श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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धनासरी महला ३ ॥ जो हरि सेवहि तिन बलि जाउ ॥ तिन हिरदै साचु सचा मुखि नाउ ॥ साचो साचु समालिहु दुखु जाइ ॥ साचै सबदि वसै मनि आइ ॥१॥ गुरबाणी सुणि मैलु गवाए ॥ सहजे हरि नामु मंनि वसाए ॥१॥ रहाउ ॥ कूड़ु कुसतु त्रिसना अगनि बुझाए ॥ अंतरि सांति सहजि सुखु पाए ॥ गुर कै भाणै चलै ता आपु जाइ ॥ साचु महलु पाए हरि गुण गाइ ॥२॥ न सबदु बूझै न जाणै बाणी ॥ मनमुखि अंधे दुखि विहाणी ॥ सतिगुरु भेटे ता सुखु पाए ॥ हउमै विचहु ठाकि रहाए ॥३॥ किस नो कहीऐ दाता इकु सोइ ॥ किरपा करे सबदि मिलावा होइ ॥ मिलि प्रीतम साचे गुण गावा ॥ नानक साचे साचा भावा ॥४॥५॥ {पन्ना 665}

पद्अर्थ: सेवहि = सेवा करते हैं, सिमरते हैं। जाउ = जाऊँ, मैं जाता हूँ। बलि = कुर्बान। हिरदै = हृदय में। साचु = सदा कायम रहने वाला हरी। मुखि = मुँह में। सचा = सदा स्थिर। साचो साचु = सदा स्थिर प्रभू ही। समालिहु = (हे भाई!) संभाल के रखा करो। सबदि = शबद के द्वारा।1।

सुणि = (हे भाई!) सुना कर। सहजे = आत्मिक अडोलता में। मंनि = मन में।1। रहाउ।

कूड़ ु कुसतु = झूठ फरेब। अगनि = आग। भाणै = रजा में। आपु = स्वै भाव। महलु = ठिकाना।2।

बूझै = समझता। जाणै = सांझ पाता। दुखि = दुख में। विहाणी = बीतती है। भेटे = मिलता है। तां = तब। विचहु = मन में। ठाकि = रोक के।3।

सबदि = शबद से। मिलि = मिल के। साचे भावा = सदा स्थिर प्रभू को अच्छी लगूँ। गावा = गाऊँ।4।

किस नो: ‘किसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! गुरू की बाणी सुना कर, (ये बाणी मन में से विकारों की) मैल दूर कर देती है। (ये बाणी) आत्मिक अडोलता में (टिका के) परमात्मा का नाम मन में बसा देती है।1। रहाउ।

(हे भाई! गुरबाणी का आसरा ले के) जो मनुष्य परमात्मा का सिमरन करते हैं, मैं उनसे कुर्बान जाता हूँ। उनके हृदय में सदा-स्थिर प्रभू बसा रहता है, उनके मुँह में सदा-स्थिर हरी-नाम टिका रहता है। हे भाई! सदा स्थिर प्रभू को ही (दिल में) संभाल के रखा करो (इसकी बरकति से हरेक) दुख दूर हो जाते हैं। सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह वाले शबद में जुड़ने से (हरी-नाम) मन में आ बसता है।1।

(हे भाई! गुरू की बाणी मन में से) झूठ-फरेब खत्म कर देती है, तृष्णा की आग बुझा देती है। (गुरबाणी की बरकति से) मन में शांति पैदा हो जाती है, आत्मिक अडोलता में टिका जाते हैं, आत्मिक आनंद प्राप्त होता है। (जब मनुष्य गुरबाणी के अनुसार) गुरू की रजा में चलता है, तब (उसके अंदर से) स्वै भाव दूर हो जाता है, तब वह प्रभू की सिफत सालाह के गीत गा गा के सदा स्थिर रहने वाला ठिकाना प्राप्त कर लेता है (प्रभू चरणों में लीन रहता है)।2।

हे भाई! जो मनुष्य ना गुरू के शबद को समझता है, ना गुरू की बाणी से गहरी सांझ डालता है, माया के मोह में अंधे हो चुके, और अपने मन के पीछे चलने वाले (उस मनुष्य की उम्र) दुख में ही गुजरती है। जब उसको गुरू मिल जाता है, तब वह आत्मिक आनंद हासिल करता है, गुरू उसके मन में से अहंकार को मार खत्म कर देता है।

पर, हे भाई! (परमात्मा के बिना) और किसी के आगे अरजोई की नहीं जा सकती। सिर्फ परमात्मा ही (गुरू के मिलाप की दाति) देने वाला है। जब परमात्मा (ये) कृपा करता है, तब गुरू के शबद में जुड़ने से (प्रभू से) मिलाप हो जाता है। हे नानक! (कह– अगर प्रभू की मेहर हो तो) मैं प्रीतम गुरू को मिल के सदा-स्थिर प्रभू के गीत गा सकता हूँ, सदा स्थिर प्रभू का नाम जप-जप के सदा-स्थिर प्रभू को प्यारा लग सकता हूँ।4।5।

धनासरी महला ३ ॥ मनु मरै धातु मरि जाइ ॥ बिनु मन मूए कैसे हरि पाइ ॥ इहु मनु मरै दारू जाणै कोइ ॥ मनु सबदि मरै बूझै जनु सोइ ॥१॥ जिस नो बखसे हरि दे वडिआई ॥ गुर परसादि वसै मनि आई ॥ रहाउ ॥ गुरमुखि करणी कार कमावै ॥ ता इसु मन की सोझी पावै ॥ मनु मै मतु मैगल मिकदारा ॥ गुरु अंकसु मारि जीवालणहारा ॥२॥ मनु असाधु साधै जनु कोई ॥ अचरु चरै ता निरमलु होई ॥ गुरमुखि इहु मनु लइआ सवारि ॥ हउमै विचहु तजै विकार ॥३॥ जो धुरि रखिअनु मेलि मिलाइ ॥ कदे न विछुड़हि सबदि समाइ ॥ आपणी कला आपे प्रभु जाणै ॥ नानक गुरमुखि नामु पछाणै ॥४॥६॥ {पन्ना 665}

पद्अर्थ: मरै = (विकारों की ओर से) मर जाता है (उस पर विकारों का असर नहीं होता)। धातु = दौड़ भाग, तृष्णा। कैसे पाइ = कैसे पाए? नहीं पा सकता। कोइ = कोई एक आध। सबदि = गुरू के शबद से। सोइ जनु = वही मनुष्य।1।

दे = देता है। वडिआई = इज्जत। परसादि = कृपा से। मनि = मन में। आइ = आ के। रहाउ।

जिसनो: ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहके। करणी = करने योग्य। ता = तब। मै मतु = नशे में मस्त। मै = शराब, अहंकार की शराब। मैगल = हाथी। मिकदारा = बराबर, जितना। अंकसु = लोहे की सीख़ जिससे महावत हाथी को चलाता है। जीवालणहारा = जिंदगी देने की समर्था वाला।2।

असाधु = वश में ना आ सकने वाला, जिसे साधा ना जा सके। साधै = वश में लाता है। कोई = कोई विरला। चरै = खा लेता है, मार मुकाता है। अचरु = जो खाया ना जा सके।3।

राखिअनु = उस (परमात्मा) ने रखे हैं। मिलाइ रखिअनु = उसने मिला के रखे हैं। जो = जिन (मनुष्य) ने। विछुड़हि = बिछुड़ते हैं। सबदि = शबद में। समाइ = लीन हो के। कला = सक्ता, ताकत। आपे = खुद ही। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य।4।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा बख्शिश करता है, जिसको इज्जत देता है, उस मनुष्य के मन में गुरू की कृपा से (परमात्मा का नाम) आ बसता है। रहाउ।

(हे भाई! उस हरी-नाम की बरकति से मनुष्य का) मन विकारों का असर नहीं कबूलता, मन की तृष्णा समाप्त हो जाती है। जब तक मन विकारों से अछूता नहीं होता, मनुष्य परमात्मा का मिलाप प्राप्त नहीं कर सकता। हे भाई! कोई विरला मनुष्य ही वह दवाई जानता है, जिसके इस्तेमाल से इस मन पर विकारों का असर ना हो सके। (जो मनुष्य गुरू के शबद में जुड़ता है) वह मनुष्य समझ लेता है कि गुरू के शबद में जुड़ने से मन विकारों से अछूता हो जाता है।1।

हे भाई! जब मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर (गुरू की ओर से मिले) करने योग्य काम करने आरम्भ कर देता है, तब उसको इस मन (को वश में रखने) की समझ आ जाती है। (जब मनुष्य ये समझ लेता है कि) मन (अहंकार के) नशे में मस्त हो के (मस्त) हाथी जैसा हुआ रहता है, गुरू ही (अपने शबद का) अंकुश बरत के (विकारों में आत्मिक मौत मरे हुए मन को) आत्मिक जीवन देने की समर्था रखता है।2।

हे भाई! ये मन बड़ी मुश्किल से वश में आता है, कोई विरला मनुष्य इसे बस में लाता है। जब मनुष्य (गुरू की शरण पड़ कर मन के) असाध रोग (कामादिक) को खत्म कर लेता है, तब (इसका मन) पवित्र हो जाता है। गुरू की शरण पड़े रहने वाला मनुष्य इस मन को सुंदर बना लेता है, और अपने अंदर से अहंकार आदि विकारों को निकाल देता है।3।

हे भाई! जिन मनुष्यों को उस (परमात्मा) ने धुर से ही अपने चरणों में जोड़े रखा है, वह गुरू के शबद में लीन रहके कभी भी (प्रभू से) नहीं विछुड़ते। हे भाई! प्रभू खुद ही अपनी छुपी हुई शक्ति को जानता है (कि किस को वह अपने साथ जोड़े रखता है)। हे नानक! गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य परमात्मा के नाम से सांझ बनाए रखता है।4।6।

धनासरी महला ३ ॥ काचा धनु संचहि मूरख गावार ॥ मनमुख भूले अंध गावार ॥ बिखिआ कै धनि सदा दुखु होइ ॥ ना साथि जाइ न परापति होइ ॥१॥ साचा धनु गुरमती पाए ॥ काचा धनु फुनि आवै जाए ॥ रहाउ ॥ मनमुखि भूले सभि मरहि गवार ॥ भवजलि डूबे न उरवारि न पारि ॥ सतिगुरु भेटे पूरै भागि ॥ साचि रते अहिनिसि बैरागि ॥२॥ चहु जुग महि अम्रितु साची बाणी ॥ पूरै भागि हरि नामि समाणी ॥ सिध साधिक तरसहि सभि लोइ ॥ पूरै भागि परापति होइ ॥३॥ सभु किछु साचा साचा है सोइ ॥ ऊतम ब्रहमु पछाणै कोइ ॥ सचु साचा सचु आपि द्रिड़ाए ॥ नानक आपे वेखै आपे सचि लाए ॥४॥७॥ {पन्ना 665}

पद्अर्थ: काचा = कच्चा, टूट जाने वाला, नाशवान। संचहि = इकट्ठा करते हैं। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। भूले = गलत रास्ते पर पड़े हुए। अंध = (माया के मोह में) अंधे। बिखिआ = माया। कै धनि = के धन से। परापति = तसल्ली, संतोष, तृप्ति।1।

साचा = सदा कायम रहने वाला। गुरमती = गुरू की मति पर चल के। फुनि = बार बार। आवै = मिलता है। जाऐ = हाथ से चला जाता है। रहाउ।

सभि = सारे। मरहि = आत्मिक जीवन गवा लेते हैं। भवजलि = संसार समुंद्र में। उरवारि = इस पार। पारि = उस पार। भेटे = मिलता है। भागि = किस्मत से। साचि = सदा स्थिर हरी नाम। रते = मस्त। अहि = दिन। निसि = रात। बैरागि = वैराग में।2।

चहु जुग महि = चारों युगों में, सदा ही। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम। साची बाणी = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह की बाणी। नामि = नाम में। सिध = करामाती योगी। साधिक = साधना करने वाले। सभि = सारे। लोइ = लोक में, जगत में।3।

सभु किछु = हरेक चीज। साचा = सदा स्थिर रहने वाला प्रभू। सोइ = वह (प्रभू) ही। कोइ = कोई विरला मनुष्य। पछाणै = पहचानता है, सांझ डालता है। सचु साचा = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। सचु = सदा स्थिर हरी-नाम। द्रिढ़ाऐ = (दिल में) पक्का करता है। आपे = खुद ही। वेखै = संभाल करता है। सचि = सदा स्थिर हरी नाम में।4।

अर्थ: जो मनुष्य गुरू की मति पर चलते हैं, वे सदा कायम रहने वाले हरी-नाम-धन को हासिल कर लेते हैं। (पर दुनिया वाला) नाशवंत धन कभी मनुष्य को मिल जाता है कभी हाथ से निकल जाता है। रहाउ।

हे भाई! मूर्ख अंजान लोग (सिर्फ दुनियावी) नाशवंत धन (ही) जोड़ते हैं। अपने मन के पीछे चलने वाले, माया के मोह में अंधे हुए मनुष्य गलत रास्ते पर पड़े रहते हैं। हे भाई! माया के धन से सदा दुख (ही) मिलता है। ये धन ना ही मनुष्य के साथ जाता है और ना ही (इसे इकट्ठा कर-करके) संतोष ही मिलता है।1।

हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (माया के मोह के कारण) गलत राह पड़ कर आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं, संसार समुंद्र में डूब जाते हैं, ना इस पार रहते हैं, ना उस पार (ना ये माया आखिर तक साथ निभाती है, ना नाम-धन जोड़ा होता है)। जिन मनुष्यों को पूरी किस्मत से गुरू मिल जाता है वह दिन रात (हर वक्त) सदा-स्थिर हरी-नाम में मगन रहते हैं (नाम की बरकति से माया की ओर से) उपरामता में टिके रहते हैं।2।

हे भाई! सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह वाली गुरबाणी सदा ही आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल (बाँटती है), पूरी किस्मत से (मनुष्य इस बाणी की बरकति से) परमात्मा के नाम में लीन हो जाता है। हे भाई! करामाती योगी और साधना करने वाले योगी सारे ही जगत में (इस बाणी की खातिर) तरले लेते हैं, पर पूरी किस्मत से मिलती है।3।

हे भाई! जो कोई विरला मनुष्य पवित्र-स्वरूप परमात्मा के साथ सांझ डालता है उसे हरेक चीज़ सदा-स्थिर प्रभू का रूप दिखाई देती है, उसे हर जगह वह सदा-स्थिर प्रभू ही बसता दिखता है। हे नानक! सदा-स्थिर रहने वाला परमात्मा अपना सदा-स्थिर नाम खुद ही (मनुष्य के दिल में) पक्का करता है। वह खुद ही (सबकी) संभाल करता है, और खुद ही (जीवों को) अपने सदा स्थिर नाम में जोड़ता है।4।7।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh