श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 680

धनासरी महला ५ ॥ जतन करै मानुख डहकावै ओहु अंतरजामी जानै ॥ पाप करे करि मूकरि पावै भेख करै निरबानै ॥१॥ जानत दूरि तुमहि प्रभ नेरि ॥ उत ताकै उत ते उत पेखै आवै लोभी फेरि ॥ रहाउ ॥ जब लगु तुटै नाही मन भरमा तब लगु मुकतु न कोई ॥ कहु नानक दइआल सुआमी संतु भगतु जनु सोई ॥२॥५॥३६॥ {पन्ना 680}

पद्अर्थ: जतन = प्रयत्न (बहुवचन)। डहकावै = धोखा देता है, ठगता है। अंतरजामी = सबके दिल की जानने वाला। जानै = जानता है। करि = कर के। भेख = पहिरावा। निरबानै = वासना रहित, विरक्त।1।

प्रभ = हे प्रभू! तुमहि = तुझे। उत = उधर। ताकै = ताकता है। ते = से। लोभी = लालची। फेरि = (लालच के) चक्कर में। रहाउ।

जब लगु = जब तक। भरमा = भटकना। मुकतु = (लोभ से) आजाद। सोई = वही मनुष्य।2।

अर्थ: हे प्रभू! तू (सब जीवों के) नजदीक बसता है, पर (लालची पाखण्डी मनुष्य) तुझे दूर (बसता) समझता है। लालची मनुष्य (लालच के) चक्कर में फसा रहता है, (माया की खातिर) उधर देखता है, उधर से और उधर ताकता है (उसका मन टिकता नहीं)। रहाउ।

हे भाई! (लालची मनुष्य) अनेकों यतन करता है, लोगों को धोखा देता है, विरक्तों वाले धार्मिक पहरावे पहने रखता है, पाप करके (फिर उन पापों से) मुकर भी जाता है, पर सबके दिल की जानने वाला वह परमात्मा (सब कुछ) जानता है।1।

हे भाई! जब तक मनुष्य के मन की (माया वाली) भटकना दूर नहीं होती, इस (लालच के पँजे से) आजाद नहीं हो सकता। हे नानक! कह– (पहरावों से भगत नहीं बन जाते) जिस मनुष्य पर मालिक-प्रभू खुद दयावान होता है (और, उसको नाम की दाति देता है) वही मनुष्य संत है भगत है।2।5।36।

धनासरी महला ५ ॥ नामु गुरि दीओ है अपुनै जा कै मसतकि करमा ॥ नामु द्रिड़ावै नामु जपावै ता का जुग महि धरमा ॥१॥ जन कउ नामु वडाई सोभ ॥ नामो गति नामो पति जन की मानै जो जो होग ॥१॥ रहाउ ॥ नाम धनु जिसु जन कै पालै सोई पूरा साहा ॥ नामु बिउहारा नानक आधारा नामु परापति लाहा ॥२॥६॥३७॥ {पन्ना 680}

पद्अर्थ: गुरि = गुरू ने। कै मसतकि = के माथे पर। करमा = किस्मत। द्रिढ़ावै = (औरों को) दृढ़ करवाता है। जुग महि = जगत में। धरम = फर्ज, कर्म।1।

कउ = को। वडाई = वडिआई। सोभ = शोभा। नामो = नाम ही। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। पति = इज्जत। मानै = मानता है। होग = होगा।1। रहाउ।

कै पालै = के पल्ले में। बिउहारा = कार्य व्यवहार। आधारा = आसरा। लाहा = लाभ, कमाई।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सेवक के लिए परमात्मा का नाम (ही) वडिआई है नाम ही शोभा है। हरी-नाम ही उसकी ऊँची आत्मिक अवस्था है, नाम ही उसकी इज्जत है। जो कुछ परमात्मा की रजा में होता है, सेवक उसको (सिर-माथे) मानता है।1। रहाउ।

हे भाई! जिस मनुष्य के माथे के भाग्य (जाग पड़े) उसे प्यारे गुरू ने परमात्मा का नाम दे दिया। उस मनुष्य का (फिर) सदा का काम ही जगत में ये बन जाता है कि वह औरों को हरी-नाम दृढ़ करवाता है जपवाता है (जपने के लिए प्रेरित करता है)।1।

हे नानक! परमात्मा का नाम-धन जिस मनुष्य के पास है, वही पूरा शाहूकार है। वह मनुष्य हरी-नाम सिमरन को ही अपना असल व्यवहार समझता है, नाम का ही उसको असल आसरा रहता है, नाम की ही वह कमाई करता है।2।6।37।

धनासरी महला ५ ॥ नेत्र पुनीत भए दरस पेखे माथै परउ रवाल ॥ रसि रसि गुण गावउ ठाकुर के मोरै हिरदै बसहु गोपाल ॥१॥ तुम तउ राखनहार दइआल ॥ सुंदर सुघर बेअंत पिता प्रभ होहु प्रभू किरपाल ॥१॥ रहाउ ॥ महा अनंद मंगल रूप तुमरे बचन अनूप रसाल ॥ हिरदै चरण सबदु सतिगुर को नानक बांधिओ पाल ॥२॥७॥३८॥ {पन्ना 680}

पद्अर्थ: नेत्र = आँखें। पुनीत = पवित्र। पेखे = देख के। माथै = माथे पर। परउ = पड़ा रहूँ। रवाल = चरण धूड़। रसि = स्वाद से। गावउ = मैं गाता हूँ। मोरै हिरदै = मेरे हृदय में।1।

राखनहार = रक्षा करने की समर्था वाला। सुघर = सुघड़, समझदार।1। रहाउ।

अनूप = उपमा रहित, बहुत सुंदर। रसाल = रस भरे (रस+आलय)। हिरदै = हृदय में। को = का। पाल = पल्ले।2।

अर्थ: हे दया के घर प्रभू! तू तो (सब जीवों की) रक्षा करने में समर्थ है। तू सुंदर है, समझदार है, बेअंत है। हे पिता प्रभू! (मेरे पर भी) दयावान हो।1। रहाउ।

हे सृष्टि के पालनहार! मेरे हृदय में आ बस। मैं बड़े स्वाद से तेरे गुण गाता रहूँ, मेरे माथे पर तेरी चरण-धूड़ टिकी रहे। तेरा दर्शन करके आँखें पवित्र हो जाती हैं (विकारों से हट जाती हैं)।1।

हे प्रभू! तू आनंद स्वरूप है (आनंद ही आनंद; खुशी ही खुशी तेरा वजूद है)। हे प्रभू! तेरी सिफत सालाह की बाणी सुंदर है रसीली है। हे नानक! जिस मनुष्य ने सतिगुरू की बाणी पल्ले बाँध ली उसके हृदय में परमात्मा के चरण बसे रहते हैं।2।7।38।

धनासरी महला ५ ॥ अपनी उकति खलावै भोजन अपनी उकति खेलावै ॥ सरब सूख भोग रस देवै मन ही नालि समावै ॥१॥ हमरे पिता गोपाल दइआल ॥ जिउ राखै महतारी बारिक कउ तैसे ही प्रभ पाल ॥१॥ रहाउ ॥ मीत साजन सरब गुण नाइक सदा सलामति देवा ॥ ईत ऊत जत कत तत तुम ही मिलै नानक संत सेवा ॥२॥८॥३९॥ {पन्ना 680}

पद्अर्थ: उकति = युक्ति, जुगति, ढंग, तरीका, विउंत। खलावै भोजन = खाना खिलाता है। खेलावै = खेलाता है। सरब = सारे। मनही नालि = हमारे मन के साथ ही, हमारे सदा अंग संग। समावै = मौजूद रहता है।1।

गोपाल = हे सृष्टि के पालनहार! महतारी = माँ। बारिक कउ = बच्चे को। पाल = पालने वाला।1।

सरब गुण = सारे गुणों वाला। नाइक = आगू, जीवन अगुवाई करने वाला। सलामति = जीवित। देवा = प्रकाश रूप प्रभू। ईत = इस लोक में। ऊत = परलोक में। जत कत तत = जहाँ कहाँ तहाँ, हर जगह। नानक = हे नानक!।2।

अर्थ: हे दया के घर! हे सृष्टि के पालनहार! हे हमारे पिता प्रभू! जैसे माँ अपने बच्चे की पालना करती है वैसे ही तू हम जीवों की पालना करने वाला है।1। रहाउ।

हे भाई! परमात्मा अपने ही ढंग से जीवों को खाने-पीने के लिए देता है, अपने ही ढंग से जीवों को खेलों में मस्त रखता है, (अपने ही ढंग से जीवों को) सारे सुख देता है, सारे स्वादिष्ट पदार्थ देता है, और, सदा सबके अंग-संग टिका रहता है।1।

हे प्रकाश-रूप प्रभू! तू हमारा मित्र है, सज्जन है, सारे गुणों का मालिक है, सबकी जीवन की अगुवाई करने वाला है। सदा जीवित है, तू हर जगह इस लोक में परलोक में मौजूद है। हे नानक! (कह– हे भाई!) गुरू की शरण पड़ने से वह प्रभू मिलता है।2।8।39।

धनासरी महला ५ ॥ संत क्रिपाल दइआल दमोदर काम क्रोध बिखु जारे ॥ राजु मालु जोबनु तनु जीअरा इन ऊपरि लै बारे ॥१॥ मनि तनि राम नाम हितकारे ॥ सूख सहज आनंद मंगल सहित भव निधि पारि उतारे ॥ रहाउ ॥ धंनि सु थानु धंनि ओइ भवना जा महि संत बसारे ॥ जन नानक की सरधा पूरहु ठाकुर भगत तेरे नमसकारे ॥२॥९॥४०॥ {पन्ना 680}

पद्अर्थ: दमोदर = दाम+उदर, परमात्मा। बिखु = जहर। जारे = जला दिए। जीअरा = जिंद। इन ऊपरि = इन संत जनों से। बारे = वार जाना, सदके जाना।1।

मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। हितकारे = प्यार। सहज = आत्मिक अडोलता। सहित = समेत। भवनिधि = संसार समुंद्र। पारि उतारे = पार लंघा दिया है। रहाउ।

धंनि = भाग्यशाली। सु = वह। ओइ = (‘ओह’ का बहुवचन)। भावना = घर। जा महि = जिन में। बसारे = बसते हैं। सरधा = तांघ। पूरहु = पूरी करे।2।

अर्थ: हे भाई! जिनके मन में हृदय में परमात्मा के नाम का प्यार सदा बना रहता है, वह मनुष्य आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद व खुशियां पाते हैं, (औरों को भी) संसार समुंद्र से पार लंघा देते हैं। रहाउ।

हे भाई! (अपने मन में हृदय में परमात्मा का प्यार सदा टिठकाए रखने वाले) संत जन कृपा के श्रोत दया के श्रोत परमात्मा (के रूप हैं); वे अपने अंदर से काम-क्रोध (आदि विकारों के) जहर जला लेते हैं। ऐसे संतों से राज-माल-जवानी-शरीर-जीवात्मा, सब कुछ कुर्बान कर देनी चाहिए।1।

हे भाई! वह स्थान भाग्यशाली है, वह घर भाग्यशाली है, जिनमें संत जन बसते हैं। हे ठाकुर! दास की तमन्ना पूरी कर, कि तेरे भक्तों को सदा सिर झुकाता रहूँ।2।9।40।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh