श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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धनासरी महला ४ ॥ मेरे साहा मै हरि दरसन सुखु होइ ॥ हमरी बेदनि तू जानता साहा अवरु किआ जानै कोइ ॥ रहाउ ॥ साचा साहिबु सचु तू मेरे साहा तेरा कीआ सचु सभु होइ ॥ झूठा किस कउ आखीऐ साहा दूजा नाही कोइ ॥१॥ सभना विचि तू वरतदा साहा सभि तुझहि धिआवहि दिनु राति ॥ सभि तुझ ही थावहु मंगदे मेरे साहा तू सभना करहि इक दाति ॥२॥ सभु को तुझ ही विचि है मेरे साहा तुझ ते बाहरि कोई नाहि ॥ सभि जीअ तेरे तू सभस दा मेरे साहा सभि तुझ ही माहि समाहि ॥३॥ सभना की तू आस है मेरे पिआरे सभि तुझहि धिआवहि मेरे साह ॥ जिउ भावै तिउ रखु तू मेरे पिआरे सचु नानक के पातिसाह ॥४॥७॥१३॥ {पन्ना 670}

पद्अर्थ: दरसन सुखु = दर्शन का आत्मिक आनंद। होइ = मिल जाए। बेदनि = (दिल की) पीड़ा, वेदना। अवरु कोइ = और कोई। रहाउ।

सचु = सदा स्थिर रहने वाला। कउ = को। किस कउ = (शब्द ‘किस’ का संबंधक ‘कउ’ के कारण हटा दिया गया है)।1।

वरतदा = मौजूद। सभि = सारे। थावहु = पास से। तू इक = एक तू ही।2।

सभु को = हरेक जीव। ते = से। जीअ = (‘जीव’ का बहुवचन)। माहि = में।3।

साह = हे शाह! पतसाह = हे पातशाह! सचु = सदा स्थिर।4।

अर्थ: हे मेरे पातशाह! (मेहर कर) मुझे तेरे दर्शनों का आनंद प्राप्त हो जाए। हे मेरे पातशाह! मेरे दिल की पीड़ा को तू ही जानता है। कोई और क्या जान सकता है?। रहाउ।

हे मेरे पातशाह! तू सदा कायम रहने वाला मालिक है, तू अटल है। जो कुछ तू करता है, उसमें कोई भी कमी खामी नहीं है। हे पातशाह! (सारे संसार में तेरे बिना) और कोई नहीं है (इस वास्ते) किसी को झूठा नहीं कहा जा सकता।1।

हे मेरे पातशाह! तू सब जीवों में मौजूद है, सारे जीव दिन-रात तेरा ही ध्यान धरते हैं। हे मेरे पातशाह! सारे जीव तुझसे ही (मांगें) मांगते हैं। एक तू ही सब जीवों को दातें दे रहा है।2।

हे मेरे पातशाह! हरेक जीव तेरे हुकम में है, तुझसे आकी कोई जीव हो ही नहीं सकता। हे मेरे पातशाह! सारे जीव तेरे पैदा किए हुए हैं, ये सारे तेरे में ही लीन हो जाते हैं।3।

हे मेरे प्यारे पातशाह! तू सब जीवों की आशाएं-उम्मीदें पूरी करता है सारे जीव तेरा ही ध्यान धरते हैं। हे नानक के पातशाह! हे मेरे प्यारे! जैसे तुझे अच्छा लगता है, वैसे मुझे (अपने चरणों में) रख। तू ही सदा कायम रहने वाला है।4।7।13।

नोट: 7 शबद ‘घरु ५’ के हैं। धनासरी में गुरू रामदास जी के कुल 13 शबद हैं। घर १ के 6 व घर ५ के 7। कुल 13।

धनासरी महला ५ घरु १ चउपदे    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ भव खंडन दुख भंजन स्वामी भगति वछल निरंकारे ॥ कोटि पराध मिटे खिन भीतरि जां गुरमुखि नामु समारे ॥१॥ मेरा मनु लागा है राम पिआरे ॥ दीन दइआलि करी प्रभि किरपा वसि कीने पंच दूतारे ॥१॥ रहाउ ॥ तेरा थानु सुहावा रूपु सुहावा तेरे भगत सोहहि दरबारे ॥ सरब जीआ के दाते सुआमी करि किरपा लेहु उबारे ॥२॥ तेरा वरनु न जापै रूपु न लखीऐ तेरी कुदरति कउनु बीचारे ॥ जलि थलि महीअलि रविआ स्रब ठाई अगम रूप गिरधारे ॥३॥ कीरति करहि सगल जन तेरी तू अबिनासी पुरखु मुरारे ॥ जिउ भावै तिउ राखहु सुआमी जन नानक सरनि दुआरे ॥४॥१॥ {पन्ना 670}

पद्अर्थ: भव खंडन = हे जनम मरण (के चक्कर का) नाश करने वाले! दुख भंजन = हे दुखों का नाश करने वाले! भगति वछल = हे भक्ति के साथ प्यार करने वाले! निरंकारे = हे आकार रहित प्रभू! कोटि = करोड़ों। भीतरि = में। जां = जब। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। समारै = संभालता है।1।

दीन दइआलि = दीनों पर दया करने वाले! प्रभि = प्रभू ने। पंच दूतारै = (कामादिक) पाँच वैरी।1। रहाउ।

सोहहि = सोहाने लगते हैं। दाते = हे दातार! लेहु उबारै = बचा लो।2।

वरनु = वर्ण, रंग। रूपु = रूप, शक्ल। कुदरति = ताकत। जलि = जल में। थलि = थल में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, आकाश में। स्रब ठाई = सर्व स्थान, हर जगह। गिरधारे = हे गिरधारी! (गिरि = पहाड़) हे प्रभू!।3।

कीरति = उस्तति, कीर्ति, सिफत सालाह। करहि = करते हैं। मुरारे = हे मुरारी! पुरखु = सर्व व्यापक।4।

अर्थ: हे भाई! मेरा मन प्यारे परमात्मा (के नाम) से लगा हुआ है। दीनों पर दया करने वाले प्रभू ने (खुद ही) कृपा की है, और पाँचों (कामादिक) वैरी (मेरे) वश में कर दिए हैं।1।

हे जनम-मरण के चक्कर नाश करने वाले! हे दुखों का नाश करने वाले! हे मालिक! हे भक्ति से प्यार करने वाले! हे आकार रहित! जब कोई मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर (तेरा) नाम दिल में बसाता है, उसके करोड़ों पाप एक छिन में मिट जाते हैं।1।

हे प्रभू! तेरा स्थान सुंदर है, तेरा रूप सुंदर है। तेरे भक्त तेरे दरबार में सुंदर लगते हैं। हे सारे जीवों को दातें देने वाले मालिक प्रभू! मेहर कर; (मुझे कामादिक वैरियों से) बचाए रख।2।

हे प्रभू! तेरा कोई रंग नहीं दिखता; तेरी कोई सूरति नहीं दिखती। कोई मनुष्य नहीं सोच सकता कि तू कितना ताकतवर है। हे अपहुँच परमात्मा! तू पानी में धरती पर आकाश में हर जगह मौजूद है।3।

हे मुरारी! तू नाश-रहित है (अविनाशी है); तू सर्व व्यापक है, तेरे सारे सेवक तेरी सिफॅत सालाह करते हैं। हे दास नानक! (कह–) हे स्वामी! मैं तेरे दर पर आ गिरा हूँ, मैं तेरी शरण आया हूँ। जैसे तुझे अच्छा लगे, उसी तरह मेरी रक्षा कर।4।1।

धनासरी महला ५ ॥ बिनु जल प्रान तजे है मीना जिनि जल सिउ हेतु बढाइओ ॥ कमल हेति बिनसिओ है भवरा उनि मारगु निकसि न पाइओ ॥१॥ अब मन एकस सिउ मोहु कीना ॥ मरै न जावै सद ही संगे सतिगुर सबदी चीना ॥१॥ रहाउ ॥ काम हेति कुंचरु लै फांकिओ ओहु पर वसि भइओ बिचारा ॥ नाद हेति सिरु डारिओ कुरंका उस ही हेत बिदारा ॥२॥ देखि कुट्मबु लोभि मोहिओ प्रानी माइआ कउ लपटाना ॥ अति रचिओ करि लीनो अपुना उनि छोडि सरापर जाना ॥३॥ बिनु गोबिंद अवर संगि नेहा ओहु जाणहु सदा दुहेला ॥ कहु नानक गुर इहै बुझाइओ प्रीति प्रभू सद केला ॥४॥२॥ {पन्ना 670-671}

पद्अर्थ: तजे है = त्याग देती है। मीना = मछली। जिनि = जिस ने, क्योंकि उस (मछली) ने। सिउ = से। हेतु = प्यार। कमल हेति = कमल के फूल के प्यार में। उनि = उस (भौरे) ने। मारगु = रास्ता। निकसि = (फूल में से) निकल के।1।

मन = हे मन! अब = अब, इस मानस जनम में। मोहु = प्रेम। सद ही = सदा ही। सबदी = शबद के द्वारा। चीना = चीन्ह लिया, पहचान लिया।1। रहाउ।

कामि हेति = काम वासना की खातिर। कुंचरु = हाथी। फांकिओ = पकड़ा गया। ओहु = वह हाथी। वसि = वश में। नाद हेति = (घंडेहेड़े की) आवाज के मोह में। कुरंका = हिरन। बिदारा = मारा गया।2।

देखि = देख के। कुटंबु = परिवार। लोभि = लालच में। लपटाना = लिपटा रहा। अति रचिओ = (माया में) बहुत मगन हो गया। उनि = उस (मनुष्य) ने। सरापर = जरूर।3।

संगि = साथ। नेहा = प्यार। दुहेला = दुखी। गुरि = गुरू ने। सद = सदा। केला = आनंद।4।

अर्थ: हे मन! जिस मनुष्य ने अब (इस जनम में) एक परमात्मा से प्यार कर लिया है, वह जनम-मरण के चक्कर में नहीं पड़ता, वह सदा ही परमात्मा के चरणों में मगन रहता है, गुरू के शबद में जुड़ के वह परमात्मा के साथ अपनत्व बनाए रखता है।1। रहाउ।

हे भाई! मछली पानी से विछुड़ के जान दे देती है क्योंकि उस (मछली) ने पानी के साथ प्यारा बढ़ाया हुआ है। कमल के फूल के प्यार में भौरे ने मौत गले लगा ली, (क्योंकि) उस ने (कमल के फूल में से) निकल के (बाहर का) रास्ता ना तलाशा।1।

हे भाई! काम-वासना की खातिर हाथी फस गया, वह विचारा पराधीन हो गया। (घंडेहेड़े की) आवाज के प्यार में हिरन अपना सिर दे बैठता है, उसके प्यार में मारा जाता है।2।

(हे भाई! इसी तरह) मनुष्य (अपना) परिवार देख के (माया के) लोभ में फंस जाता है, माया से चिपका रहता है, (माया के मोह में) बहुत मगन रहता है, (माया को) अपनी बना लेता है (ये नहीं समझता कि आखिर) उसने जरूर (सब कुछ) छोड़ के यहाँ से चले जाना है।3।

हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के बिना किसी अन्य से प्यार डालता है, यकीन जानें, वह सदा दुखी रहता है। हे नानक! कह– गुरू ने (मुझे) ये ही समझ दी है कि परमात्मा से प्यार करने से सदा आत्मिक आनंद बना रहता है।4।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh