श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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धनासरी महला ४ ॥ गुन कहु हरि लहु करि सेवा सतिगुर इव हरि हरि नामु धिआई ॥ हरि दरगह भावहि फिरि जनमि न आवहि हरि हरि हरि जोति समाई ॥१॥ जपि मन नामु हरी होहि सरब सुखी ॥ हरि जसु ऊच सभना ते ऊपरि हरि हरि हरि सेवि छडाई ॥ रहाउ ॥ हरि क्रिपा निधि कीनी गुरि भगति हरि दीनी तब हरि सिउ प्रीति बनि आई ॥ बहु चिंत विसारी हरि नामु उरि धारी नानक हरि भए है सखाई ॥२॥२॥८॥ {पन्ना 669}

पद्अर्थ: गुन = परमात्मा के गुण। कहु = याद किया कर। लहु = ढूँढ लो, मिलने का यतन करते रहो। इव = इस तरह। धिआई = ध्याई, तू सिमरता रह। भावहि = तू अच्छा लगेगा। न आवहि = तू नहीं आएगा। समाई = लीनता।1।

मन = हे मन! होहि = तू होगा। ते = से। सेवि = सेवा भक्ति कर। रहाउ।

क्रिपा निधि = कृपा का खजाना प्रभू। गुरि = गुरू ने। सिउ = से। विसारि = भुला दी। उरि = हृदय में। सखाई = मित्र, साथी।2।

अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा का नाम जपा कर, तू हर जगह सुखी रहेगा। परमात्मा की सिफत सालाह बड़ा श्रेष्ठ काम है, और सब कामों से बढ़िया काम है। परमात्मा की सेवा-भक्ति करता रह, (ये सेवा-भक्ति सब दुखों विकारों से) बचा लेती है। रहाउ।

हे भाई! परमात्मा के गुण याद किया कर। (इस तरह) परमात्मा को मिलने का यतन करता रह। गुरू की (बताई) सेवा किया कर। इस तरीके से सदा हरी का नाम सिमरता रह। (सिमरन की बरकति से) तू परमात्मा की दरगाह में पसंद आ जाएगा, दुबारा जनम (मरन के चक्कर) में नहीं आएगा, तू परमात्मा की ज्योति में सदा लीन रहेगा।1।

पर, हे भाई! कृपा के खजाने परमात्मा ने जिस मनुष्य पर कृपा की, गुरू ने उस मनुष्य को परमात्मा की भक्ति की दाति बख्श दी, तब उस मनुष्य का प्रेम परमात्मा से बन गया। हे नानक! जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम अपने दिल में बसा लिया, उसने (दुनियावी अन्य) बहुत सारी चिंताएं बिसार दीं, परमात्मा उसका साथी मित्र बन गया।2।2।8।

नोट: ‘घरु ५’ का ये दूसरा शबद है। कुल जोड़ 8 हैं।

धनासरी महला ४ ॥ हरि पड़ु हरि लिखु हरि जपि हरि गाउ हरि भउजलु पारि उतारी ॥ मनि बचनि रिदै धिआइ हरि होइ संतुसटु इव भणु हरि नामु मुरारी ॥१॥ मनि जपीऐ हरि जगदीस ॥ मिलि संगति साधू मीत ॥ सदा अनंदु होवै दिनु राती हरि कीरति करि बनवारी ॥ रहाउ ॥ हरि हरि करी द्रिसटि तब भइओ मनि उदमु हरि हरि नामु जपिओ गति भई हमारी ॥ जन नानक की पति राखु मेरे सुआमी हरि आइ परिओ है सरणि तुमारी ॥२॥३॥९॥ {पन्ना 669}

पद्अर्थ: भउजलु = संसार समुंद्र। मनि = मन से। बचनि = बचनों से। रिदै = हृदय में। होइ संतुसटु = संतोखी हो के। इव = इस तरह। भणु = उचारता है। मुरारी = (मुर+अरि) परमात्मा।1।

मनि = मन में। जपीअै = जपना चाहिए। जगदीस = जगत का ईश्वर। मिलि = मिल के। मीत = हे मित्र! कीरति = सिफत सालाह। बनवारी = (वनमालिन्) परमात्मा (की)। रहाउ।

द्रिसटि = नजर, निगाह। मनि = मन में। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। पति = इज्जत। सुआमी = हे स्वामी!।2।

अर्थ: हे मित्र! गुरू की संगति में मिल के जगत के मालिक हरी का नाम मन में जपना चाहिए। हे मित्र! परमात्मा की सिफत सालाह किया कर, (इस तरह) दिन रात सदा आत्मिक आनंद बना रहता है। रहाउ।

हे भाई! परमात्मा का नाम पढ़ा कर, परमात्मा का नाम लिखता रह, परमात्मा का नाम जपा कर, परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाया कर। परमात्मा संसार समुंद्र से पार लंघा लेता है। हे भाई! मन में, हृदय में, जीभ से परमात्मा का नाम याद किया कर। हे भाई! संतोखी हो के इस तरह परमात्मा का नाम उचारा कर।1।

हे भाई! जब परमात्मा ने मेहर की निगाह की, तब मन में उद्यम पैदा हुआ, तब ही हमने नाम जपा, और हमारी ऊँची आत्मिक अवस्था बन गई।

हे मेरे मालिक प्रभू! अपने दास नानक की इज्जत रख, तेरा ये दास तेरी शरण आ पड़ा है (अपने दास को नाम जपने की दाति बख्श)।2।3।9।

धनासरी महला ४ ॥ चउरासीह सिध बुध तेतीस कोटि मुनि जन सभि चाहहि हरि जीउ तेरो नाउ ॥ गुर प्रसादि को विरला पावै जिन कउ लिलाटि लिखिआ धुरि भाउ ॥१॥ जपि मन रामै नामु हरि जसु ऊतम काम ॥ जो गावहि सुणहि तेरा जसु सुआमी हउ तिन कै सद बलिहारै जाउ ॥ रहाउ ॥ सरणागति प्रतिपालक हरि सुआमी जो तुम देहु सोई हउ पाउ ॥ दीन दइआल क्रिपा करि दीजै नानक हरि सिमरण का है चाउ ॥२॥४॥१०॥ {पन्ना 669}

पद्अर्थ: सिध = करामाती योगी, योग मत के आगू। बुध = महात्मा गौतम बुद्ध जैसे ज्ञानवान। तेतीस कोटि = तेतीस करोड़ देवते। सभि = सारे। प्रसादि = कृपा से। लिलाटि = माथे पर। धुरि = धुर दरगाह से। भाउ = प्रेम।1।

मन = हे मन! रामै नामु = परमात्मा का नाम ही। जसु = यश, सिफत सालाह। सुआमी = हे स्वामी! हउ = मैं। सद = सदा। जाउ = जाऊँ, मैं जाता हूँ। रहाउ।

पाउ = पाऊँ, मैं पाता हूँ।2।

अर्थ: हे मन! परमात्मा का नाम ही जपा कर। परमात्मा की सिफत सालाह करना सबसे श्रेष्ठ काम है। हे मालिक प्रभू! जो मनुष्य तेरी सिफत सालाह गाते हैं, सुनते हैं, मैं उनसे सदा कुर्बान जाता हूँ। रहाउ।

हे प्रभू! योग-मत के चौरासी आगू, महात्मा बुद्ध जैसे ज्ञानवान, तेतीस करोड़ देवते, अनेकों ऋषि-मुनि, ये सारे तेरा नाम (प्राप्त करना) चाहते हैं, पर कोई विरला मनुष्य गुरू की कृपा से (ये दाति) हासिल करता है। (नाम की दाति उनको ही मिलती है) जिनके माथे पर धुर दरगाह से हरी-नाम का प्रेम-लेख लिखा हुआ है।1।

हे शरण आए की पालना करने वाले मालिक-प्रभू! मैं (तेरे दर से) वही कुछ ले सकता हूँ जो तू खुद देता है। हे दीनों पर दया करने वाले! कृपा करके नानक को अपने नाम की दाति दे, (नानक को) तेरे नाम के सिमरन का चाव है।2।4।10।

धनासरी महला ४ ॥ सेवक सिख पूजण सभि आवहि सभि गावहि हरि हरि ऊतम बानी ॥ गाविआ सुणिआ तिन का हरि थाइ पावै जिन सतिगुर की आगिआ सति सति करि मानी ॥१॥ बोलहु भाई हरि कीरति हरि भवजल तीरथि ॥ हरि दरि तिन की ऊतम बात है संतहु हरि कथा जिन जनहु जानी ॥ रहाउ ॥ आपे गुरु चेला है आपे आपे हरि प्रभु चोज विडानी ॥ जन नानक आपि मिलाए सोई हरि मिलसी अवर सभ तिआगि ओहा हरि भानी ॥२॥५॥११॥ {पन्ना 669}

पद्अर्थ: सभि = सारे। उतम = श्रेष्ठ। बानी = गुरबाणी। थाइ पावै = जगह में डालता है, कबूल करता है। सति सति = बिल्कुल ठीक। करि = कर के, समझ के। मानी = मानी है, अमल किया है।1।

भाई = हे भाई! कीरति = कीर्ति, सिफत सालाह। तीरथि = तीर्थ के द्वारा। भवजल तीरथि = संसार समुंद्र के तीर्थ द्वारा, संसार समुंद्र से पार लंघाने वाले तीर्थ (-गुरू) के द्वारा। दरि = दर पर। बात = बातचीत, शोभा। संतहु = हे संत जनो! जिन जनहु = जिन मनुष्यों ने। जानी = गहरी सांझ डाली। रहाउ।

आपे = (प्रभू) खुद ही। रोज विडानी = आश्चर्यजनक करिश्मे करने वाला। सोई = वही मनुष्य। मिलसी = मिलेगा। तिआगि = त्याग दे। ओहा = वह सिफत सालाह ही। भानी = अच्छी लगती है।2।

अर्थ: हे भाई! संसार समुंद्र से पार लंघाने वाले (गुरू-) तीर्थ की शरण पड़ कर परमात्मा की सिफत सालाह किया करो। परमात्मा के दर पर उन लोगों की बहुत शोभा होती है, जिन लोगों ने परमात्मा की सिफत सालाह के साथ गहरी सांझ डाली हुई है। रहाउ।

हे भाई! सेवक (कहलवाने वाले) सारे (गुरू-दर पर प्रभू की) पूजा-भक्ति करने आते हैं, और परमात्मा की सिफत सालाह के साथ भरपूर उक्तम गुरबाणी को गाते हैं। पर, परमात्मा उन मनुष्यों की बाणी का गाना और सुनना कबूल करता है, जिन्होंने गुरू के हुकम को बिल्कुल सही जान के उस पर अमल (भी) किया है।1।

हे भाई! प्रभू आप ही गुरू है, आप ही सिख है, प्रभू खुद ही आश्चर्यजनक तमाशे करने वाला है। हे दास नानक! वही मनुष्य परमात्मा को मिल सकता है जिसको परमात्मा स्वयं मिलाता है। हे भाई! और सारा (सहारे-आसरे) छोड़ के (गुरू की आज्ञा में चल के सिफत सालाह किया कर) प्रभू को वह सिफत सालाह ही प्यारी लगती है।2।5।11।

धनासरी महला ४ ॥ इछा पूरकु सरब सुखदाता हरि जा कै वसि है कामधेना ॥ सो ऐसा हरि धिआईऐ मेरे जीअड़े ता सरब सुख पावहि मेरे मना ॥१॥ जपि मन सति नामु सदा सति नामु ॥ हलति पलति मुख ऊजल होई है नित धिआईऐ हरि पुरखु निरंजना ॥ रहाउ ॥ जह हरि सिमरनु भइआ तह उपाधि गतु कीनी वडभागी हरि जपना ॥ जन नानक कउ गुरि इह मति दीनी जपि हरि भवजलु तरना ॥२॥६॥१२॥ {पन्ना 669-670}

पद्अर्थ: पूरकु = पूरी करने वाला। दाता = देने वाला। सरब = सारे। जा कै वसि = जिस के बस में। धेन = गाय। काम = वासना। कामधेन = स्वर्ग की वह गाय जो सारी वासनाएं पूरी कर देती है। जीअड़े = हे सोहनी जीवात्मा! त = तब। पावहि = पा लेगा।1।

मन = हे मन! सति नामु = सदा स्थिर रहने वाला हरी नाम। हलति = (अत्र) इस लोक में। पलति = (परत्र) परलोक में। मुख ऊजल = उज्जवल मुख वाले, सुर्खरू। पुरखु = सर्व व्यापक। निरंजना = माया से निर्लिप प्रभू। रहाउ।

जह = जहाँ, जिस हृदय में। तह = उस हृदय में से। उपाधि = झगड़ा बखेड़ा। गतु कीनी = विदा हो जाता है। कउ = को। गुरि = गुरू ने। भवजलु = संसार समुंद्र।2।

अर्थ: हे मन! सदा स्थिर प्रभू का नाम सदा जपा कर। हे भाई! सर्व-व्यापक निर्लिप हरी का सदा ध्यान धरना चाहिए, (इस तरह) लोक-परलोक में इज्जत कमा ली जाती है। रहाउ।

हे मेरी जिंदे! जो हरी सारी ही कामनाएं पूरी करने वाला है, जो सारे ही सुख देने वाला है, जिसके वश में (स्वर्ग में रहने वाली समझी गई) कामधेनु है उस ऐसी स्मर्था वाले परमात्मा का सिमरन करना चाहिए। हे मेरे मन! (जब तू परमात्मा का सिमरन करेगा) तब सारे सुख हासिल कर लेगा।1।

हे भाई! जिस हृदय में परमात्मा की भक्ति होती है उसमें से हरेक किस्म का झगड़ा-बखेड़ा निकल जाता है। (फिर भी) बहुत भाग्य से ही परमात्मा का भजन हो सकता है। हे भाई! दास नानक को (तो) गुरू ने ये समझ दी है कि परमात्मा का नाम जप के संसार समुंद्र से पार लांघ जाना है।2।6।12।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh