श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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दिन ते पहर पहर ते घरीआं आव घटै तनु छीजै ॥ कालु अहेरी फिरै बधिक जिउ कहहु कवन बिधि कीजै ॥१॥ सो दिनु आवन लागा ॥ मात पिता भाई सुत बनिता कहहु कोऊ है का का ॥१॥ रहाउ ॥ जब लगु जोति काइआ महि बरतै आपा पसू न बूझै ॥ लालच करै जीवन पद कारन लोचन कछू न सूझै ॥२॥ कहत कबीर सुनहु रे प्रानी छोडहु मन के भरमा ॥ केवल नामु जपहु रे प्रानी परहु एक की सरनां ॥३॥२॥ {पन्ना 692}

पद्अर्थ: दिन ते = दिनों से। आव = आयु। छीजै = कमजोर होता जा रहा है। अजेही = शिकारी। बधिक = शिकारी। कहहु = बताओ। कवन बिधि कीजै = कौन सी विधी इस्तेमाल की जाए? कौन सा तरीका बरता जाए? कोई ढंग कामयाब नहीं हो सकता।1।

सो दिनु = वह दिन (जब काल अहेरी ने हमें भी आ पकड़ना है)। सुत = पुत्र। बनिता = पत्नी। का का = किस का? कोऊ है का का = कोई किस का है? कोई किसी का नहीं बन सकता।1। रहाउ।

जोति = आत्मा, जिंद। बरतै = मौजूद है। आपा = अपना असल। जीवन पद कारन = और और जीने के लिए, लंबी उम्र के लिए। लोचन = आँखें।2।

अर्थ: दिनों से पहर, पहर से घड़ियां (गिन लो, इस तरह थोड़ा-थोड़ा समय करके) उम्र कम होती जाती है, और शरीर कमजोर होता जाता है, (सब जीवों के सिर पर) काल-रूप शिकारी ऐसे फिरता है जैसे (हिरन आदि का शिकार करने वाले) शिकारी। बताओ, इस शिकारी से बचने के लिए कौन सा यत्न किया जा सकता है?।1।

(हरेक जीव के सर पर) वह दिन आता जाता है (जब काल-शिकारी आ पकड़ता है); माता, पिता, पुत्र, पत्नी -इनमें से कोई (उस काल के आगे) किसी की सहायता नहीं कर सकता।1। रहाउ।

जब तक शरीर में आत्मा मौजूद रहती है, पशु- (मनुष्य) अपनी अस्लियत को नहीं समझता, और और ही जीने की लालच करता रहता है, इसे आँखों से ये नहीं दिखता (कि काल-अहेरी से छुटकारा नहीं हो सकेगा)।2।

कबीर कहता है– हे भाई! सुनो, मन के (ये) भुलेखे दूर कर दो (कि सदा यहीं बैठे रहना है)। हे जीव! (और लालसाएं छोड़ के) सिर्फ प्रभू का नाम सिमरो, और उस एक की शरण आओ।3।2।

शबद का भाव: मौत नजदीक आ रही है, उम्र सहजे-सहजे घटती जा रही है। भजन करो।

जो जनु भाउ भगति कछु जानै ता कउ अचरजु काहो ॥ जिउ जलु जल महि पैसि न निकसै तिउ ढुरि मिलिओ जुलाहो ॥१॥ हरि के लोगा मै तउ मति का भोरा ॥ जउ तनु कासी तजहि कबीरा रमईऐ कहा निहोरा ॥१॥ रहाउ ॥ कहतु कबीरु सुनहु रे लोई भरमि न भूलहु कोई ॥ किआ कासी किआ ऊखरु मगहरु रामु रिदै जउ होई ॥२॥३॥ {पन्ना 692}

पद्अर्थ: जानै = सांझ रखता है। ता कउ = उस वास्ते। काहो अचरजु = कौन सा अनोखा काम? कोई बड़ी अनोखी बात नहीं। पैसि = पड़ के। ढुरि = ढल के, नर्म हो के, स्वै भाव गवा के।1।

भोरा = भोला। तउ = तो। तजहि = त्याग दे। कबीरा = हे कबीर! निहोरा = अहसान, उपकार।1। रहाउ।

रे लोई = हे लोगो! हे जगत! (शब्द ‘रे’ पुलिंग है, इसका स्त्रीलिंग ‘री’ है। सो कबीर जी यहाँ अपनी पत्नी ‘लोई’ के लिए नहीं कह रहे)। ऊखरु = कलॅर। मगहरु = एक जगह का नाम, ये गाँव उक्तर प्रदेश में जिला बस्ती में है। हिंदू लोगों का ख्याल है कि इस जगह को शिव जी ने श्राप दिया था, इसलिए यहाँ मरने से मुक्ति नहीं मिल सकती।2।

अर्थ: जैसे पानी, पानी में मिल के (दोबारा) अलग नहीं हो सकता, वैसे (कबीर) जुलाहा (भी) स्वै भाव मिटा के परमात्मा में मिल गया है। इस में कोई अनोखी बात नहीं है, जो भी मनुष्य प्रभू-प्रेम और प्रभू-भक्ति से सांझ बनाता है (उसका प्रभू के साथ एक हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है)।1।

हे संत जनो! (लोगों के लिए तो) मैं दिमाग का पागल ही सही (भाव, लोग मुझे भले ही मूर्ख कहें कि मैं काशी छोड़ के मगहर आ गया हूँ)। (पर,) हे कबीर! अगर तू काशी में (रहते हुए) शरीर त्यागे (और मुक्ति मिल जाए) तो इसमें परमात्मा का क्या उपकार समझा जाएगा? क्योंकि काशी में तो वैसे ही इन लोगों के ख्याल के मुताबिक मरने पर मुक्ति मिल जाती है, तो फिर सिमरने से क्या लाभ?।1। रहाउ।

(पर) कबीर कहता है– हे लोगो! सुनो, कोई मनुष्य किसी भुलेखे में ना पड़ जाए (कि काशी में मुक्ति मिलती है, और मगहर में नहीं मिलती), अगर परमात्मा (का नाम) हृदय में हो, तो काशी क्या और कलराठा मगहर क्या? (दोनों तरफ प्रभू में लीन हुआ जा सकता है)।2।3।

शबद का भाव: प्रभू से मिलाप का तरीका प्रभू का सिमरन ही है, किसी खास तीर्थ-यात्रा से इसका संबंध नहीं है।3।

इंद्र लोक सिव लोकहि जैबो ॥ ओछे तप करि बाहुरि ऐबो ॥१॥ किआ मांगउ किछु थिरु नाही ॥ राम नाम रखु मन माही ॥१॥ रहाउ ॥ सोभा राज बिभै बडिआई ॥ अंति न काहू संग सहाई ॥२॥ पुत्र कलत्र लछमी माइआ ॥ इन ते कहु कवनै सुखु पाइआ ॥३॥ कहत कबीर अवर नही कामा ॥ हमरै मन धन राम को नामा ॥४॥४॥ {पन्ना 692}

पद्अर्थ: इंद्र लोक = स्वर्ग। सिव लोकहि = शिव पुरी में। जैबो = (अगर मनुष्य पहुँच) जाएगा। ओछे = हल्के किस्म के (काम)। करि = कर के। बाहुरि = दोबारा, फिर (शब्द ‘बाहुरि’ और ‘बाहरि’ में फर्क है इसे समझें)। अैबो = आइबो, आ जाएगा।1।

मागउ = मैं मांगूँ। थिरु = सदा कायम रहने वाली, स्थिर। माही = में।1। रहाउ।

बिभै = (संस्कृत: विभय) ऐश्वर्य, वैभव। अंति = आखिरी समय। सहाई = साथी।2।

कलत्र = स्त्री। कहु = बताओ। कवनै = किस ने? ते = से।3।

अवर = और (काम)। नही कामा = किसी मतलब के नहीं, कोई लाभ नहीं। हमरै मन = मेरे मन को।4।

अर्थ: (मैं अपने प्रभू से ‘नाम’ के बिना और) क्या माँगू? कोई चीज सदा कायम रहने वाली नहीं (दिखाई देती)।1। रहाउ।

अगर मनुष्य तप आदि के हल्के किस्म के काम करके इन्द्र-पुरी व शिव-पुरी आदि में भी पहुँच जाएगा तो भी वहीं दोबारा वापस आएगा (भाव, शास्त्रों के अपने ही लिखे अनुसार इन जगहों पर भी सदा के लिए टिका नहीं रहा जा सकता)।1।

जगत में नाम-शोहरत, राज, ऐश्वर्य, वडिआई - इनमें से भी कोई आखिरी समय में संगी-साथी नहीं बन सकता।2।

पुत्र, पत्नी, धन-पदार्थ - बताओ, (हे भाई!) इनसे कभी किसी ने सुख पाया है?।3।

कबीर कहता है– (प्रभू के नाम से टूट के) और कोई काम किसी अर्थ के नहीं। मेरे मन को तो परमात्मा का नाम ही (सदा कायम रहने वाला) धन प्रतीत होता है।4।4।

शबद का भाव: परमात्मा का भजन ही ऐक ऐसा धन है जो सदा साथ निभता है। स्वर्ग, शिव पुरा, राज, वडिआई, संबन्धी- इनमें से कोई भी सदा का साथी नहीं।

राम सिमरि राम सिमरि राम सिमरि भाई ॥ राम नाम सिमरन बिनु बूडते अधिकाई ॥१॥ रहाउ ॥ बनिता सुत देह ग्रेह स्मपति सुखदाई ॥ इन्ह मै कछु नाहि तेरो काल अवध आई ॥१॥ अजामल गज गनिका पतित करम कीने ॥ तेऊ उतरि पारि परे राम नाम लीने ॥२॥ सूकर कूकर जोनि भ्रमे तऊ लाज न आई ॥ राम नाम छाडि अम्रित काहे बिखु खाई ॥३॥ तजि भरम करम बिधि निखेध राम नामु लेही ॥ गुर प्रसादि जन कबीर रामु करि सनेही ॥४॥५॥ {पन्ना 692}

पद्अर्थ: भाई = हे भाई! बूडते = (संसार समुंद्र की विकारों की लहरों में) डूबते हैं। अधिकाई = बहुत जीव।1। रहाउ।

बनिता = पत्नी। सुत = पुत्र। ग्रेह = गृह, घर। संपति = दौलत। सुखदाई = सुख देने वाले। काल = मौत। अवध = अवधि, आखिरी समय, आखिरी सीमा।1।

अजामल = भागवत की कथा है कि एक ब्राहमण अजामल का कन्नौज की रहने वाली एक वैश्वा के साथ प्रेम हो गया, सारी उम्र विकारों में गुजारता रहा। पर अपने एक पुत्र का नाम ‘नारायण’ रखने के कारण सहजे-सहजे उसकी लिव नारायण = प्रभू के साथ बनती गई, और इस तरह विकारों की ओर उपराम हो के भक्ती की ओर लग गया। गज = हाथी; भागवत की एक कथा है कि श्राप के कारण एक गंधर्व हाथी की जूनि आ पड़ा। सरोवर में पीने गए को एक तंदूए ने पकड़ लिया। परमात्मा की आराधना ने उसे इस बिपता से बचाया।

गनिका = वैश्वा, इसको एक महात्मा विकारी जीवन से बचाने के लिए ‘राम, राम’ कहने वाला एक तोता दे गए। उस तोते की संगति में इसको राम सिमरने की लगन लग गई, और इस तरह ये वैश्वा विकारों से हट गई। पतित करम = विकार। तेऊ = ये भी।2। सूकर = सूअर। कूकर = कुत्ते। भ्रमे = भटकते रहे। तऊ = तो भी। बिखु = जहर।3।

तजि = छोड़ दे। बिधि करम = वह कर्म जो विधि अनुसार हो, वह कर्म जिनके करने की आज्ञा शास्त्रों में मिली हो। बिधि = आज्ञा। निखेध = मनाही। सनेही = प्यारा, साथी।4।

अर्थ: हे भाई! प्रभू का सिमरन कर, प्रभू का सिमरन कर। सदा राम का सिमरन कर। प्रभू का सिमरन किए बिना बहुत सारे जीव (विकारों में) डूब जाते हैं।1। रहाउ।

पत्नी, पुत्र, शरीर, घर, दौलत - ये सारे सुख देने वाले प्रतीत होते हैं, पर जब मौत रूपी तेरा आखिरी समय आया, तो इनमें से कोई भी तेरा अपना नहीं रह जाएगा।1।

अजामल, गज, गनिका -ये विकार करते रहे, पर जब परमात्मा का नाम इन्होंने सिमरा, तो ये भी (इन विकारों में से) पार लांघ गए।2।

(हे सज्जन!) तू सूअर, कुत्ते आदि की जूनियों में भटकता रहा, फिर भी तुझे (अब) शर्म नहीं आई (कि तू अभी भी नाम नहीं सिमरता)। परमात्मा का अमृत-नाम विसार के क्यों (विकारों का) जहर खा रहा है?।3।

(हे भाई!) शास्त्रों के अनुसार किए जाने वाले कौन से काम है, और शास्त्रों में कौन से कामों के करने की मनाही है– इस वहिम को छोड़ दे, और परमात्मा का नाम सिमर। हे दास कबीर! तू अपने गुरू की कृपा से अपने परमात्मा को ही अपना प्यारा (साथी) बना।4।5।

शबद का भाव: परमात्मा का नाम सिमरो- यही है सदा का साथी, और इस की बरकति से बड़े-बड़े विकारी भी तैर जाते हैं। कर्म-काण्ड के भुलेखों में ना पड़ो।

धनासरी बाणी भगत नामदेव जी की    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ गहरी करि कै नीव खुदाई ऊपरि मंडप छाए ॥ मारकंडे ते को अधिकाई जिनि त्रिण धरि मूंड बलाए ॥१॥ हमरो करता रामु सनेही ॥ काहे रे नर गरबु करत हहु बिनसि जाइ झूठी देही ॥१॥ रहाउ ॥ मेरी मेरी कैरउ करते दुरजोधन से भाई ॥ बारह जोजन छत्रु चलै था देही गिरझन खाई ॥२॥ सरब सुोइन की लंका होती रावन से अधिकाई ॥ कहा भइओ दरि बांधे हाथी खिन महि भई पराई ॥३॥ दुरबासा सिउ करत ठगउरी जादव ए फल पाए ॥ क्रिपा करी जन अपुने ऊपर नामदेउ हरि गुन गाए ॥४॥१॥ {पन्ना 692-693}

पद्अर्थ: गहरी = गहरी। नीव = नींव। मंडप = शामियाने, महल माढ़ियां। छाऐ = बनवाए। मारकंडे = मारकण्डेय, एक ऋषि का नाम है, बहुत लंबी उम्र वाला था, पर सारी उम्र उसने झोपड़ी में ही गुजारी। अधिकाई = बड़ी लंबी उम्र वाला। जिनि = जिस ने। त्रिण = तीले। धारि = धारण करके, रख के। मूंड = सिर। त्रिण धरि मूंड = सिर पर तिनके रखके, तिनकों की कुल्ली बना के। बलाऐ = समय गुजारा।1।

करता = करतार। सनेही = प्यारा, सदा साथ निभाने वाला। हे नर = हे लोगो! गरबु = अहंकार। झूठी देही = नाशवंत शरीर।1। रहाउ।

कुरू = दिल्ली के पास के इलाके का नाम पुराने समय में ‘कुरू’ था। कैरउ = कौरव, ‘कुरू देश में राज करने वाले राजाओं की संतान। से = जैसे। भाई = भ्राता। जोजन = चार कोस। बारह जोजन = अढ़तालीस कोस। छत्र चलै था = छत्र का प्रभाव था, फौजों का फैलाव था।2।

सुोइन = सोने की (अक्षर ‘स’ के साथ दो मात्राएं ‘ो’ व ‘ु’ हैं; असल शब्द है ‘सोइन’, यहाँ पढ़ना है ‘सुइन’)। अधिकाई = बड़े बली। कहा भइओ = आखिर क्या बना? आखिर में कुछ भी नहीं बना। दरि = दर पर, दरवाजे पर।3।

दुरबासा = दुर्वासा ऋषि एक तपस्वी था, बहुत जल्दबाज स्वभाव वाला, जल्दी ही गुस्से में आ के श्राप दे देता था। ठगउरी = ठॅगी, मजाक ।

(कृष्ण जी के कुल ‘यादव’ के कुछ लड़के एक बार समुंद्र के किनारे द्वारिका के पास एक मेल के वक्त पर एकत्र हुए। वहीं दुर्वासा ऋषि तप करता था, इन लड़कों को मजाक सूझा। एक बगै़र दाढ़ी वाले लड़के के पेट पर लोहे का तसला उलटा के बाँध के उसे औरतों वाले कपड़े पहना के उसके पास ले गए। पूछा, ऋषि जी! इसके घर क्या पैदा होगा? दुर्वासा समझ गया कि मसखरी कर रहे हैं, गुस्से में आ के उसने श्राप दे डाला कि जो पैदा होगा वह तुम्हारी सारी कुल का नाश कर देगा। श्राप से घबरा के कृष्ण जी की सलाह से वे उस तसले को पत्थर से रगड़ते रहे कि इस लोह का निशान ही मिट जाए। छोटा सा टुकड़ा ही रह गया, वह समुंद्र में फेंक दिया। ये टुकड़ा एक मछली हड़प कर गई। ये मछली एक शिकारी ने पकड़ी। चीरने पर निकला ये लोहा उसने अपने तीर के आगे लगा लिया। जहाँ तसला पत्थर पर रगड़ा था, वहाँ सरकण्डा उग आया। एक दिन एक मेले के वक्त यादवों के जवान लड़के शराब पी के उस सरकण्डे वाली जगह पर आ इकट्ठे हुए। शराब की मस्ती में कुछ बोल-कुबोल हो गया, बात बढ़ गई, लड़ाई हो गई, वह सरकण्डे भी उखाड़-उखाड़ के लड़ाई में इस्तेमाल किया और सारे ही आपस में लड़ते हुए मर गए। कुल का नाश हुआ देख के एक दिन कृष्ण जी वन में लेटे विश्राम कर रहे थे, एक घुटने पर दूसरा पैर टिका रखा था। वह मछली वाला शिकारी शिकार की तलाश में आ निकला; दूर से देख के उसने हिरन समझा, और श्रापे हुए लोहे में से बचे हुए लोहे के टुकड़े वाला तीर कस के दे मारा और इस तरह यादव-कुल का आखिरी दीया भी बुझ गया)।4।

अर्थ: हे लोगो! (अपने शरीर का) क्यों गुमान करते हो? ये शरीर नाशवान है, नाश हो जाएगा; हमारा असल प्यारा (जिसने साथ निभाना है) तो करतार है, परमात्मा है।1। रहाउ।

जिन्होंने गहरी नीवें खुदवा के ऊपर महल-माढ़ियां उसरवाई (उनके भी यहीं रह गए; तभी समझदार लोक इन महल-माढ़ियों का मान नहीं करते; देखो) मारकण्डे ऋषि से ज्यादा उम्र किसी की होनी है? उसने तीलों की कुल्ली में ही समय बिताया।1।

जिन कौरवों के दुर्योधन जैसे (बली) भाई थे, वे भी (ये गुमान करते रहे कि) हमारी (बादशाही) हमारी (बादशाही), (पांडव क्या लगते हैं इस धरती के?); (कुरूक्षेत्र के युद्ध के वक्त) अढ़तालिस कोस तक उनकी सेना का फैलाव था (पर किधर गई बादशाहियत और कहां गया छत्र? कुरूक्षेत्र के युद्ध में) गिद्धों ने उनकी लाशें खाई।2।

रावण जैसे बड़े बली राजे की लंका सारी सोने की थी, (उसके महलों के) दरवाजे पर हाथी-घोड़े खड़े होते थे, पर आखिर में क्या बना? एक पल में सब कुछ पराया हो गया।3।

(सो, अहंकार किसी भी चीज का हो बुरा होता है; अहंकार में आ के ही) यादवों ने दुर्वासा के साथ मसखरी की और फल ये मिला कि (सारी कुल ही समाप्त हो गई)। (पर शुक्र है) अपने दास नामदेव पर परमात्मा ने कृपा की है और नामदेव (मान त्याग के) परमात्मा के गुण गाता है।4।1।

भाव: अहंकार, चाहे किसी भी चीज का हो, बुरा है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh