श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 655 घरु २ ॥ दुइ दुइ लोचन पेखा ॥ हउ हरि बिनु अउरु न देखा ॥ नैन रहे रंगु लाई ॥ अब बे गल कहनु न जाई ॥१॥ हमरा भरमु गइआ भउ भागा ॥ जब राम नाम चितु लागा ॥१॥ रहाउ ॥ बाजीगर डंक बजाई ॥ सभ खलक तमासे आई ॥ बाजीगर स्वांगु सकेला ॥ अपने रंग रवै अकेला ॥२॥ कथनी कहि भरमु न जाई ॥ सभ कथि कथि रही लुकाई ॥ जा कउ गुरमुखि आपि बुझाई ॥ ता के हिरदै रहिआ समाई ॥३॥ गुर किंचत किरपा कीनी ॥ सभु तनु मनु देह हरि लीनी ॥ कहि कबीर रंगि राता ॥ मिलिओ जगजीवन दाता ॥४॥४॥ {पन्ना 655} पद्अर्थ: दुइ दुइ लोचन = दोनों आँखों से (भाव, अच्छी तरह, आँखें खोल के)। पेखा = देखूँ। हउ = मैं। अउरु = कोई और, किसी और को। न देखा = न देखूँ, मैं नहीं देखता। नैन = आँखें। रंगु = प्यार। रहे लाई = लगा रहे हैं। बे गल = कोई और बात।1। भरमु = भुलेखा। रहाउ। बाजीगर = तमाशा करने वाले (प्रभू) ने। डंक = डुग डुगी। खलक = ख़लकत। तमासे = तमाशा देखने। स्वांग = सांग, तमाशा। सकेला = समेटा, संभालता है। रंग रवै = मौज में रहता है।2। कथनी कहि = सिर्फ बातें करके। सभ लुकाई = सारी दुनिया, सारी सृष्टि। रही = थक गई। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। आपि = प्रभू ने खुद। बुझाई = समझ दे दी।3। किंचत = थोड़ी सी। हरि लीनी = हरी में लीन हो जाता है। रंगि = प्यार में। राता = रंगा जाता है।4। अर्थ: जब से मेरा चिक्त परमात्मा के नाम में लग गया है, मेरा भुलेखा दूर हो गया है (कि प्रभू के बिना कोई और हस्ती भी जगत में है; इस भुलेखे के दूर होने से) अब कोई डर नहीं रह गया (क्योंकि डर तो किसी ऊपर वाले से ही हो सकता है)।1। रहाउ। (अब तो) मैं (जिधर) आँखें खेल के देखता हूँ, मुझे परमात्मा के बिना कोई और (पराया) दिखता ही नहीं, मेरी आँखें (प्रभू से) प्यार लगाए बैठी हैं (मुझे हर तरफ प्रभू ही दिखता है), अब मुझसे कोई और बात नहीं होती (भाव, मैं अब ये कहने के लायक नहीं रहा कि प्रभू के बिना कोई और भी कहीं है)।1। (मुझे अब यूँ दिखता है कि) जब प्रभू बाजीगर डुगडुगी बजाता है, तो सारी ख़लकत (जगत-) तमाशा देखने आ जाती है, और जब वह बाजीगर खेल समेटता है, तो अकेला खुद ही खुद अपनी मौज में रहता है।2। (पर ये द्वैत का) भुलेखा निरी बातें करने से दूर नहीं होता, सिर्फ बातें कर करके तो सारी दुनिया थक चुकी है (किसी के अंदर से द्वैत-भाव नहीं जाता)। जिस मनुष्य को परमात्मा खुद गुरू के द्वारा सुमति देता है, उसके दिल में वह सदा टिका रहता है।3। कबीर कहता है– जिस मनुष्य पर गुरू ने थोड़ी जितनी भी मेहर कर दी है, उसका तन और मन सब हरी में लीन हो जाता है, वह प्रभू के प्यार में रंगा जाता है, उसे वह प्रभू मिल जाता है जो सारे जगत को जीवन देने वाला है।4।4।4। शबद का भाव: प्रभू से मिलाप-अवस्था में हर जगह प्रभू ही दिखता है, ये जगत उसी की ही बनाई हुई खेल प्रतीत होती है। पर ये अवस्था गुरू की मेहर से स्वै-भाव दूर करने से प्राप्त होती है।4। जा के निगम दूध के ठाटा ॥ समुंदु बिलोवन कउ माटा ॥ ता की होहु बिलोवनहारी ॥ किउ मेटै गो छाछि तुहारी ॥१॥ चेरी तू रामु न करसि भतारा ॥ जगजीवन प्रान अधारा ॥१॥ रहाउ ॥ तेरे गलहि तउकु पग बेरी ॥ तू घर घर रमईऐ फेरी ॥ तू अजहु न चेतसि चेरी ॥ तू जमि बपुरी है हेरी ॥२॥ प्रभ करन करावनहारी ॥ किआ चेरी हाथ बिचारी ॥ सोई सोई जागी ॥ जितु लाई तितु लागी ॥३॥ चेरी तै सुमति कहां ते पाई ॥ जा ते भ्रम की लीक मिटाई ॥ सु रसु कबीरै जानिआ ॥ मेरो गुर प्रसादि मनु मानिआ ॥४॥५॥ {पन्ना 655} पद्अर्थ: निगम = वेद आदि धर्म पुस्तकें। ठाटा = थन (संस्कृत: स्तन)। दूध के ठाटा = दूध के थन, अमृत के श्रोत। समुंदु = (भाव,) सत्संग। बिलोवन कउ = मथने के लिए। माटा = मटकी, चाटी। (नोट: जैसे मटकी में दूध मथते हैं वैसे ही सत्संग में धर्म = पुस्तकें विचारी जाती हैं)। होहु = बन। ता की = (जा के...जिस प्रभू के....) उस प्रभू की। छाछि = लस्सी (भाव, साधारण आनंद जो बाणी के विचार से मिल सकता है)।1। चेरी = हे दासी! हे जीव स्त्री! हे जीवात्मा! न करसि = तू (क्यों) नहीं करती? अधारा = आसरा।1। रहाउ। अजहु = अभी तक। गलहि = बात में। तउकु = लोहे का कड़ा जो गुलाम के गले में डाला जाता था, मोह का पट्टा। पग = पैरों में। बेरी = आशाओं की बेड़ी। तू बपुरी = तुझ निमाणी को। जमि = जम ने। हेरी = ढूँढ ली, निगाह में रखी हुई है।2। सोई सोई = कई जन्मों से सोई हुई। जितु = जिधर।3। सुमति = सद् बुद्धि। जा ते = जिसकी बरकति से। भ्रम की लीक = भ्रम भटकना की लकीर, वह संस्कार जो भटकना में डाले रखते हैं। रसु = आत्मिक आनंद।4। अर्थ: हे जीवात्मा! तू उस परमात्मा को क्यों अपना पति नहीं बनाती जो जगत का जीवन है और सबके प्राणों का आसरा है?।1। रहाउ। (हे जिंदे!) तू उस प्रभू के नाम को मथने वाली बन (भाव, तू उस प्रभू के नाम में चिक्त जोड़), वेद आदि धर्म पुस्तकें जिसके (नाम-अमृत) दूध के श्रोत हैं और सत्सं्रग उस दूध के मथने के लिए चाटी है। (हे जिंदे! यदि तुझे हरी का मिलाप नसीब ना हुआ, तो भी) वह प्रभू (सत्संग में बैठ के धर्म-पुस्तकों के विचारने का) तेरा साधारण आनंद नहीं मिटाएगा।1। हे जिंदे! तेरे गले में मोह का पट्टा और तेरे पैरों में आशाओं की बेड़ियां होने के कारण तुझे परमात्मा ने घर-घर (कई जूनियों में) घुमाया है, (अब सौभाग्य से कहीं मानस जनम मिला था) अब भी तू उस प्रभू को याद नहीं करती। हे भाग्यहीन! तुझे जम ने अपनी निगाह में रखा हुआ है (भाव, मौत आने से फिर पता नहीं किस लंबे चक्कर में पड़ जाएगी)।2। पर इस बिचारी जीवात्मा के भी क्या वश? सब कुछ करने कराने वाला प्रभू खुद ही है। ये कई जन्मों से सोई हुई जीवात्मा (तब ही) जागती है (जब वह खुद जगाता है, क्योंकि) जिधर वह इसे लगाता है उधर ही ये लगती है।3। (उसकी मेहर से जागी हुई जीवात्मा को जिज्ञासु जीवात्मा पूछती है) हे (भाग्यशाली) जिंदे! तुझे कहाँ से ये सद्-बुद्धि मिली है, जिसकी बरकति से तेरे वह संस्कार मिट गए हैं, जो तुझे भटकना में डाले रखते थे। (आगे से जागी हुई जीवात्मा उक्तर देती है) हे कबीर! सतिगुरू की कृपा से मेरी उस आत्मिक आनंद से जान-पहचान हो गई है, और मेरा मन उसमें परच गया है।4।5। शबद का भाव: सिमरन के बिना जीव माया के मोह के बँधनों में जकड़ा रहता है। जिस पर प्रभू की मेहर हो, वह गुरू की शरण पड़ कर नाम-रस का आनंद लेता है और जनम-मरण के चक्कर से बच जाता है। जिह बाझु न जीआ जाई ॥ जउ मिलै त घाल अघाई ॥ सद जीवनु भलो कहांही ॥ मूए बिनु जीवनु नाही ॥१॥ अब किआ कथीऐ गिआनु बीचारा ॥ निज निरखत गत बिउहारा ॥१॥ रहाउ ॥ घसि कुंकम चंदनु गारिआ ॥ बिनु नैनहु जगतु निहारिआ ॥ पूति पिता इकु जाइआ ॥ बिनु ठाहर नगरु बसाइआ ॥२॥ जाचक जन दाता पाइआ ॥ सो दीआ न जाई खाइआ ॥ छोडिआ जाइ न मूका ॥ अउरन पहि जाना चूका ॥३॥ जो जीवन मरना जानै ॥ सो पंच सैल सुख मानै ॥ कबीरै सो धनु पाइआ ॥ हरि भेटत आपु मिटाइआ ॥४॥६॥ {पन्ना 655} पद्अर्थ: जिह बाझु = (वह ‘जीवनु मूऐ बिनु नाही’) जिस आत्मिक जीवन के बिना। जउ = अगर (वह ईश्वरीय जीवन)। घाल अघाई = मेहनत तृप्त हो जाती है, मेहनत सफल हो जाती है। कहांही = (लोग) कहते हैं। भलो = भला, अच्छा, सोहणा। सद जीवन = (इस) अटल जीवन (को)। मूऐ बिनु = (चस्कों से) मरे बिना, स्वै भाव छोड़े बिना।1। अब गिआनु बीचारा = (अब = जब) (जब उस सद जीवन) के ज्ञान को विचार लिया है, जब उस अटल जीवन की समझ पड़ गई है। निज निरखत = मेरे देखते हुए। गत बिउहारा = बदलने वाला व्यवहार, बदलने वाली चाल।1। रहाउ। घसि = रगड़ के (भाव, स्वै भाव मिटाने की मेहनत करके)। कुंकम = केसर। गारिआ = गला लिया है, मिला के एक कर दिया है। कुंकम चंदनु = (जीवन सुगंधि देने वाले) आत्मा और परमात्मा। बिनु नैनहु = आँखो के बिना, इन आँखों को रूप आदि देखने की ललक से हटा के। निहारिआ = देख लिया है। पूति = पुत्र ने, जीवात्मा ने। इकु पिता = एक प्रभू पिता को। जाइआ = पैदा कर लिया है, (अपने अंदर) प्रगट कर लिया है। बिनु ठाहर = जिसकी कोई जगह नहीं थी, जो कहीं एक जगह टिकता नहीं था, जो सदा भटकता रहता था।2। जाचक = मंगता। न जाई खाइआ = खाते हुए खत्म नहीं होता। सो = वह कुछ, इतनी आत्मिक दाति। न मूका = नहीं खत्म होता। पहि = पास। चूका = खत्म हो गया है।3। जो = जो मनुष्य। जीवन मरना = (इस सद-) जीवन के लिए स्वै-भाव मिटानां। सैल = शैल सा, पहाड़ जैसा अटल। मानै = मानता है। पंच = संत। कबीरै = कबीर ने। आपु = स्वै भाव।4। अर्थ: जिस (सदा-स्थिर रहने वाले आत्मिक जीवन) के बिना जीआ नहीं जा सकता, और अगर वह जीवन मिल जाए तो मेहनत सफल हो जाती है, जो जीवन सदा कायम रहने वाला है, और जिसे लोग बढ़िया जीवन कहते हैं, वह जीवन स्वै-भाव त्यागे बिना नहीं मिल सकता।1। जब उस ‘सद् जीवन’ की समझ पड़ जाती है तब उसके बयान करने की जरूरत नहीं रहती। (वैसे उसका नतीजा ये निकलता है कि) अपने देखते हुए ही (जगत की सदा) बदलते रहने की चाल देख ली जाती है (भाव, ये देख लिया जाता है कि जगत सदा बदल रहा है, पर स्वै को मिटा के मिला हुआ जीवन अॅटल रहता है)।1। रहाउ। जिस पुत्र (जीवात्मा) ने मेहनत करके अपने प्राणों को प्रभू में मिला दिया है, उसने अपनी आँखों को जगत-तमाशे से हटा के जगत (की सच्चाई) को देख लिया है। उसने अपने अंदर अपने प्रभू-पिता को प्रकट कर लिया है, पहले वह सदा बाहर भटकता था, अब (उसने अपने अंदर, जैसे) शहर बसा लिया है (भाव, उसके अंदर वह गुण पैदा हो गए हैं कि वह अब बाहर नहीं भटकता)।2। जो मनुष्य मंगता (बन के प्रभू के दर से मांगता) है उसे दाता प्रभू खुद-ब-खुद मिल जाता है, उसको वह इतनी आत्मिक जीवन की दाति बख्शता है जो खर्चने से खत्म नहीं होती। उस दाति को ना छोड़ने को जी करता है, ना वह खत्म होती है, (और उसकी बरकति से) औरों के दर की भटकना समाप्त हो जाती है।3। जो मनुष्य इस आत्मिक अटल जीवन की खातिर स्वै-भाव मिटाने की जाच सीख लेता है, वह संतों वाले अटल आत्मिक सुख भोगता है। मैं कबीर ने (भी) वह (आत्मिक जीवन-रूप) धन प्राप्त कर लिया है, और प्रभू के चरणों में जुड़ के स्वै-भाव मिटा लिया है।4।6। शबद का भाव: ऊँचा आत्मिक जीवन स्वै भाव मिटा के ही मिलता है। जिस मनुष्य ने स्वै भाव मिटा लिया है, उसका मन जगत के रंग-तमाशों में नहीं फसता। किआ पड़ीऐ किआ गुनीऐ ॥ किआ बेद पुरानां सुनीऐ ॥ पड़े सुने किआ होई ॥ जउ सहज न मिलिओ सोई ॥१॥ हरि का नामु न जपसि गवारा ॥ किआ सोचहि बारं बारा ॥१॥ रहाउ ॥ अंधिआरे दीपकु चहीऐ ॥ इक बसतु अगोचर लहीऐ ॥ बसतु अगोचर पाई ॥ घटि दीपकु रहिआ समाई ॥२॥ कहि कबीर अब जानिआ ॥ जब जानिआ तउ मनु मानिआ ॥ मन माने लोगु न पतीजै ॥ न पतीजै तउ किआ कीजै ॥३॥७॥ {पन्ना 655-656} पद्अर्थ: किआ = क्या लाभ? गुनीअै = (संस्कृत:गण्) विचारें। किआ होई = कोई लाभ नहीं होगा। जउ = अगर। सहज = (सं: सहज = as natural result of) कुदरती नतीजे के तौर पर स्वाभाविक ही। सोई = वह प्रभू।1। न जपसि = तू जपता नहीं। गवारा = हे गवार! हे मूर्ख! बारं बारा = बार बार।1। रहाउ। अंधिआरे = अंधेरे में। चहीअै = चाहिए, जरूरत होती हैं। अगोचर = जिस तक ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच ना हो सके (अ+गो+चर)। लहीअै = मिल गए। पाई = (जिसने) पा ली। घटि = (उसके) हृदय में। समाई रहिआ = अडोल जलता रहता है।2। कहि = कहे, कहता है। अब = अब (जब ‘अगोचर वस्तु’ मिल गई है)। जानिआ = जान लिया है, समझ पड़ गई है, जान पहिचान हो गई है। मानिआ = मान गया, पतीज गया है, संतुष्ट हो गया है। तउ = तो। किआ कीजै = क्या किया जाए? कोई मुथाजी नहीं होती।3। अर्थ: हे मूर्ख! तू परमात्मा का नाम (तो) सिमरता नहीं (नाम को विसार के) बार बार और सोचें सोचने का तुझे क्या फायदा होगा?।1। रहाउ। (हे गवार!) वेद-पुराण पुस्तकें निरी पढ़ने-सुनने का कोई फायदा नहीं, अगर इस पढ़ने-सुनने के कुदरती नतीजे के तौर पर उस प्रभू का मिलाप ना हो।1। अंधेरे में (तो) दीए की जरूरत होती है (ता कि अंदर से) वह हरी-नाम पदार्थ मिल जाए, जिस तक इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती, (इस तरह धार्मिक पुस्तकें पढ़ने से उस ज्ञान का दीपक मन में जलना चाहिए जिससे अंदर बसता ईश्वर मिल जाए)। जिस मनुष्य को वह अपहुँच हरी-नाम पदार्थ मिल जाता है, उस के अंदर वह दीया फिर सदा टिका रहता है।2। कबीर कहता है– उस अपहुँच हरी-नाम पदार्थ से मेरी भी जान-पहचान हो गई है। जब से ये जान-पहचान हुई है, मेरा मन उसी में ही परच गया है। (पर जगत चाहता है धर्म-पुस्तकों के रिवायती पाठ करने करवाने और तीर्थ आदि के स्नान; सो) परमात्मा में मन जोड़ने से (कर्म-काण्डी) जगत की तसल्ली नहीं होती; (दूसरी तरफ) नाम सिमरन वाले को भी ये मुथाजी नहीं होती कि जरूर ही लोगों की तसल्ली भी कराए, (तभी तो, आम तौर पर इनका मेल नहीं हो पाता)।3।7। शबद का भाव: अगर मनुष्य की लगन प्रभू के नाम में नहीं बनती तो धर्म-पुस्तकों के पाठ कराने का भी कोई लाभ नहीं होता। ये पाठ करवाने सिर्फ लोकाचारी ही रह जाते हैं।7। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |