श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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धनासरी महला ५ ॥ छडाइ लीओ महा बली ते अपने चरन पराति ॥ एकु नामु दीओ मन मंता बिनसि न कतहू जाति ॥१॥ सतिगुरि पूरै कीनी दाति ॥ हरि हरि नामु दीओ कीरतन कउ भई हमारी गाति ॥ रहाउ ॥ अंगीकारु कीओ प्रभि अपुनै भगतन की राखी पाति ॥ नानक चरन गहे प्रभ अपने सुखु पाइओ दिन राति ॥२॥१०॥४१॥ {पन्ना 681}

पद्अर्थ: महा बली ते = बड़ी ताकत वाली (माया) से। पराति = परो के। मंता = मंत्र, उपदेश। बिनसि न जाति = नाश नहीं होता, ना ही गायब होता है। कत हू = कहीं भी।1।

सतिगुरि = गुरू ने। दाति = बख्शिश। कउ = वास्ते। गाति = गति, उच्च आत्मिक अवस्था। रहाउ।

अंगीकारु = पक्ष। प्रभि = प्रभू ने। पाति = पति, इज्जत। गहे = पकड़े।2।

अर्थ: हे भाई! पूरे गुरू ने (मेरे पर) कृपा की है। (गुरू ने मुझे) परमात्मा का नाम कीर्तन करने के लिए दिया है, (जिसकी बरकति से) मेरी उच्च आत्मिक अवस्था बन गई है। रहाउ।

हे भाई! (जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, गुरू उसको) अपने चरणों में लगा के उसको बड़ी ताकत वाली (माया) से बचा लेता है। उसके मन के लिए गुरू परमात्मा का नाम-मंत्र देता है; जो ना नाश होता है ना ही कहीं गायब होता है।1।

हे भाई! प्रभू ने (हमेशा ही) अपने भक्तों का पक्ष लिया है, (भक्तों की) लाज रखी है। हे नानक! जिस मनुष्य ने (गुरू की शरण पड़ कर) परमात्मा के चरण पकड़ लिए उसने दिन-रात हर वक्त आत्मिक आनंद पाया है।2।10।41।

धनासरी महला ५ ॥ पर हरना लोभु झूठ निंद इव ही करत गुदारी ॥ म्रिग त्रिसना आस मिथिआ मीठी इह टेक मनहि साधारी ॥१॥ साकत की आवरदा जाइ ब्रिथारी ॥ जैसे कागद के भार मूसा टूकि गवावत कामि नही गावारी ॥ रहाउ ॥ करि किरपा पारब्रहम सुआमी इह बंधन छुटकारी ॥ बूडत अंध नानक प्रभ काढत साध जना संगारी ॥२॥११॥४२॥ {पन्ना 681}

पद्अर्थ: पर = पराया (धन)। हरना = चुराना। निंद = निंदा। इव ही = इसी तरह ही। गुदारी = गुजारा, गुजार लिया। म्रिग त्रिसना = मृग तृष्णा, मारीचिका, प्यास केमारे हिरन को पानी दिखने वाला रेगिस्तान। मिथिआ = झूठी। मनहि = मन में। साधारी = आसरा बना लिया।1।

साकत = परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य, माया ग्रसित जीव। आवरदा = आरजा, उम्र। ब्रिथारी = व्यर्थ। कागद = कागज (शब्द ‘गुदारी’, ‘आवरदा”, ‘कागद’ के अक्षर ‘द’, अक्षर ‘ज’ से बदला हुआ है। इसी तरह ‘काजी’ का दूसरा उच्चारण ‘कादी’ है। ‘जपु’ (जपु जी साहिब) में शब्द ‘कादियां’ मिर्जों के नगर ‘कादियां के लिए नहीं है। वह भी ‘काजियों’ का दूसरा उच्चारण है)। टूकि = कतर कतर के। गावार = मूर्ख। रहाउ।

पारब्रहम = हे परमात्मा! अंध = (माया के मोह में) अंधे हो चुके। प्रभ = हे प्रभू! संगारी = संगति में।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य की उम्र अवश्य व्यर्थ जाती है, जैसे कोई चूहा कुतर-कुतर के कागजों के ढेर बेकार कर देता है, पर वह कागज उस मूर्ख के काम नहीं आते। रहाउ।

हे भाई! पराया धन चुराना, लोभ करना, झूठ बोलना, निंदा करनी - इसी तरह करते हुए (साकत सारी उम्र) गुजारता है। जैसे प्यासे हिरन को मारीचिका अच्छी लगती है, वैसे ही साकत झूठी आशाओं को अच्छा समझता है। (झूठी आशाओं की) टेक को अपने मन में स्तंभ बनाता है।1।

हे मालिक प्रभू! तू आप ही कृपा करके (माया के) इन बँधनों से छुड़वाता है। हे नानक! (कह–) हे प्रभू! माया के मोह में अँधे हो चुके मनुष्यों को, मोह में डूबते हुओं को, संत जनों की संगति में ला के तू खुद ही डूबने से बचाता है।2।11।42।

धनासरी महला ५ ॥ सिमरि सिमरि सुआमी प्रभु अपना सीतल तनु मनु छाती ॥ रूप रंग सूख धनु जीअ का पारब्रहम मोरै जाती ॥१॥ रसना राम रसाइनि माती ॥ रंग रंगी राम अपने कै चरन कमल निधि थाती ॥ रहाउ ॥ जिस का सा तिन ही रखि लीआ पूरन प्रभ की भाती ॥ मेलि लीओ आपे सुखदातै नानक हरि राखी पाती ॥२॥१२॥४३॥ {पन्ना 681}

पद्अर्थ: सिमरि = सिमर के। सीतल = ठंडा, शांत। छाती = हृदय। जीअ का = जीवात्मा का, जिंद के लिए। मोरै = मेरे लिए। जाती = उच्च जाति।1।

रसना = जीभ। रसाइन = (रस+आयन। आयन = घर) रसों का घर, रसों का खजाना। रसाइनि = रसों के खजाने में। माती = मस्त। निधि = खजाना। थाती = इकट्ठा किया। रहाउ।

सा = थी। तिन ही = (‘तिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। भाती = तरीका, ढंग। सुखदातै = सुखदाते ने। पाती = पति, इज्जत।2।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य की जीभ परमात्मा के नाम-रसायन में मस्त रहती है, और प्यारे प्रभू के प्रेम-रंग से रंगी जाती है, वही मनुष्य परमात्मा के कोमल चरणों की याद का खजाना (अपने हृदय में) इकट्ठा कर लेता है। रहाउ।

हे भाई! मालिक प्रभू (का नाम) बार-बार सिमर के शरीर मन व हृदय शांत हो जाते हैं। हे भाई! मेरे वास्ते भी परमात्मा का नाम ही रूप है, रंग है, सुख है, धन है, और ऊँची जाति है।1।

हे भाई! प्रभू का (जीवों के दुखों रोगों से) बचाने का तरीका उक्तम है। जो मनुष्य उस प्रभू का (सेवक) बन गया, उसको उसने बचा लिया। हे नानक! (शरण पड़े मनुष्य को) सुखदाते प्रभू ने आप ही सदा (अपने चरणों में) मिला लिया, और उसकी इज्जत रख ली।2।12।43।

धनासरी महला ५ ॥ दूत दुसमन सभि तुझ ते निवरहि प्रगट प्रतापु तुमारा ॥ जो जो तेरे भगत दुखाए ओहु ततकाल तुम मारा ॥१॥ निरखउ तुमरी ओरि हरि नीत ॥ मुरारि सहाइ होहु दास कउ करु गहि उधरहु मीत ॥ रहाउ ॥ सुणी बेनती ठाकुरि मेरै खसमाना करि आपि ॥ नानक अनद भए दुख भागे सदा सदा हरि जापि ॥२॥१३॥४४॥ {पन्ना 681}

पद्अर्थ: दूत = वैरी। सभि = सारे। तुझ ते = तुझसे, तेरी कृपा से। ते = से। निवरहि = दूर हो जाते हैं। प्रतापु = तेज, इकबाल। जो जो = जो जो मनुष्य। दुखाऐ = दुख देता है। ओह = (एक वचन) वह मनुष्य। ततकाल = उस वक्त। मारा = मार दिया, आत्मिक मौत मार दिया।1।

निरखउ = निरीक्षण करता हूँ, ध्यान से देखता हूं, ताकता हूँ। ओरि = एक तरफ। नीत = सदा। मुरारि = हे मुरारी! हे हरी! सहाइ = मददगार। करु = हाथ। गहि = पकड़ के। उधरहु = बचा लो। मीत = हे मित्र!। रहाउ।

ठाकुरि मेरै = मेरे ठाकुर ने। खसमाना = खसम वाले फर्ज। करि = कर के। जापि = जप के।2।

अर्थ: हे मुरारी! हे हरी! मैं सदा तेरी ओर (सहायता के लिए) ताकता रहता हूँ। (अपने) दास के वास्ते मददगार बन। हे मित्र प्रभू! (अपने सेवक का) हाथ पकड़ के इस को बचा ले। रहाउ।

हे प्रभू! (तेरे भक्तों के) सारे वैरी दुश्मन तेरी कृपा से दूर होते हैं, तेरा तेज-प्रताप (सारे जगत में) स्पष्ट है। जो जो तेरे भक्त को दुख देता है, तू उसको तुरंत (आत्मिक) मौत मार देता है।1।

हे नानक! (कह–) मेरे मालिक प्रभू ने पति वाला फर्ज पूरा करके (जिस मनुष्य की) विनती खुद सुन ली, उस मनुष्य को सदा ही परमात्मा का नाम जप के आत्मिक आनंद मिलता रहा, उसके सारे दुख नाश हो गए।2।13।44।

धनासरी महला ५ ॥ चतुर दिसा कीनो बलु अपना सिर ऊपरि करु धारिओ ॥ क्रिपा कटाख्य अवलोकनु कीनो दास का दूखु बिदारिओ ॥१॥ हरि जन राखे गुर गोविंद ॥ कंठि लाइ अवगुण सभि मेटे दइआल पुरख बखसंद ॥ रहाउ ॥ जो मागहि ठाकुर अपुने ते सोई सोई देवै ॥ नानक दासु मुख ते जो बोलै ईहा ऊहा सचु होवै ॥२॥१४॥४५॥ {पन्ना 681}

पद्अर्थ: चतुर = चार। दिसा = दिशाओं। थलु = धरती। करु = हाथ (एकवचन)। कटाख् = कटाक्ष्य, निगाह। अवलोकनु = देखना। अवलोकनु कीनो = देखा। बिदारिओ = दूर कर दिया।1।

जन = सेवक, दास (बहुवचन)। गुर गोविंद = बड़े मालिक ने। गोविंद = पृथ्वी का मालिक। कंठि = गले से। लाइ = लगा के। सभि = सारे। पुरख = सर्व व्यापक। रहाउ।

मागहि = मांगते हैं। ते = से। मुख ते = मुँह से। ईहा = इस लोक में। ऊहा = परलोक में। सचु = सदा स्थिर रहने वाला बचन, अटल वचन।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपने सेवक की (हमेशा) रखवाली करता है। (सेवक को अपने) गले से लगा के दया-का-घर सर्व-व्यापक बख्शनहार प्रभू उनके सारे अवगुण मिटा देता है। रहाउ।

हे भाई! जिस प्रभू ने चारों तरफ (सारी सृष्टि में) अपनी कला फैलाई हुई है, उसने (अपने दास के) सिर पर सदा ही अपना हाथ रखा हुआ है। मेहर की निगाह से अपने दास की ओर देखता है, और, उसका हरेक दुख दूर कर देता है।1।

हे भाई! प्रभू के दास अपने प्रभू से जो कुछ माँगते हैं वह वही कुछ उनको देता है। हे नानक! (प्रभू का) सेवक जो कुछ मुँह से बोलता है, वह इस लोक में परलोक में अटल हो जाता है।2।14।45।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh