श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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धनासरी महला ५ ॥ अउखी घड़ी न देखण देई अपना बिरदु समाले ॥ हाथ देइ राखै अपने कउ सासि सासि प्रतिपाले ॥१॥ प्रभ सिउ लागि रहिओ मेरा चीतु ॥ आदि अंति प्रभु सदा सहाई धंनु हमारा मीतु ॥ रहाउ ॥ मनि बिलास भए साहिब के अचरज देखि बडाई ॥ हरि सिमरि सिमरि आनद करि नानक प्रभि पूरन पैज रखाई ॥२॥१५॥४६॥ {पन्ना 682}

पद्अर्थ: अउखी = दुख देने वाली। देई = देता। बिरदु = मूल कदीमों का (प्यार वाला) स्वभाव। समाले = याद रखता है। देइ = दे के। राखै = रक्षा करता है। कउ = को। सासि सासि = हरेक सांस के साथ।1।

सिउ = साथ। आदि अंति = शुरू से आखिर तक, सदा ही। सहाई = मददगार। धंनु = सराहनीय। रहाउ।

मनि = मन में। बिलास = खुशियां। देखि = देख के। सिमरि = सिमर के। करि = मान। प्रभि = प्रभू ने। पैज = इज्जत।2।

अर्थ: हे भाई! मेरा मन (भी) उस प्रभू से जुड़ा रहता है, जो आरम्भ से आखिर तक सदा ही मददगार बना रहता है। हमारा वह मित्र प्रभू धन्य है (उसकी सदा तारीफ करनी चाहिए)। रहाउ।

हे भाई! (वह प्रभू अपने सेवक को) कोई दुख देने वाला समय नहीं देता, वह अपना प्यार वाला बिरद स्वभाव सदा याद रखता है। प्रभू अपना हाथ दे के अपने सेवक की रक्षा करता है, (सेवक को उसके) हरेक सांस के साथ पालता रहता है।1।

हे भाई! मालिक प्रभू के हैरान करने वाले करिश्मे देख के, उसका बड़प्पन देख के (सेवक के) मन में (भी) खुशियां बनी रहती हैं। हे नानक! तू भी परमात्मा का नाम सिमर-सिमर के आत्मिक आनंद ले। (जिस भी मनुष्य ने सिमरन किया) प्रभू ने पूरे तौर पर उसकी इज्जत रख ली।2।15।46।

धनासरी महला ५ ॥ जिस कउ बिसरै प्रानपति दाता सोई गनहु अभागा ॥ चरन कमल जा का मनु रागिओ अमिअ सरोवर पागा ॥१॥ तेरा जनु राम नाम रंगि जागा ॥ आलसु छीजि गइआ सभु तन ते प्रीतम सिउ मनु लागा ॥ रहाउ ॥ जह जह पेखउ तह नाराइण सगल घटा महि तागा ॥ नाम उदकु पीवत जन नानक तिआगे सभि अनुरागा ॥२॥१६॥४७॥ {पन्ना 682}

पद्अर्थ: प्रान पति = प्राणों का मालिक, जिंद का मालिक। गनहु = जानो, समझो। अभागा = बद किस्मत। रागिओ = प्रेमी हो गया। पागा = प्राप्त किया।1।

जिस कउ: ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कउ’ के कारण हटा दी गई है।

जनु = दास। रंगि = प्रेम में। जागा = सचेत रहता है। छीजि गइआ = समाप्त हो गया। रहाउ।

जह जह = जहाँ जहाँ। पेखउ = मैं देखूँ। तह = वहाँ। घटा महि = शरीरों में। तागा = धागा (जैसे मणकों में धागा परोया होता है)। उदकु = पानी, जल। पीवत = पीते हुए। सभि = (और) सारे। अनुरागा = प्यार।2।

अर्थ: हे प्रभू! तेरा सेवक तेरे नाम रंग में टिक के (माया के मोह से सदा) सचेत रहता है। उसके शरीर में से सारा आलस समाप्त हो जाता है, उसका मन, (हे भाई!) प्रीतम प्रभू से जुड़ा रहता है। रहाउ।

हे भाई! उस मनुष्य को बद्-किस्मत समझो, जिसको जिंद का मालिक प्रभू बिसर जाता है। जिस मनुष्य का मन परमात्मा के कोमल चरनों का प्रेमी हो जाता है, वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल का सरोवर ढूँढ लेता है।1।

हे भाई! (उसके सिमरन की बरकति से) मैं (भी) जिधर-जिधर देखता हूँ, वहाँ वहाँ परमात्मा ही सारे शरीरों में मौजूद दिखता है जैसे धागा (सारे मणकों में परोया होता है)। हे नानक! प्रभू के दास उस का नाम-जल पीते ही और सारे मोह-प्यार छोड़ देते हैं।2।19।47।

धनासरी महला ५ ॥ जन के पूरन होए काम ॥ कली काल महा बिखिआ महि लजा राखी राम ॥१॥ रहाउ ॥ सिमरि सिमरि सुआमी प्रभु अपुना निकटि न आवै जाम ॥ मुकति बैकुंठ साध की संगति जन पाइओ हरि का धाम ॥१॥ चरन कमल हरि जन की थाती कोटि सूख बिस्राम ॥ गोबिंदु दमोदर सिमरउ दिन रैनि नानक सद कुरबान ॥२॥१७॥४८॥ {पन्ना 682}

पद्अर्थ: पूरन = सफल। कली काल महि = झगड़ों भरे संसार में। महा बिखिआ महि = बड़ी (मोहनी) माया में। लजा = शर्म, इज्जत, लाज।1। रहाउ।

सिमरि = सिमर के। निकटि = नजदीक। जाम = जम, मौत, आत्मिक मौत। मुकति = विकारों से खलासी। बैकुंठ = स्वर्ग। धाम = घर।1।

थाती = (स्थिति) आसरा। कोटि = करोड़ों। बिस्राम = ठिकाना। सिमरउ = सिमरूँ। रैनि = रात। सद = सदा।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सेवक के सारे काम सफल हो जाते हैं। इस झमेलों भरे संसार में, इस बड़ी (मोहनी) माया में, परमात्मा (अपने सेवकों की) इज्जत रख लेता है।1। रहाउ।

हे भाई! अपने मालिक प्रभू का नाम बार-बार सिमर के (सेवकों के) नजदीक आत्मिक मौत नहीं फटकती। सेवक गुरू की संगति प्राप्त कर लेते हैं जो परमात्मा का घर है। (ये साध-संगति ही उनके वास्ते) विष्णु की पुरी है, विकारों से खलासी (पाने की जगह) है।1।

हे भाई! प्रभू के सेवकों के लिए प्रभू के चरन ही आसरा हैं, करोड़ों सुखों का ठिकाना हैं। हे नानक! (कह– हे भाई!) मैं (भी) उस गोबिंद को दामोदर को दिन-रात सिमरता रहता हूँ, और उससे सदके जाता हूँ।2।17।48।

धनासरी महला ५ ॥ मांगउ राम ते इकु दानु ॥ सगल मनोरथ पूरन होवहि सिमरउ तुमरा नामु ॥१॥ रहाउ ॥ चरन तुम्हारे हिरदै वासहि संतन का संगु पावउ ॥ सोग अगनि महि मनु न विआपै आठ पहर गुण गावउ ॥१॥ स्वसति बिवसथा हरि की सेवा मध्यंत प्रभ जापण ॥ नानक रंगु लगा परमेसर बाहुड़ि जनम न छापण ॥२॥१८॥४९॥ {पन्ना 682}

पद्अर्थ: मांगउ = मांगूँ। ते = से। सिमरउ = सिमरूँ। मनोरथ = मुरादें।1। रहाउ।

वासहि = बसते रहें। हिरदै = हृदय में। संगु = साथ, संगति। पावउ = पाऊँ। सोग = चिंता। महि = में। न विआपै = नहीं फसता। गावउ = गाऊँ।1।

स्वसति = शांति, स्वस्थ, सुख। बिवसथा = अवस्था, हालत। सेवा = सेवा भक्ति। मध्यंत = बीच से आखिर तक, सदा ही। जापण = जपने से। रंगु = प्यार। बाहुड़ि = दोबारा। छापण = मौत, छुपना।2।

अर्थ: हे भाई! मैं परमात्मा से एक ख़ैर माँगता हूँ (परमात्मा के आगे मैं विनती करता हूँ-) हे प्रभू! मैं तेरा नाम (सदा) सिमरता रहूँ, (तेरे सिमरन की बरकति से) सारी मुरादें पूरी हो जाती हैं।1। रहाउ।

हे प्रभू! तेरे चरण मेरे हृदय में बसते रहें, मैं तेरे संत जनों की संगति हासिल कर लूँ, मैं आठों पहर तेरे गुण गाता रहूँ। (तेरी सिफत सालाह की बरकति से) मन चिंता की आग में नहीं फसता।1।

हे नानक! हमेशा प्रभू का नाम जपने से, हरी की सेवा भक्ति करने से (मन में) शांति की हालत बनी रहती है। जिस मनुष्य (के मन में) परमात्मा का प्यार बन जाए वह बार-बार जनम-मरन (के चक्कर) में नहीं आता।2।18।49।

धनासरी महला ५ ॥ मांगउ राम ते सभि थोक ॥ मानुख कउ जाचत स्रमु पाईऐ प्रभ कै सिमरनि मोख ॥१॥ रहाउ ॥ घोखे मुनि जन सिम्रिति पुरानां बेद पुकारहि घोख ॥ क्रिपा सिंधु सेवि सचु पाईऐ दोवै सुहेले लोक ॥१॥ आन अचार बिउहार है जेते बिनु हरि सिमरन फोक ॥ नानक जनम मरण भै काटे मिलि साधू बिनसे सोक ॥२॥१९॥५०॥ {पन्ना 682}

पद्अर्थ: मांगउ = माँगूं, मैं माँगता हूँ। ते = से। सभि = सारे। थोक = पदार्थ। कउ = को। जाचत = मांगते हुए। स्रमु = थकावट। कै सिमरनि = के सिमरन से। मोख = (माया के मोह से) खलासी।1। रहाउ।

घोखे = ध्यान से विचारे। मुनि जन = ऋषि मुनी। पुकारहि = ऊँचा ऊँचा पढ़ते हैं। घोख = घोख के, ध्यान से विचार के। सिंधु = समुंद्र। सेवि = सेवा करके, शरण पड़ कर। सचु = सदा स्थिर हरी नाम। सुहेले = आसान।1।

आन = अन्य, और। अचार = धार्मिक रस्में। बिउहार = व्यवहार। जेते = जितने भी। फोक = फोके, व्यर्थ। भै = ( ‘भउ’ का बहुवचन) सारे डर। मिलि = मिल के। साधू = गुरू। सोक = चिंता ग़म।2।

अर्थ: हे भाई! मैं (तो) सारे पदार्थ परमात्मा से (ही) माँगता हूँ। मनुष्यों से माँगते हुए निरी परेशानी ही हासिल होती है, (दूसरी तरफ) परमात्मा के सिमरन के द्वारा (पदार्थ भी मिलते हैं और) माया के मोह से खलासी (भी) प्राप्त हो जाती है।1। रहाउ।

हे भाई! ऋ़षियों ने स्मृतियों-पुराणों को ध्यान से विचार के देखे, वेदों को (भी) विचार के ऊँची आवाज में पढ़ते हैं, (पर) कृपा के समुंद्र परमात्मा की शरण पड़ कर ही उसका सदा-स्थिर नाम प्राप्त होता है (जिसकी बरकति से) लोक-परलोक दोनों ही सुखद हो जाते हैं।1।

हे भाई! परमात्मा के सिमरन के बिना जितने और भी धार्मिक रिवाज और व्यवहार हैं सारे व्यर्थ हैं। हे नानक! गुरू को मिल के जनम-मरण के सारे डर काटे जाते हैं, और सारी चिंता-फिक्र नाश हो जाते हैं।2।19।50।

धनासरी महला ५ ॥ त्रिसना बुझै हरि कै नामि ॥ महा संतोखु होवै गुर बचनी प्रभ सिउ लागै पूरन धिआनु ॥१॥ रहाउ ॥ महा कलोल बुझहि माइआ के करि किरपा मेरे दीन दइआल ॥ अपणा नामु देहि जपि जीवा पूरन होइ दास की घाल ॥१॥ सरब मनोरथ राज सूख रस सद खुसीआ कीरतनु जपि नाम ॥ जिस कै करमि लिखिआ धुरि करतै नानक जन के पूरन काम ॥२॥२०॥५१॥ {पन्ना 682-683}

पद्अर्थ: कै नामि = के नाम से। गुर बचनी = गुरू के बचनों पर चलने से। सिउ = से। धिआनु = लगन।1। रहाउ।

कलोल = चोज तमाशे, नखरे। बुझहि = बुझ जाते हैं, प्रभाव नहीं डाल सकते। दीन दइआल = हे दीनों पर दया करने वाले! जपि = जप के। जीवा = जाऊँ, मैं आत्मिक जीवन प्राप्त करूँ। पूरन = सफल। घाल = मेहनत।1।

सरब = सारे। मनोरथ = मुरादें। सद = सदा। जपि = जप के। जिस कै करमि = जिसकी किस्मत में (‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कै’ के कारण हटा दी गई है)। धुरि = धुर दरगाह से। करतै = करतार ने। पूरन = सफल।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम में जुड़ने से (माया के मोह की) प्यास समाप्त हो जाती है। गुरू की बाणी का आसरा लेने से (मन में) बड़ा संतोष पैदा हो जाता है, और, परमात्मा के चरणों में पूरे तौर पर सुरति जुड़ जाती है।1। रहाउ।

हे दीनों पर दया करने वाले मेरे प्रभू! जिस मनुष्य पर तू कृपा करता है, माया के रंग-तमाशे उस पर प्रभाव नहीं डाल सकते। हे प्रभू! (मुझे भी) अपना नाम बख्श, तेरा नाम जप के मैं आत्मिक जीवन प्राप्त कर सकूँ, तेरे (इस) दास की मेहनत सफल हो जाए।1।

हे भाई! परमात्मा का नाम जप के, परमात्मा की सिफत सालाह करके सारी मुरादें पूरी हो जाती हैं (मानो) राज के सुख और रस मिल जाते हैं, सदा आनंद बना रहता है। (पर) हे नानक! करतार ने जिस मनुष्य की किस्मत में धुर दरगाह से (ये नाम की दाति) लिख दी, उसी मनुष्य के सारे कार्य सफल होते हैं।2।20।51।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh