श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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धनासरी मः ५ ॥ जन की कीनी पारब्रहमि सार ॥ निंदक टिकनु न पावनि मूले ऊडि गए बेकार ॥१॥ रहाउ ॥ जह जह देखउ तह तह सुआमी कोइ न पहुचनहार ॥ जो जो करै अवगिआ जन की होइ गइआ तत छार ॥१॥ करनहारु रखवाला होआ जा का अंतु न पारावार ॥ नानक दास रखे प्रभि अपुनै निंदक काढे मारि ॥२॥२१॥५२॥ {पन्ना 683}

पद्अर्थ: पारब्रहमि = पारब्रहम ने। सार = संभाल। टिकनु न पावनि = (सेवक के मुकाबले में) टिकाव हासिल नहीं कर सकते, नहीं अड़ सकते। मूले = बिल्कुल ही। बेकार = नकारा (हो के)।1। रहाउ।

जह जह = जहाँ जहाँ। देखउ = देखूँ, मैं देखता हूँ। पहुचनहारा = बराबरी कर सकने लायक। जो जो = जो जो मनुष्य। अवगिआ = निरादरी। तत = तुरंत। छार = स्वाह, राख।1।

जा का = जिस (करनहार प्रभू) का। प्रभि = प्रभू ने। मारि = मार के, आत्मिक मौत मार के।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने (सदा ही) अपने सेवकों की संभाल की है। (उनकी) निंदा करने वाले उनके मुकाबले में बिल्कुल ही अड़ नहीं सकते। (जैसे हवा के आगे बादल उड़ जाते हैं वैसे ही निंदक सेवकों के मुकाबले में हमेशा) नकारे हो के उड़ गए।1। रहाउ।

हे भाई! जिस परमात्मा की कोई भी बराबरी नहीं कर सकता, मैं जहाँ जहाँ देखता हूँ वहाँ ही वह मालिक प्रभू बसता है, उसके सेवक की जो भी निरादरी करता है, (वह आत्मिक जीवन में) तुरंत राख हो जाता है।1।

हे भाई! जिस परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, जिसकी हस्ती का परला-उरला छोर नहीं पाया जा सकता, वह सबको पैदा करने वाला परमात्मा (अपने सेवकों का सदा) रखवाला रहता है। हे नानक! प्रभू ने अपने सेवकों की सदा रखवाली की है, और उनकी निंदा करने वालों को आत्मिक मौत मार के (अपने दर से) निकाल बाहर करता है।2।21।52।

धनासरी महला ५ घरु ९ पड़ताल    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हरि चरन सरन गोबिंद दुख भंजना दास अपुने कउ नामु देवहु ॥ द्रिसटि प्रभ धारहु क्रिपा करि तारहु भुजा गहि कूप ते काढि लेवहु ॥ रहाउ ॥ काम क्रोध करि अंध माइआ के बंध अनिक दोखा तनि छादि पूरे ॥ प्रभ बिना आन न राखनहारा नामु सिमरावहु सरनि सूरे ॥१॥ पतित उधारणा जीअ जंत तारणा बेद उचार नही अंतु पाइओ ॥ गुणह सुख सागरा ब्रहम रतनागरा भगति वछलु नानक गाइओ ॥२॥१॥५३॥ {पन्ना 683}

पद्अर्थ: हरि = हे हरी! गोबिंद = हे गोबिंद! दुख भंजना = हे दुखों के नाश करने वाले! कउ = को। द्रिसटि = नजर। प्रभ = हे प्रभू! करि = कर के। तारहु = पार लंघा ले। भुजा = बाँह। गहि = पकड़ के। कूप ते = कूएं में से। रहाउ।

करि = के कारण। अंध = (बहुवचन) अंधे होए हुए। बंध = बंधनों में। दोखा = पाप। तनि = शरीर में। छाइ = छाए हुए। पूरे = पूरी तरह। आन = अन्य, कोई और। सरनि सूरे = हे शरण के सूरमे, हे शरण आए हुए की सहायता करने वाले।1।

पतित उधारणा = हे विकारियों को बचाने वाले! बेद उचार = वेदों का पाठ करने वालों ने। गुणह सागरा = हे गुणों के समुंद्र! रतनागरा = हे रत्नों की खान! वछलु = वत्सल, प्यार करने वाला। नानक = हे नानक!।2।

अर्थ: हे हरी! हे गोबिंद! हे दुखों का नाश करने वाले! अपने दास को अपना नाम बख्श। हे प्रभू! (अपने दास पर) मेहर की निगाह कर, कृपा करके (दास को संसार समुंद्र से) पार लंघा ले, (दास की) बाँह पकड़ के (दास को मोह के) कूएं में से निकाल ले। रहाउ।

हे प्रभू! काम-क्रोध (आदि विकारों) के कारण (जीव) अंधे हुए पड़े हैं, माया के बँधनों में फसे पड़े हैं, अनेकों विकार (इनके) शरीर में पूरी तरह से प्रभाव डाले बैठे हैं। हे प्रभू! तेरे बिना कोई और (जीवों की विकारों से) रक्षा करने के लायक नहीं। हे शरण आए की लाज रख सकने वाले! अपना नाम जपा!।1।

हे विकारियों को बचाने वाले! हे सारे जीवों को पार लंघाने वाले! वेदों को पढ़ने वाले भी तेरे गुणों का अंत नहीं पा सके। हे नानक! (कह–) हे गुणों के समुंद्र! हे रत्नों की खान पारब्रहम! मैं तुझे भक्ति से प्यार करने वाला जान के तेरी सिफत सालाह कर रहा हूँ।2।1।53।

धनासरी महला ५ ॥ हलति सुखु पलति सुखु नित सुखु सिमरनो नामु गोबिंद का सदा लीजै ॥ मिटहि कमाणे पाप चिराणे साधसंगति मिलि मुआ जीजै ॥१॥ रहाउ ॥ राज जोबन बिसरंत हरि माइआ महा दुखु एहु महांत कहै ॥ आस पिआस रमण हरि कीरतन एहु पदारथु भागवंतु लहै ॥१॥ सरणि समरथ अकथ अगोचरा पतित उधारण नामु तेरा ॥ अंतरजामी नानक के सुआमी सरबत पूरन ठाकुरु मेरा ॥२॥२॥५४॥ {पन्ना 683}

पद्अर्थ: हलति = अत्र, इस लोक में। पलति = परत्र, परलोक में। नित = नित्य। सिमरनो = सिमरने से। लीजै = लेना चाहिए। मिटहि = मिट जाते हैं। कमाणे चिराणे = चिर से कमाए हुए। मिलि = मिल के। मुआ = आत्मिक मौत मरा हुआ। जीजै = जी पड़ता है, आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है।1। रहाउ।

बिसरंत = भुला देते हैं। महा = बड़ा। ऐहु = ये (वचन)। महांत = बड़ी आत्मा वाले। कहै = कहें। पिआस = तमन्ना। रमण = सिमरन। कीरतन = सिफत सालाह। भागवंतु = किस्मत वाला मनुष्य। लहै = प्राप्त करता है।1।

सरणि समरथ = हे शरण आए की सहायता करने वाले! अकथ = हे ऐसे प्रभू जिसका स्वरूप बयान नहीं हो सकता। अगोचरा = हे अगोचर! (अ+गो+चर। गो = ज्ञानेंद्रियां। चर = पहुँच) ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच से परे रहने वाले हे प्रभू! पतित = विकारों में गिरे हुए। पतित उधारण = विकारियों को विकारों से बचाने वाला। अंतरजामी = हे हरेक के दिल की जानने वाले! सरबत = सर्वत्र, हर जगह।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम सदा सिमरना चाहिए। सिमरन इस लोक में और परलोक में सदा ही सुख देने वाला है (सिमरन की बरकति से) चिरों के किए हुए पाप मिट जाते हैं। हे भाई! साध-संगति में मिल के (सिमरन करने से) आत्मिक मौत मरा हुआ मनुष्य दोबारा आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है।1। रहाउ।

हे भाई! राज और जवानी (के हुल्लारे) परमात्मा का नाम भुला देते हैं। माया का मोह बड़े दुखों (का मूल) है - ये बात महापुरुख बताते हैं। परमात्मा के नाम के सिमरन, परमात्मा की सिफत सालाह की आस व तमन्ना - ये कीमती चीज कोई दुर्लभ भाग्यशाली मनुष्य प्राप्त करता है।1।

हे शरण आए की सहायता करने के लायक! हे अकॅथ!, हे अगोचर!, हे अंतरजामी! हे नानक के मालिक! तेरा नाम विकारियों को विकारों से बचा लेने वाला है। हे भाई! मेरा मालिक प्रभू सब जगह व्यापक है।2।2।58।

धनासरी महला ५ घरु १२    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ बंदना हरि बंदना गुण गावहु गोपाल राइ ॥ रहाउ ॥ वडै भागि भेटे गुरदेवा ॥ कोटि पराध मिटे हरि सेवा ॥१॥ चरन कमल जा का मनु रापै ॥ सोग अगनि तिसु जन न बिआपै ॥२॥ सागरु तरिआ साधू संगे ॥ निरभउ नामु जपहु हरि रंगे ॥३॥ पर धन दोख किछु पाप न फेड़े ॥ जम जंदारु न आवै नेड़े ॥४॥ त्रिसना अगनि प्रभि आपि बुझाई ॥ नानक उधरे प्रभ सरणाई ॥५॥१॥५५॥ {पन्ना 683-684}

पद्अर्थ: बंदना = नमसकार। गुण गोपाल राइ = प्रभू पातशाह के गुण। रहाउ।

भागि = किस्मत से। भेटे = मिलता है। कोटि = करोड़ों। सेवा = भक्ति।4।

जा का = जिस (मनुष्य) का। रापै = रंगा जाता है। सोग = चिंता। बिआपै = जोर डालती।2।

सागरु = समुंद्र। साधू = गुरू। रंगे = रंगि, प्रेम से।3।

पर धन = पराया धन। दोख = ऐब। फेड़े = बुरे कर्म। जंदारु = (जंदाल) अवैड़ा।4।

प्रभि = प्रभू ने। उधरे = (विकारों से) बच गए।5।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा को हमेशा नमस्कार किया करो, प्रभू पातशाह के गुण गाते रहो। रहाउ।

हे भाई! जिस मनुष्य को खुश-किस्मती से गुरू मिल जाता है, (गुरू के द्वारा) परमात्मा की सेवा-भक्ति करने से उसके करोड़ों पाप मिट जाते हैं।1।

हे भाई! जिस मनुष्य का मन परमात्मा के सोहणें चरणों (के प्रेम-रंग में) रंगा जाता है, उस मनुष्य पर चिंता की आग जोर नहीं डाल सकती।2।

हे भाई! प्रेम सं निर्भय प्रभू का नाम जपा करो। गुरू की संगति में (नाम जपने की बरकति से) संसार-समुंद्र से पार लांघ जाते हैं।3।

हे भाई! (सिमरन के सदका) पराए धन (आदि) के कोई ऐब आदि दुष्कर्म नहीं होते, भयानक यम भी नजदीक नहीं फटकता (मौत का डर नहीं व्याप्ता, आत्मिक मौत नजदीक नहीं आती)।4।

हे भाई! (जो मनुष्य प्रभू के गुण गाते हैं) उनकी तृष्णा की आग प्रभू ने खुद बुझा दी है। हे नानक! प्रभू की शरण पड़ कर (अनेकों जीव तृष्णा की आग में से) बच निकलते हैं।5।1।55।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh