श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 671 धनासरी मः ५ ॥ करि किरपा दीओ मोहि नामा बंधन ते छुटकाए ॥ मन ते बिसरिओ सगलो धंधा गुर की चरणी लाए ॥१॥ साधसंगि चिंत बिरानी छाडी ॥ अह्मबुधि मोह मन बासन दे करि गडहा गाडी ॥१॥ रहाउ ॥ ना को मेरा दुसमनु रहिआ ना हम किस के बैराई ॥ ब्रहमु पसारु पसारिओ भीतरि सतिगुर ते सोझी पाई ॥२॥ सभु को मीतु हम आपन कीना हम सभना के साजन ॥ दूरि पराइओ मन का बिरहा ता मेलु कीओ मेरै राजन ॥३॥ बिनसिओ ढीठा अम्रितु वूठा सबदु लगो गुर मीठा ॥ जलि थलि महीअलि सरब निवासी नानक रमईआ डीठा ॥४॥३॥ {पन्ना 671} पद्अर्थ: करि = कर के। मोहि = मुझे। ते = से। छुटकाऐ = छुड़ा ले। ते = से। सगलो धंधा = हरेक किस्म के झगड़े झमेले। लाऐ = लगा के।1। संगि = संग में। चिंत = आस। बिरानी = बेगानी। अहंबुधि = अहंकार वाली बुद्धि। बासन = वासना। दे करि = दे कर। गडहा = गड्ढा। गाडी = गाड़ दी।1। रहाउ। किस के = किसी के। बैराई = वैरी। पसारु = पसारा। भीतरि = (हरेक के) अंदर। ते = से।2। सभु को = हरेक प्राणी। हम = हम, मैं। पराइओ = चला गया। बिरहा = (प्रभू से) विछोड़ा। ता = तब। मेलु = मिलाप। मेरै राजन = मेरे प्रभू पातशाह ने।3। ढीठा = ढीठ पन। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। वूठा = आ बसा। सबदु गुर = गुरू का शबद। जलि = पानी में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल के ऊपर, आकाश में, अंतरिक्ष में। रमईआ = सुंदर राम।4। अर्थ: हे भाई! साध-संगति में आ के मैंने पराई आशा छोड़ दी है। अहंकार, माया के मोह, मन की वासना- इन सभी को गड्ढा खोद के दबा दिया (सदा के लिए दबा दिया)।1। रहाउ। (हे भाई! साध-संगति ने) कृपा करके मुझे परमात्मा का नाम दिया, और गुरू के चरणों में लगा के मुझे माया के बँधनों से छुड़ा लिया (जिस के कारण मेरे) मन से सारा झगड़ा-झमेला उतर गया।1। (हे भाई साध-संगति की बरकति से) मेरा कोई दुश्मन नहीं रह गया (मुझे कोई वैरी नहीं दिखता), मैं भी किसी का वैरी नहीं बनता। मुझे गुरू से ये समझ प्राप्त हो गई है कि ये सारा जगत-पसारा परमात्मा खुद ही है, (सबके) अंदर (परमात्मा ने खुद ही खुद को) बिखेरा हुआ है।2। (हे भाई! साध-संगति की बरकति से) हरेक प्राणी को मैं अपना मित्र समझता हूँ, मैं भी सबका मित्र-सज्जन ही बना रहता हूँ। मेरे मन का (परमात्मा से बना हुआ) विछोड़ा (साध-संगति की कृपा से) कहीं दूर चला गया है, जब से मैंने साध-संगति में शरण ली, तब से मेरे प्रभू-पातशाह ने मुझे (अपने चरनों का) मिलाप दे दिया है।3। (हे भाई! साध-संगति की कृपा से मेरे मन का) ढीठ-पन समाप्त हो गया है, मेरे अंदर आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल आ बसा है, गुरू का शबद मुझे प्यारा लग रहा है। हे नानक! (कह– हे भाई!) अब मैंने जल में, धरती में, आकाश में सब जगह बसने वाले सुंदर राम को देख लिया है।4।3। धनासरी मः ५ ॥ जब ते दरसन भेटे साधू भले दिनस ओइ आए ॥ महा अनंदु सदा करि कीरतनु पुरख बिधाता पाए ॥१॥ अब मोहि राम जसो मनि गाइओ ॥ भइओ प्रगासु सदा सुखु मन महि सतिगुरु पूरा पाइओ ॥१॥ रहाउ ॥ गुण निधानु रिद भीतरि वसिआ ता दूखु भरम भउ भागा ॥ भई परापति वसतु अगोचर राम नामि रंगु लागा ॥२॥ चिंत अचिंता सोच असोचा सोगु लोभु मोहु थाका ॥ हउमै रोग मिटे किरपा ते जम ते भए बिबाका ॥३॥ गुर की टहल गुरू की सेवा गुर की आगिआ भाणी ॥ कहु नानक जिनि जम ते काढे तिसु गुर कै कुरबाणी ॥४॥४॥ {पन्ना 671} पद्अर्थ: जब ते = जब से। भेटे = मिले, प्राप्त किए। साधू दरसन = गुरू के दर्शन। ओइ = (‘ओह’ का बहुवचन)। करि = कर के। पुरख बिधाता = सर्व व्यापक करतार। मोहि = मैं। जसो = यश, सिफत सालाह। मनि = मन में। प्रगास = (आत्मिक जीवन देने वाला) प्रकाश।1। रहाउ। निधानु = खजाना। रिद = हृदय। अगोचर वसतु = वह चीज जिस तक ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती (शब्द ‘वस्तु’ स्त्रीलिंग है)। नामि = नाम में। रंगु = प्यार।2। अचिंता = चिंता रहित। असोचा = सोचों से रहित। सोगु = ग़म। ते = से, साथ। बिबाका = निडर, बेबाक।3। भाणी = अच्छी लगती है। जिनि = जिस (गुरू) ने। कै = से। कुरबाणी = सदके।4। अर्थ: हे भाई! मुझे पूरा गुरू मिल गया है, (इस वास्ते उसकी कृपा से) अब मैं परमात्मा की सिफत सालाह (अपने) मन में गा रहा हूँ, (मेरे अंदर आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो गया है, मेरे मन में सदा आनंद बना रहता है।1। रहाउ। हे भाई! जब से गुरू के दर्शन प्राप्त हुए हैं, मेरे ऐसे भले दिन आ गए हैं कि परमात्मा की सिफत सालाह कर करके सदा मेरे अंदर सुख बना रहता है, मुझे सर्व-व्यापक करतार मिल गया है।1। (हे भाई! गुरू की कृपा से जब से) गुणों का खजाना परमात्मा मेरे हृदय में आ बसा है, तब से मेरा दुख-भ्रम-डर दूर हो गया है। परमात्मा के नाम में मेरा प्यार बन गया है, मुझे (वह उक्तम) वस्तु प्राप्त हो गई है जिस तक ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती।2। (हे भाई! गुरू के दर्शनों की बरकति से) मैं सारी चिंताओं व सोचों से बच गया हूँ, (मेरे अंदर से) दुख समाप्त हो गया है, लोभ खत्म हो गया है, मोह दूर हो गया है। (गुरू की) कृपा से (मेरे अंदर से) अहंकार आदि रोग मिट गए हैं, मैं यम-राज से भी अब नहीं डरता।3। हे भाई! अब मुझे गुरू की टहल सेवा, गुरू की रजा ही प्यारी लगती है। हे नानक! कह– हे भाई! मैं उस गुरू से सदके जाता हूँ, जिसने मुझे यमों से बचा लिया है।4।4। धनासरी महला ५ ॥ जिस का तनु मनु धनु सभु तिस का सोई सुघड़ु सुजानी ॥ तिन ही सुणिआ दुखु सुखु मेरा तउ बिधि नीकी खटानी ॥१॥ जीअ की एकै ही पहि मानी ॥ अवरि जतन करि रहे बहुतेरे तिन तिलु नही कीमति जानी ॥ रहाउ ॥ अम्रित नामु निरमोलकु हीरा गुरि दीनो मंतानी ॥ डिगै न डोलै द्रिड़ु करि रहिओ पूरन होइ त्रिपतानी ॥२॥ ओइ जु बीच हम तुम कछु होते तिन की बात बिलानी ॥ अलंकार मिलि थैली होई है ता ते कनिक वखानी ॥३॥ प्रगटिओ जोति सहज सुख सोभा बाजे अनहत बानी ॥ कहु नानक निहचल घरु बाधिओ गुरि कीओ बंधानी ॥४॥५॥ {पन्ना 671} पद्अर्थ: सोई = वह (प्रभू) ही। सुघड़ ु = सुचॅजी आत्मिक घाड़त वाला। सुजानी = सुजान, समझदार। तिन ही = (‘तिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। तउ = तब। नीकी बिधि = अच्छी हालत। खटानी = बन गई।1। जिस का, तिस का: ‘जिसु’ ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है। जीअ की = जिंद की। ऐकै ही पहि = एक परमात्मा के पास ही। मानी = मानी जाती है। अवरि = (शब्द ‘अवर’ का बहुवचन) और। तिन कीमति = उन (प्रयत्नों) की कीमत। जानी = जानी जाती। रहाउ। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। निरमोलकु = जिसका कोई मूल्य ना पाया जा सके। गुरि = गुरू ने। मंतानी = मंत्र। द्रिढ़ करि रहिओ = पक्के तौर पर टिक गया।2। ओइ = (‘ओह’ का बहुवचन)। ओइ बीच = वह दूरियां, वो अंतराल। हम तुम बीच = हमारे तुम्हारे वाले भेदभाव। बिलानी = बीत जाती है, समाप्त हो जाती है। अलंकार = गहने। मिलि = मिल के। थैली = रैणी, ढेली। ता ते = उस (ढेली) से। कनिक = सोना।3। सहज सुख = आत्मिक अडोलता के आनंद। बाजे = बजते हैं। अनहत = एक रस, लगातार। बानी = सिफत सालाह वाली गुरबाणी। निहचल = अटल। गुरि = गुरू ने। बंधानी = मर्यादा।4। अर्थ: हे भाई! जिंद की (अरदास) एक परमात्मा के पास ही मानी जाती है। (परमात्मा के आसरे के बिना लोग) और ज्यादा यत्न करके थक जाते हैं, उन प्रयत्नों का मूल्य एक तिल जितना भी नहीं समझा जाता। रहाउ। हे भाई! जिस प्रभू का दिया हुआ ये शरीर और मन है, ये सारा धन-पदार्थ भी उसी का दिया हुआ है, वही सुचॅजा है और समझदार है। हम जीवों का दुख-सुख (सदा) उस परमात्मा ने ही सुना है, (जब वह हमारी प्रार्थना आरजू सुनता है) तब (हमारी) हालत अच्छी बन जाती है।1। हे भाई! परमात्मा का नाम आत्मिक जीवन देने वाला है, नाम एक ऐसा हीरा है जो किसी मूल्य से नहीं मिल सकता। गुरू ने ये नाम-मंत्र (जिसय मनुष्य को) दे दिया, वह मनुष्य (विकारों में) गिरता नहीं, डोलता नहीं, वह मनुष्य पक्के इरादे वाला बन जाता है, वह मुक्मल तौर पर (माया की ओर से) संतुष्ट रहता है।2। (हे भाई! जिस मनुष्य को गुरू की तरफ से नाम-हीरा मिल जाता है, उसके अंदर से) उस मेर-तेर वाले सारे भेदभाव वाली बात खत्म हो जाती है जो जगत में बड़े प्रबल हैं। (उस मनुष्य को हर तरफ से परमात्मा ही ऐसा दिखता है, जैसे) अनेकों गहने मिल के (गलाए जाने पर) रैणी बन जाते हैं, और उस ढेली के रूप में भी वह सोना ही कहलाते हैं।3। (हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर गुरू की कृपा से) परमात्मा की ज्योति का प्रकाश हो जाता है, उसके अंदर आत्मिक अडोलता के आनंद पैदा हो जाते हैं, उसको हर जगह शोभा मिलती है, उसके हृदय में सिफत सालाह की बाणी के (मानो) एक-रस बाजे बजते रहते हैं। हे नानक! कह– गुरू ने जिस मनुष्य के वास्ते ये प्रबंध कर दिया, वह मनुष्य सदा के लिए प्रभू-चरनों में ठिकाना प्राप्त कर लेता है।4।5। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |