श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जउ हम बांधे मोह फास हम प्रेम बधनि तुम बाधे ॥ अपने छूटन को जतनु करहु हम छूटे तुम आराधे ॥१॥ माधवे जानत हहु जैसी तैसी ॥ अब कहा करहुगे ऐसी ॥१॥ रहाउ ॥ मीनु पकरि फांकिओ अरु काटिओ रांधि कीओ बहु बानी ॥ खंड खंड करि भोजनु कीनो तऊ न बिसरिओ पानी ॥२॥ आपन बापै नाही किसी को भावन को हरि राजा ॥ मोह पटल सभु जगतु बिआपिओ भगत नही संतापा ॥३॥ कहि रविदास भगति इक बाढी अब इह का सिउ कहीऐ ॥ जा कारनि हम तुम आराधे सो दुखु अजहू सहीऐ ॥४॥२॥ {पन्ना 658}

पद्अर्थ: बांधे = बँधे हुए हैं। फास = फाही। बधनि = रस्सी से। तुम = तुझे। को = का।1।

जानत हउ = तुम जानते हो। जैसी = जैसी (भक्तों की प्रीति है तेरे साथ)। अैसी = ऐसी प्रीति के होते हुए। कहा करहुगे = क्या करोगे? इस के बिना और क्या करेगा? (भाव, तू जरूर अपने भक्तों को मोह से बचाए रखेगा)।1। रहाउ।

मीनु = मछली। पकरि = पकड़ के। फांकिओ = टुकड़े = टुकड़े कर दी। रांधि कीओ = पकाई। बहु बानी = कई तरीकों से। खंड = टुकड़ा। तऊ = तो भी।2।

बापै = पिता की (मल्कियत)। भावन को = प्रेम का (बँधा हुआ)। राजा = जगत का मालिक । पटल = पर्दा। बिआपिओ = छाया हुआ है। संताप = (मोह का) कलेश।3।

(नोट: भगत रविदास जी अपनी बाणी में परमात्मा के लिए शब्द ‘राजा’ भी बहुत बार बरतते हैं; हरेक कवि का अपना–अपना स्वभाव होता है कि कोई खास शब्द उसे बार–बार प्रयोग में लाना उसे प्यारा लगता है)।

भगति इक = एक प्रभू की भक्ति। बाढी = बढ़ाई है, दृढ़ की है। अब...कहीअै = अब किसी के साथ ये बात करने की जरूरत ही ना रही। जा कारनि = जिस (मोह से बचने) की खातिर। अजहू = अब तक।4।

अर्थ: हे माधो! तेरे भक्त जैसा प्यार तेरे साथ करते हैं वह तुझसे छुपा नहीं रह सकता (तू अच्छी तरह जानता है), ऐसी प्रीति के होते हुए तूम जरूर उन्हें मोह से बचाए रखते हो।1। रहाउ।

(सो, हे माधो!) अगर हम मोह के बँधनों में बँधे हुए थे, तो हमने अब तुझे अपने प्यार की रस्सी से बाँध लिया है। हम तो (उस मोह के बँधनों से) तुझे सिमर के निकल आए हैं, तुम हमारे प्यार की जकड़ में से अब कैसे निकलोगे?

(हमारा तेरे साथ प्यार भी वह है जो मछली को पानी के साथ होता है, हमने तो मर के भी तेरी याद नहीं छोड़नी) मछली (पानी में से) पकड़ के टुकड़े-टुकड़े कर दें, हिस्से कर दें और कई प्रकार से पका लें, फिर रक्ती रक्ती करके खा लें, फिर भी उस मछली को पानी नहीं भूलता (जिस खाने वाले के पेट में जाती है उसको भी पानी की प्यास लगा देती है)।2।

जगत का मालिक हरी किसी के पिता की (जद्दी मल्कियत) नहीं है, वह तो प्रेम का बँधा हुआ है। (इस प्रेम से वंचित सारा जगत) मोह के पर्दे में फंसा पड़ा है, पर (प्रभू के साथ प्रेम करने वाले) भक्तों को (इस मोह का) कोई कलेश नहीं होता।3।

रविदास कहता है– (हे माधो!) मैं एक तेरी भक्ति (अपने हृदय में) इतनी दृढ़ की है कि मुझे अब किसी के साथ ये गिला करने की जरूरत नहीं रह गई कि जिस मोह से बचने के लिए मैं तेरा सिमरन कर रहा था, उस मोह का दुख मुझे अब तक सहना पड़ रहा है (भाव, उस मोह का तो अब मेरे अंद रनाम-निशान भी नहीं रह गया)।4।2।

शबद का भाव: माया के मोह की फाही को तोड़ने का एक-मात्र तरीका है–प्रभू के चरनों में प्यार।

दुलभ जनमु पुंन फल पाइओ बिरथा जात अबिबेकै ॥ राजे इंद्र समसरि ग्रिह आसन बिनु हरि भगति कहहु किह लेखै ॥१॥ न बीचारिओ राजा राम को रसु ॥ जिह रस अन रस बीसरि जाही ॥१॥ रहाउ ॥ जानि अजान भए हम बावर सोच असोच दिवस जाही ॥ इंद्री सबल निबल बिबेक बुधि परमारथ परवेस नही ॥२॥ कहीअत आन अचरीअत अन कछु समझ न परै अपर माइआ ॥ कहि रविदास उदास दास मति परहरि कोपु करहु जीअ दइआ ॥३॥३॥ {पन्ना 658}

पद्अर्थ: दुलभ = जिसका मिलना बहुत मुश्किल है। पुंन = भले काम। जात = जा रहा है। अबिबेकै = विचार हीनता के कारण, अंजानपने में। समसरि = जैसे, के बराबर। किह लेखै = किस काम आए? किसी अर्थ नहीं।1।

राजा = जगत का मालिक। रसु = (मिलाप का) आनंद। जिह रस = जिस रस की बरकति से। अन रस = और चस्के।1। रहाउ।

जानि = जान बूझ के। अजान = अंजान। बावर = पागल। सोच असोच = अच्छी बुरी सोचें। दिवस = उमर के दिन। जाही = गुजर रहे हैं। इन्द्री = काम वासना। सबल = बलवान। निबल = कमजोर। बिबेक बुधि = परखने की बुद्धि। परमारथ = परम+अर्थ,सबसे बड़ी जरूरत। परवेस = दख़ल।2।

आन = कुछ और। अचरीअत = कमाते हैं। अन कछु = कुछ और। अपर = अपार, बली। उदास = उपराम, आशाओं से बचा हुआ। परहरि = छोड़ के, दूर करके। कोपु = गुस्सा। जीअ = जीवात्मा पर।3।

अर्थ: (हम मायाधरी जीवों ने) जगत-प्रभू परमात्मा के नाम के उस आनंद को कभी नहीं विचारा, जिस आनंद की बरकति से (माया के) और सारे चस्के दूर हो जाते हैं।1। रहाउ।

ये मानस जन्म बड़ी मुश्किल से मिलता है, (पिछले किए) भले कामों के फल के कारण हमें मिल गया, पर हमारे अंजानपने में ये व्यर्थ ही जा रहा है; (हमने कभी सोचा ही नहीं कि) अगर प्रभू की बँदगी से वंचित रहे तो (देवताओं के) राजा इन्द्र के स्वर्ग जैसे महल-माढ़ियां भी किसी काम के नहीं हैं।1।

(हे प्रभू!) जानते-बूझते हुए भी हम कमले और मूर्ख बने हुए हैं, हमारी उम्र के दिन (माया की ही) अच्छी-बुरी विचारों में गुजर रहे हैं, हमारी काम-वासना बढ़ रही है, विचार-शक्ति कम हो रही है, इस बात की हमें कभी सोच ही नहीं आई कि हमारी सबसे बड़ी जरूरत क्या है।2।

हम कहते और हैं और करते कुछ और हैं, माया इतनी बलवान हो रही है कि हमें (अपनी मूर्खता की) समझ ही नहीं पड़ती। (हे प्रभू!) तेरा दास रविदास कहता है– मैं अब इस (मूर्खपने से) उपराम हो गया हूँ, (मेरे अंजानपने पर) गुस्सा ना करना और मेरी आत्मा पर मेहर करनी।3।3।

भाव: माया का मोह मनुष्य को असल निशाने से गिरा देता है।

सुख सागरु सुरतर चिंतामनि कामधेनु बसि जा के ॥ चारि पदारथ असट दसा सिधि नव निधि कर तल ता के ॥१॥ हरि हरि हरि न जपहि रसना ॥ अवर सभ तिआगि बचन रचना ॥१॥ रहाउ ॥ नाना खिआन पुरान बेद बिधि चउतीस अखर मांही ॥ बिआस बिचारि कहिओ परमारथु राम नाम सरि नाही ॥२॥ सहज समाधि उपाधि रहत फुनि बडै भागि लिव लागी ॥ कहि रविदास प्रगासु रिदै धरि जनम मरन भै भागी ॥३॥४॥ {पन्ना 658}

पद्अर्थ: सुरतर = स्वर्ग के वृक्ष, ये गिनती में पाँच हैं– मंदार, पारिजाति, संतान, कल्पवृक्ष, हरिचंदन (पंचैते देवतरवो मंदार: पारिजातक: संतान: कल्पवृक्षश्य पुंसि वा हरिचंदनम्॥ )।

चिंतामनि = वह मणि जिससे मन की हरेक चितवनी पूरी हो जाती मानी जाती है। कामधेनु = (काम = वासना, धेनु = गाय) हरेक वासना पूरी करने वाली गाय (स्वर्ग में रहती मानी जाती है)। बसि = वश में। जा के = जिस परमात्मा के। चारि पदारथ = धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। असट दसा = (8+10) अठारह। नव निधि = कुबेर देवते के नौ खजाने। कर तल = हाथ की तलियों पर।1।

रसना = जीभ से। बचन रचना = फोकी बातें। तिआगि = त्याग के।1। रहाउ।

नाना = कई किस्म के। खिआन = प्रसंग (स: आरब्यान)। बेद बिधि = वेदों में बताई गई धार्मिक विधियां। चउतीस अखर = (अ इ उ स=4, पांच वर्ग, क = वर्ग आदि=25, य र ल व ह=5, कुल जोड़=34)। परमारथु = परम+अर्थ, सबसे ऊँची बात। सरि = बराबर।2।

नोट: असल ‘हृस्व’ सिर्फ 3 हैं, ‘उ अ इ’, बाकी के इनसे ही बने हैं लग–मात्राएं लगा के)। चउतीस अखर माही–34 अक्षरों में ही, निरी वाक्य रचना, सिर्फ बातें जो आत्मिक जीवन से नीचे हैं।

सहज समाधि = मन का पूर्ण टिकाव। सहज = आत्मिक अडोलता। उपाधि = कलेश। फुनि = फिर, दुबारा। बडै भागि = बड़ी किस्मत से। कहि = कहे, कहता है। रिदै = हृदय में। भागी = दूर हो जाते हैं।3।

अर्थ: (हे पण्डित!) जो प्रभू सुखों का समुंद्र है, जिस प्रभू के वश में स्वर्ग के पाँचों वृक्ष, चिंतामणि और कामधेनु हैं, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष चारों पदार्थ, अठारहों सिद्धियां और नौ निधियां ये सब उसी के हाथों की तलियों पर हैं।1।

(हे पण्डित!) तू और सारी फोकियां बातें छोड़ के (अपनी) जीभ से सदा एक परमात्मा का नाम क्यों नहीं सिमरता?।1। रहाउ।

(हे पण्डित!) पुराणों के अनेक किस्म के प्रसंग, वेदों की बताई हुई विधियां, ये सब वाक्य-रचना ही हैं (अनुभवी ज्ञान नहीं जो प्रभू की रचना में जुड़ने से हृदय में पैदा होता है)। (हे पण्डित! वेदों के खोजी) व्यास ऋषि ने सोच-विचार के यही धर्म-तत्व बताया है कि (इन पुस्तकों के पाठ आदि) परमात्मा के नाम का सिमरन करने के की बराबरी नहीं कर सकते। (फिर तू क्यों नाम नहीं सिमरता?)।2।

रविदास कहता है– बड़ी किस्मत से जिस मनुष्य की सुरति प्रभू-चरणों में जुड़ती है उसका मन आत्मिक अडोलता में टिका रहता है। कोई विकार उसमें नहीं उठता, वह मनुष्य अपने हृदय में रोशनी प्राप्त करता है, और, जनम-मरण (भाव, सारी उम्र) के उसके डर नाश हो जाते हैं।3।4।

भाव: सब पदार्थों का दाता प्रभू खुद है। उसका सिमरन करो, कोई भूख नहीं रह जाएगी।

जउ तुम गिरिवर तउ हम मोरा ॥ जउ तुम चंद तउ हम भए है चकोरा ॥१॥ माधवे तुम न तोरहु तउ हम नही तोरहि ॥ तुम सिउ तोरि कवन सिउ जोरहि ॥१॥ रहाउ ॥ जउ तुम दीवरा तउ हम बाती ॥ जउ तुम तीरथ तउ हम जाती ॥२॥ साची प्रीति हम तुम सिउ जोरी ॥ तुम सिउ जोरि अवर संगि तोरी ॥३॥ जह जह जाउ तहा तेरी सेवा ॥ तुम सो ठाकुरु अउरु न देवा ॥४॥ तुमरे भजन कटहि जम फांसा ॥ भगति हेत गावै रविदासा ॥५॥५॥ {पन्ना 658-659}

पद्अर्थ: जउ = अगर। गिरि = पहाड़। गिरिवर = सुंदर पहाड़। तउ = तो। भऐ हैं– बनाऊँगा।1।

न तोरहु = ना तोड़। हम नही तोरहि = हम नहीं तोड़ेंगे, मैं नहीं तोड़ूँगा। तोरि = तोड़ के। सिउ = से।1। रहाउ।

दीवरा = सुंदर सा दीया। बाती = बक्ती। जाती = यात्री।2।

अवर संगि = औरों से।3।

जह जह = जहाँ जहाँ। तुम सो = तेरे जैसा। ठाकुरु = मालिक। देवा = हे देव!।4।

कटहि = काटे जाते हैं। फांसा = फंदे। भगति हेति = भक्ति हासिल करने के लिए।5।

अर्थ: हे माधो! अगर तू (मेरे से) प्यार ना तोड़े, तो मैं भी नहीं तोड़ूंगा; क्योंकि तेरे से तोड़ के मैं और किसके साथ जोड़ सकता हूँ? (और कोई, हे माधो! तेरे जैसा है ही नहीं)।1। रहाउ।

हे मेरे माधो! अगर तू सुदर सा पहाड़ बने, तो मैं (तेरा) मोर बनूँगा (तुझे देख-देख के मैं नृत्य करूँगा)। अगर तू चाँद बने तो मैं तेरा चकोर बनूँगा (और तुझे देख-देख के खुश हो-हो के बोलूँगी)।1।

हे माधो! अगर तू सुंदर सा दीया बने, मैं (तेरी) बाती बन जाऊँ। अगर तू तीर्थ बन जाए तो मैं (तेरा दीदार करने के लिए) यात्री बन जाऊँगा।2।

हे प्रभू! मैंने तेरे साथ पक्का प्यार डाल लिया है। तेरे साथ प्रीति जोड़ के मैंने और सभी से तोड़ ली है।3।

हे माधो! मैं जहाँ जहाँ (भी) जाता हूँ (मुझे हर जगह तू ही दिखता है, मैं हर जगह) तेरी ही सेवा करता हूँ। हे देव! तेरे जैसा कोई और मालिक मुझे नहीं दिखां4।

तेरी बँदगी करने से जमों के बँधन कट जाते हैं, (तभी तो) रविदास तेरी भक्ति का चाव हासिल करने के लिए तेरे गुण गाता है।5।5।

शबद का भाव: प्रभू की मेहर से ही उसके चरणों में प्रीति जुड़ी रह सकती है। वही प्रीति ऊँचे दर्जे की है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh