श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 654 सभु इको सबदु वरतदा जो करे सु होई ॥ वडिआई गुरमुखि देइ प्रभु हरि पावै सोई ॥ {पन्ना 654} पद्अर्थ: सबदु = हुकम। सभु = हर जगह। अर्थ: हर जगह (हरी का) ही हुकम बरत रहा है; जो वह करता है वही होता है। जो मनुष्य गुरू के सन्मुख होता है उसे प्रभू महिमा बख्शता है, वह उस हरी को मिल लेता है। गुरमुखि नानक आराधिआ सभि आखहु धंनु धंनु धंनु गुरु सोई ॥२९॥१॥ सुधु {पन्ना 654} पद्अर्थ: सभि = सारे। अर्थ: हे नानक! गुरू के सन्मुख (होने वाले) मनुष्य हरी को सिमरते हैं, (हे भाई!) सभी कहो, कि वह सतिगुरू धन्य है, धन्य है, धन्य है।29।1। सुधु। रागु सोरठि बाणी भगत कबीर जी की घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ बुत पूजि पूजि हिंदू मूए तुरक मूए सिरु नाई ॥ ओइ ले जारे ओइ ले गाडे तेरी गति दुहू न पाई ॥१॥ मन रे संसारु अंध गहेरा ॥ चहु दिस पसरिओ है जम जेवरा ॥१॥ रहाउ ॥ कबित पड़े पड़ि कबिता मूए कपड़ केदारै जाई ॥ जटा धारि धारि जोगी मूए तेरी गति इनहि न पाई ॥२॥ दरबु संचि संचि राजे मूए गडि ले कंचन भारी ॥ बेद पड़े पड़ि पंडित मूए रूपु देखि देखि नारी ॥३॥ राम नाम बिनु सभै बिगूते देखहु निरखि सरीरा ॥ हरि के नाम बिनु किनि गति पाई कहि उपदेसु कबीरा ॥४॥१॥ {पन्ना 654} पद्अर्थ: मूऐ = मर गए, खप गए, जीवन व्यर्थ गवा गए। नाई = निव निव के, झुक झुक के, पश्चिम की ओर सजदे कर करके, रॅब को काबे में ही समझ के। ओइ = उन (हिन्दुओं) ने। ले = ले के, (अपने मुर्दे) ले के। जारे = जलाए। गाडे = दबा दिए। गति = (संस्कृत का शब्द है) 1.condition, state 2. knowledge, wisdom हालत, ऊँची आत्मिक अवस्था। दुहू = दोनों ने, ना हिन्दुओं और ना मुसलमानों ने।1। गहेरा = गहरा (खाता)। अंध = अंधा। दिस = दिशा, तरफ। जेवरा = जेवरी, रस्सी, फाही।1। रहाउ। कबित = कविता। कबिता = कवि लोक। कपड़ = कापड़ी फिरके के लोग, फटे कपड़ों की गुदड़ी पहनने वाले। केदारा = केदार नाथ नामक हिमालय पर्वत में एक हिन्दू तीर्थ जो रियासत गढ़वाल (उक्तर प्रदेश) में रुद्र हिमालय की बर्फानी धारा में महा पंथ की चोटी के नीचे एक टीले पर स्थित है। यहाँ सदा-शिव का मंदिर है, जिसमें भैंसे की शकल का महादेव है। पांडवों से हार खा के शिव जी यहाँ भैंसे की शकल में आए। इनहि = इन लोगों ने भी।2। दरबु = द्रव्य, धन। संचि = इकट्ठी करके। गडि ले = दबाए रखे। कंचन भारी = सोने के भार, सोने के ढेर। नारी = नारियां।3। बिगूते = दुखी हुए, ख्वार हुए। निरख = (संस्कृत में निरीक्ष्य) ध्यान से देख के, निर्णय करके। सरीरा = शरीर में, अपने अंदर। गति = उच्च आत्मिक अवस्था, ज्ञान, समझ।4। अर्थ: हे मेरे मन! (अज्ञानता के कारण) सिमरन से टूट के जगत एक गहरा अंधकार बना हुआ है, और चारों तरफ जमों की जंजीरें बिखरी हुई हैं (भाव, लोग बार बार वही काम कर रहे हैं जिनसे और ज्यादा अज्ञानता में फसते जाएं)।1। रहाउ। हिन्दू लोग मूर्तियों की पूजा कर करके दुखी हो रहे हैं, मुसलमान (ख़ुदा को मक्के में समझ के उधर) सजदे किए जा रहे हैं, हिन्दुओं ने अपने मुर्दे जला दिए और मुसलमानों ने दबा दिए (इसी बात पर झगड़ते रहे कि सच्चा कौन है)। (हे प्रभू!) तू कैसा है?- ये बात दोनों पक्षों के समझ में ना आई।1। (विद्वान) कवि जन अपनी-अपनी कविता रचना पढ़ने (अर्थात, विद्या के गुमान) में ही मस्त हैं, कापड़ी (आदि) साधू केदार नाथ (आदि) तीर्थों पर जा जा के जीवन व्यर्थ गवाते हैं; योगी जटा रख रख के यही समझते रहे कि यही रास्ता ठीक है। पर, (हे प्रभू!) तेरे बारे में इन लोगों को भी कोई समझ नहीं पड़ी।2। राजे धन संचित कर कर के उम्र गवा गए, उन्होंने सोने (आदि) के ढेर (भाव, खजाने) धरती में दबा दिए, पण्डित लोग वेद-पाठी होने के अहंकार में खपते हैं, और सि्त्रयां (शीशें में) अपना रूप देखने में ही जिंदगी व्यर्थ गवा रही हैं।3। अपने-अपने अंदर झाँक के देख लो, परमात्मा के नाम का सिमरन किए बिना सब जीव दुखी हो रहे हैं। कबीर शिक्षाप्रद बात कहता है कि परमात्मा के नाम के बिना किसी को (जीवन की) सही समझ नहीं पड़ती।4।1। शबद का भाव: सिमरन के बिना जीवन व्यर्थ है। सिमरन-हीन लोगों के लिए ये जगत एक अंधा खाता है, उनके कर्म ही उनके लिए और जंजाल का काम करते हैं। जब जरीऐ तब होइ भसम तनु रहै किरम दल खाई ॥ काची गागरि नीरु परतु है इआ तन की इहै बडाई ॥१॥ काहे भईआ फिरतौ फूलिआ फूलिआ ॥ जब दस मास उरध मुख रहता सो दिनु कैसे भूलिआ ॥१॥ रहाउ ॥ जिउ मधु माखी तिउ सठोरि रसु जोरि जोरि धनु कीआ ॥ मरती बार लेहु लेहु करीऐ भूतु रहन किउ दीआ ॥२॥ देहुरी लउ बरी नारि संगि भई आगै सजन सुहेला ॥ मरघट लउ सभु लोगु कुट्मबु भइओ आगै हंसु अकेला ॥३॥ कहतु कबीर सुनहु रे प्रानी परे काल ग्रस कूआ ॥ झूठी माइआ आपु बंधाइआ जिउ नलनी भ्रमि सूआ ॥४॥२॥ {पन्ना 654} पद्अर्थ: जरीअै = जलाते हैं। भसम = राख। तनु = शरीर। रहै = (अगर कब्र में) टिका रहे। किरम = कीड़े। खाई = खा जाता है। गागरि = घड़े में। नीरु = पानी। परतु है = पड़ता है (और निकल जाता है)। इहै = ये ही। बडाई = महत्वतता, मान, फखर।1। फूलिआ फूलिआ = अहंकार में मस्ताया हुआ। मास = महीने। उरध मुख = उल्टे मुँह। सो दिन = वह समय।1। रहाउ। मधु = शहद। सठोरि = सठोर ने (संस्कृत: शठ = a rogue, a fool) मूर्ख ने, ठॅग ने। जिउ...जीआ = जिउ माखी रसु जोरि जोरि मधु कीआ, तिउ सठोरि जोरि जोरि धनु कीआ, जैसे मक्खी ने फूलों का रस जोड़ जोड़ के शहद एकत्र किया (और ले गए और लोग), वैसे ही मूर्ख कंजूसी से धन जोड़ा। लेहु लेहु = लो, ले चलो। भूतु = गुजर चुका प्राणी, मुर्दा।2। देहुरी = घर की बाहरी दहलीज। लउ = तक। बरी नारि = बहू। संगि भई = साथ हुई, साथ गई। मरघट = मसाण। कुटंबु = परिवार। हंसु = आत्मा।3। कूआ = कूँआं। काल ग्रस कूआ = वह कूआँ जिसे मौत ने घेरा हुआ है। आपु = अपने आप को। नलनी = तोते को पकड़ने के लिए बनाई गई नलकी। भ्रमि = भरम में, डर में, डूबने के डर में। सूआ = तोता।4। अर्थ: (मरने के बाद) अगर शरीर (चिखा में) जला दिया जाए तो ये राख हो जाता है, अगर (कब्र में) टिका रहे तो कीड़ियों का दल इसे खा जाता है। (जैसे) कच्चे घड़े में पानी डाला जाता है (तो घड़ा गल जाता है और पानी बाहर निकल जाता है वैसे ही सांसें समाप्त हो जाने पर शरीर में से जीवात्मा निकल जाती है, सो,) इस शरीर का इतना सा ही माण है (जितना कि कच्चे घड़े का)।1। हे भाई! तू किस बात पे अहंकार में अफरा फिरता है? तूझे वह समय क्यों भूल गया जब तू (माँ के पेट में) दस महीने उल्टा लटका हुआ था?।1। रहाउ। जैसे मक्खी (फूलों का) रस जोड़ जोड़ के शहद इकट्ठा करती है, वैसे ही मूर्ख बँदे ने कंजूसी कर करके धन जोड़ा (पर, आखिर वह बेगाना ही हो गया)। मौत आई, तो सब यही कहते हैं– ले चलो, ले चलो, अब ये बीत चुका है, ज्यादा समय घर रखने का कोई लाभ नहीं।2। घर की (बाहरी) दहलीज तक पत्नी (उस मुर्दे के) साथ जाती है, आगे सज्जन-मित्र उठा लेते हैं, मसाणों तक परिवार के व अन्य लोग जाते हैं, पर परलोक में तो जीवात्मा अकेली ही जाती है।3। कबीर कहता है–हे बँदे! सुन, तू उस कूएं में गिरा पड़ा है जिसे मौत ने घेरा डाल रखा है (भाव, मौत अवश्य आती है)। पर, तूने अपने आप को इस माया से बाँध रखा है जिसने साथ नहीं निभाना, जैसे तोता मौत के डर से अपने आप को नलिनी से चिपकाए रखता है ।4।2। (नोट: नलिनी से चिपकना ही तोते के लिए जंजीर का कारण बनता है, माया से चिपके रहना मनुष्य की आत्मक मौत का कारण बनता है) शबद का भाव: माया का गुमान झूठा है। किसी भी चीज से साथ नहीं निभता। माया का मोह बल्कि मनुष्य की आत्मिक मौत का कारण बनता है, जैसे नलिनी के साथ चिपकने से तोता बेगानी कैद में फसता है। बेद पुरान सभै मत सुनि कै करी करम की आसा ॥ काल ग्रसत सभ लोग सिआने उठि पंडित पै चले निरासा ॥१॥ मन रे सरिओ न एकै काजा ॥ भजिओ न रघुपति राजा ॥१॥ रहाउ ॥ बन खंड जाइ जोगु तपु कीनो कंद मूलु चुनि खाइआ ॥ नादी बेदी सबदी मोनी जम के पटै लिखाइआ ॥२॥ भगति नारदी रिदै न आई काछि कूछि तनु दीना ॥ राग रागनी डि्मभ होइ बैठा उनि हरि पहि किआ लीना ॥३॥ परिओ कालु सभै जग ऊपर माहि लिखे भ्रम गिआनी ॥ कहु कबीर जन भए खालसे प्रेम भगति जिह जानी ॥४॥३॥ {पन्ना 654} पद्अर्थ: करी = (जिन समझदार लोगों ने) की। करम = कर्म काण्ड। ग्रसत = ग्रसित। काल ग्रसत = मौत के डर में ग्रसे हुए। पै = भी। निरासा = आशा पूरी हुए बिना भी।1। सरिओ न = सिरे नहीं चढ़ा। रहाउ। बन खंड = जंगलों में। जाइ = जा के। कंद मूलु = गाजर मूली आदि। नादी = जोगी। बेदी = कर्म काण्डी। सबदी = ‘अलख’ कहने वाले दक्त मत के जोगी। मोनी = चुप्पी साधने वाले, समाधि में टिकने वाले। पटै = लेखे में।2। भगति नारदी = प्रेमा भक्ति। तनु काछि कूछि दीना = शरीर को श्रृंगार लिया, शरीर पर चक्र आदि बना लिए। डिंभ = पाखण्ड। उनि = उस ऐसे मनुष्य ने।3। महि = बीच में ही। भ्रम गिआनी = भरमी ज्ञानी। खालसे = आजाद। जिह = जिन्होंने।4। अर्थ: हे मन! तूने प्रकाश-स्वरूप परमात्मा का भजन नहीं किया, तुझसे ये एक काम भी (जो करने वाला था) नहीं हो सकता।1। रहाउ। जिन समझदार लोगों ने वेद-पुराण आदि के सारे मत सुन-सुन के कर्म-काण्ड की आस रखी, (ये आशा रखी कि कर्म काण्ड से जीवन सँवरेगा), वे सारे (आत्मिक) मौत में ग्रसे ही रहे। पंडित लोग भी आशा पूरी हुए बिना ही उठ के चले गए (जगत त्याग गए)।1। कई लोगों ने जंगलों में जा के योग साधना की, तप किए, गाजर-मूली आदि चुन-खा के गुजारा किया; जोगी, कर्म काण्डी, ‘अलख’ कहने वाले जोगी, मोनधारी- ये सारे जम के लेखे में ही लिखे गए (भाव, इनके साधन मौत के डर से बचा नहीं सकते)।2। जिन मनुष्यों ने शरीर पर तो (धार्मिक चिन्ह) चक्र आदि लगा लिए हैं, पर प्रेमा-भक्ति उसके हृदय में पैदा नहीं हुई, राग-रागनियां तो गाता है पर निरी पाखण्ड की मूर्ति ही बना बैठा है, ऐसे मनुष्य को परमात्मा से कुछ नहीं मिलता।3। सारे जगत पर काल का सहम पड़ा हुआ है, भरमी-ज्ञानी भी उसी ही लेखे में लिखे गए हैं (वे भी मौत के सहम में ही हैं)। हे कबीर! कह– जिन मनुष्यों ने प्रेमा-भक्ति करनी समझ ली है वह (मौत के सहम से) आजाद हो गए हैं।4।3। शबद का भाव: परमात्मा का भजन ही मनुष्य के करने के योग्य काम है। यही मौत के सहम से बचाता है। कर्म-काण्ड, जोग, तप आदि सिमरन के मुकाबले में तुच्छ हैं। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |