जीअ = जीव।

अर्थ: हे पण्डित! इस वक्त (झुरने से) कुछ नहीं बनता; प्रभू की रजा में (अपने ही पिछले किए के अनुसार) लिखे (लेख) मिलते हैं; जब प्रभू का हुकम हुआ तब ये फैसला हुआ और (उस लेख के अनुसार) जीव (करम) कमाते फिरते हैं।1।

मः २ ॥ नकि नथ खसम हथ किरतु धके दे ॥ जहा दाणे तहां खाणे नानका सचु हे ॥२॥ {पन्ना 653}

पद्अर्थ: नकि = नाक में। हथि = हाथ में। दे = देता है।

अर्थ: हे नानक! जीव के नाक में (रजा की) नाथ (नकेल) है जो खसम प्रभू के (अपने) हाथ में है, पिछले किए हुए कर्मों के अनुसार बना हुआ स्वभाव (निहित कर्म) धक्के दे के चला रहे हैं। सच ये है कि जहाँ जीव का दाना-पानी होता है वहाँ खाना पड़ता है।2।

पउड़ी ॥ सभे गला आपि थाटि बहालीओनु ॥ आपे रचनु रचाइ आपे ही घालिओनु ॥ आपे जंत उपाइ आपि प्रतिपालिओनु ॥ दास रखे कंठि लाइ नदरि निहालिओनु ॥ नानक भगता सदा अनंदु भाउ दूजा जालिओनु ॥२८॥ {पन्ना 653}

पद्अर्थ: बहालीओनु = उस प्रभू ने खुद कायम की हैं। घलिओनु = उस (हरी) ने नाश किया है। प्रतिपालिओनु = उस ने (हरेक जीव को) पाला है। निहालिओनु = उसने देखा है। जालिओनु = उसने जलाया है।

अर्थ: प्रभू ने खुद ही सारे (जगत की) विउंते बना के कायम की हैं; खुद ही संसार की रचना करके खुद ही नाश करता है; खुद ही जीवों को पैदा करता है और खुद ही पालता है; खुद ही अपने सेवकों को गले से लगा के रखता है, खुद ही मेहर की नजर से देखता है। हे नानक! भक्तों को सदा प्रसन्नता रहती है, (क्योंकि) उनका माया का प्यार उस प्रभू ने खुद जला दिया है।28।

सलोकु मः ३ ॥ ए मन हरि जी धिआइ तू इक मनि इक चिति भाइ ॥ हरि कीआ सदा सदा वडिआईआ देइ न पछोताइ ॥ {पन्ना 653}

पद्अर्थ: इक मनि = एक मन से। इक चिति = एक चिक्त से। भाइ = प्रेम से। देइ = देता है।

अर्थ: हे मन! प्यार से एकाग्रचिक्त हो के हरी का सिमरन कर; हरी में ये हमेशा के लिए गुण हैं कि दातें दे के पछताता नहीं।

हउ हरि कै सद बलिहारणै जितु सेविऐ सुखु पाइ ॥ नानक गुरमुखि मिलि रहै हउमै सबदि जलाइ ॥१॥ {पन्ना 653}

अर्थ: मैं हरी से सदा कुर्बान हूँ, जिसकी सेवा करने से सुख मिलता है; हे नानक! गुरमुख जन अहंकार को सतिगुरू के शबद के द्वारा जला के हरी में मिले रहते हैं।1।

मः ३ ॥ आपे सेवा लाइअनु आपे बखस करेइ ॥ सभना का मा पिउ आपि है आपे सार करेइ ॥ {पन्ना 653}

पद्अर्थ: लाइअन = लगाए है उस (हरी) ने। सार = संभाल।

अर्थ: हरी ने खुद ही मनुष्यों को सेवा में लगाया है, खुद ही बख्शिश करता है, खुद ही सबका माँ-बाप है और खुद ही सबकी संभाल करता है।

नानक नामु धिआइनि तिन निज घरि वासु है जुगु जुगु सोभा होइ ॥२॥ {पन्ना 653}

अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य नाम जपते हैं, वे अपने ठिकाने पर टिके हुए हैं, हरेक युग में उनकी शोभा होती है।2।

पउड़ी ॥ तू करण कारण समरथु हहि करते मै तुझ बिनु अवरु न कोई ॥ तुधु आपे सिसटि सिरजीआ आपे फुनि गोई ॥ {पन्ना 653-654}

पद्अर्थ: गोई = नाश की है।

अर्थ: हे करतार! तू सारी कुदरत का रचयता है; तेरे बिना तेरे जितना कोई और मुझे नहीं दिखता; तू खुद ही सृष्टि को पैदा करता है और खुद ही फिर नाश करता है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh