श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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दस बैरागनि मोहि बसि कीन्ही पंचहु का मिट नावउ ॥ सतरि दोइ भरे अम्रित सरि बिखु कउ मारि कढावउ ॥१॥ पाछै बहुरि न आवनु पावउ ॥ अम्रित बाणी घट ते उचरउ आतम कउ समझावउ ॥१॥ रहाउ ॥ बजर कुठारु मोहि है छीनां करि मिंनति लगि पावउ ॥ संतन के हम उलटे सेवक भगतन ते डरपावउ ॥२॥ इह संसार ते तब ही छूटउ जउ माइआ नह लपटावउ ॥ माइआ नामु गरभ जोनि का तिह तजि दरसनु पावउ ॥३॥ इतु करि भगति करहि जो जन तिन भउ सगल चुकाईऐ ॥ कहत नामदेउ बाहरि किआ भरमहु इह संजम हरि पाईऐ ॥४॥२॥ {पन्ना 693}

पद्अर्थ: बैरागनि = संस्कृत: वैरागिनी = a female ascetic who has subdued all her passions and desires, शांत हुई इन्द्रियां। मोहि = मैंने (देखें बंद नं: 2 में शब्द ‘मोहि’)। पंचहु का = पाँचों कामादिकों का। नावउ = नाम ही, निशान ही। सतरि दोइ = बहत्तर हजार नाड़ियां (देखें, ‘बहतरि घर इक पुरखु समाइआ’ – सूही कबीर जी)। अंम्रित सरि = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जलके सरोवर से। बिखु = जहर, माया का प्रभाव।1।

पाछै = दोबारा। बहुरि = फिर। घट ते = हृदय से, दिल से, चिक्त जोड़ के। उचरउ = मैं उचारता हूँ। आतम कउ = अपने आप को। रहाउ।

बजर = वज्र, कड़ा। कुठारु = कुहाड़ा। मोहि = मैं ( देखें बंद नं: 1 में शब्द ‘मोहि’)। लगि = लग के। पावउ = चरणों में (यहाँ रामायण की उस साखी की तरफ इशारा है जब सीता के स्वयंवर के वक्त श्री राम चंद्र जी ने शिव जी का धनुष तोड़ा था; परषुराम ये सुन के अपना भयानक शस्त्र कुहाड़ा ले के श्री रामचंद्र जी को मारने के लिए आया। पर श्री रामचंद्र जी ने क्रोध में आए परुषुराम के चरण छू लिए, इस तरह उसका क्रोध-बल खींच लिया और कुहाड़ा उसके हाथों से गिर पड़ा)। डरवापउ = डरता हूँ।2।

छूटउ = बचता हूँ। तिह = इस माया को। तजि = त्याग के।3।

इतु करि = इस तरह। करहि = करते हैं। चुकाईअै = दूर हो जाता है। बाहरि = (बैरागी बन के वन आदि में) बाहर। इह संजम = (इन्द्रियों को काबू में रख के, कामादिकों से बच के, अपने गुरू की शरण पड़ कर, माया का मोह त्याग के) इन जुगतियों से।4।

अर्थ: (प्रभू के नाम का वैरागी बन के) मैंने अपनी दसों वैरागिन इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया है, (मेरे अंदर से अब) पाँच कामादिकों का खुरा-खोज ही मिट गया है (भाव, मेरे पर ये अपना जोर नहीं डाल सकते); मैंने अपने रग-रग को नाम-अमृत के सरोवर से भर लिया है और (माया के) जहर का पूर्ण तौर पर नाश कर दिया है।1।

अब मैं बार-बार जनम-मरन में नहीं आऊँगा, (क्योंकि) मैं चिक्त जोड़ के प्रभू की सिफत सालाह की बाणी उचारता हूँ और अपनी आत्मा को (सही जीवन की) शिक्षा देता रहता हूँ।1। रहाउ।

अपने सतिगुरू के चरणों में लग के, गुरू के आगे अरजोई करके (काल के हाथों से) मैंने (उसका) भयानक कुहाड़ा छीन लिया है। (काल से डरने की जगह) मैं उल्टा भक्तजनों से डरता हूँ (भाव, अदब करता हूँ) और उनका ही सेवक बन गया हूँ।2।

इस संसार के बँधनों से मेरी तब ही खलासी हो सकती है अगर मैं माया के मोह में ना फंसा; माया (का मोह) ही जनम-मरन के चक्कर में पड़ने का मूल है, इसको त्याग के ही प्रभू का दीदार हो सकता है।3।

इस तरीके से जो मनुष्य प्रभू की भक्ति करते हैं; उनका हरेक किस्म का सहम दूर हो जाता है। नामदेव कहता है– (हे भाई! भेखी वैरागी बन के) बाहर भटकने से कोई लाभ नहीं; (जो संयम हमने बताए हैं) इस संयमों से ही परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है।4।2।

शबद का भाव: सिमरन की महिमा से इन्द्रियां वश में आ जाती हैं और जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो जाता है।

मारवाड़ि जैसे नीरु बालहा बेलि बालहा करहला ॥ जिउ कुरंक निसि नादु बालहा तिउ मेरै मनि रामईआ ॥१॥ तेरा नामु रूड़ो रूपु रूड़ो अति रंग रूड़ो मेरो रामईआ ॥१॥ रहाउ ॥ जिउ धरणी कउ इंद्रु बालहा कुसम बासु जैसे भवरला ॥ जिउ कोकिल कउ अ्मबु बालहा तिउ मेरै मनि रामईआ ॥२॥ चकवी कउ जैसे सूरु बालहा मान सरोवर हंसुला ॥ जिउ तरुणी कउ कंतु बालहा तिउ मेरै मनि रामईआ ॥३॥ बारिक कउ जैसे खीरु बालहा चात्रिक मुख जैसे जलधरा ॥ मछुली कउ जैसे नीरु बालहा तिउ मेरै मनि रामईआ ॥४॥ साधिक सिध सगल मुनि चाहहि बिरले काहू डीठुला ॥ सगल भवण तेरो नामु बालहा तिउ नामे मनि बीठुला ॥५॥३॥ {पन्ना 693}

पद्अर्थ: मारवाड़ि = मारवाड़ (जैसे रेतीले देश) में। नीरु = पानी। बालहा = (संस्कृत: वल्लभ) प्यारा। करहला = ऊँठ को। कुरंक = हिरन। निसि = रात को। नादु = (घंडेहेड़े की) आवाज। मनि = मन में। रमईआ = सुंदर राम।1।

रूढ़ो = सुंदर।1।

धरणी = धरती। इंद्रु = (भाव) बरसात। कुसम बासु = फूल की सुगंधि। भवरला = भौरे को।2।

सूरु = सूरज। हंसुला = हंस को। तरुणी = जवान स्त्री। कंतु = खसम।3।

खीरु = दूध। चात्रिक = पपीहा। जलधरा = बादल।4।

साधिक = साधना करने वाले। सिध = पहुँचे हुए योगी। बीठुला = (संस्कृत: विष्ठल, one situated at a distance. वि+स्थल = जिसका स्थान दूर परे है, जो माया के प्रभाव से परे है) परमात्मा।5।

अर्थ: जैसे मारवाड़ (रेगिस्तानी देश) में पानी प्यारा लगता है, जैसे ऊँठ को बेल प्यारी लगती है, जैसे हिरन को रात के वक्त (घंडेहेड़े की) आवाज प्यारी लगती है, वैसे ही मेरे मन को राम अच्छा लगता है।1।

हे मेरे सुंदर राम! तेरा नाम सोहणा है, तेरा रूप सोहणा है और तेरा रंग बहुत ही सोहणा है।1। रहाउ।

जैसे धरती को वर्षा प्यारी लगती है, जैसे भौरे को फूल की सुगंधि प्यारी लगती है, जैसे कोयल को आम प्यारा लगता है, वैसे ही मेरे मन को राम अच्छा लगता है।2।

जैसे चकवी को सूरज प्यारा लगता है, जैसे हंस को मान सरोवर प्यारा लगता है, जैसे जवान स्त्री को (अपना) पति प्यारा लगता है, वैसे ही मेरे मन को सुंदर राम प्यारा लगता है।3।

जैसे बालक को दूध प्यारा लगता है, जैसे पपीहे के मुँह को बादल प्यारा लगता है, मछली को जैसे पानी प्यारा लगता है, वैसे ही मेरे मन को सुंदर राम अच्छा लगता है।4।

(योग) साधना करने वाले, (योग-साधना में सिद्ध) सिद्ध योगी और सारे मुनि वर (सुंदर राम के दर्शन करना) चाहते हैं, पर किसी विरले को दीदार होता है। (हे मेरे सुंदर राम! जैसे) सारे भवनों (के जीवों) को तेरा नाम प्यारा है, वैसे ही मुझ नामे (नामदेव) के मन को भी बीठल प्यारा है।5।3।

नोट: यहाँ ‘बीठुल’ अर्थ किसी कृष्ण मूर्ति से नहीं है, क्योंकि ‘रहाउ’ की तुक में उसे ‘रामईआ’ कह के संबोधन करते हैं; हरेक बंद के आखिर में भी जिसको ‘रामईआ’ कहते हैं, उसको आखिरी बंद में ‘बीठुल’ कहा गया है। नामदेव जी का ‘रामईआ’ और ‘बीठुल’ एक ही है। अगर नामदेव जी कृष्ण–उपासक होते तो उसको ‘रामईआ’ नहीं कहते।

पहिल पुरीए पुंडरक वना ॥ ता चे हंसा सगले जनां ॥ क्रिस्ना ते जानऊ हरि हरि नाचंती नाचना ॥१॥ पहिल पुरसाबिरा ॥ अथोन पुरसादमरा ॥ असगा अस उसगा ॥ हरि का बागरा नाचै पिंधी महि सागरा ॥१॥ रहाउ ॥ नाचंती गोपी जंना ॥ नईआ ते बैरे कंना ॥ तरकु न चा ॥ भ्रमीआ चा ॥ केसवा बचउनी अईए मईए एक आन जीउ ॥२॥ पिंधी उभकले संसारा ॥ भ्रमि भ्रमि आए तुम चे दुआरा ॥ तू कुनु रे ॥ मै जी ॥ नामा ॥ हो जी ॥ आला ते निवारणा जम कारणा ॥३॥४॥ {पन्ना 693}

पद्अर्थ: पहिल पुरीऐ = पहले पहल। (पुरा, संस्कृत पद है, इसका अर्थ है ‘पहले’)। पुंडरक वना = पुंडरकों का वन, कमल के फूलों का खेत। पुंडरक = पुंडरीक, सफेद कमल फूल। ता चे = उस (पुंडरक वन) के। सगले जनां = सारे जीव जंतु। क्रिस्ना = माया। ते = से। जानऊ = जानो, समझो। हरि क्रिस्ना = प्रभू की माया। हरि नाचना = प्रभू की नाच करने वाली (सृष्टि)। नाचंती = नाच रही है।1।

पुरसाबिरा = पुरस+आबिरा। पुरस = परमात्मा। आबिरा = प्रगट (हुआ)। आबिर भू = आविर भू, प्रगट होना। अथोन = उससे पीछे, फिर। पुरसादमरा = पुरुषात्+अमरा, पुरुष से माया। अमरा = माया, कुदरत। अस गा = इस का। अस = और। उस गा = उस का। बागरा = सुंदर सा बाग़। पिंधी = टिंडां, रहट के डब्बे जिसमें पानी कूएं से निकलता है। सागरा = समुंद्र, पानी।1। रहाउ।

गोपी जंना = सि्त्रयां और मर्द। नईआ = नायक, परमात्मा। ते = से। बैरे = अलग। कंना = कोई नहीं। केसवा बचउनी = केशव के बचन ही। अईऐ मईऐ = स्त्री मर्द में। अईआ = अर्या, स्त्री। मईआ = मर्य, मनुष्य। ऐक आन = ऐकायन, एक अयन। अयन = रास्ता, एक ही रास्ते से, एक रस।2।

उभकले = डुबकियां। संसारा = संसार (समुंद्र) में। भ्रमि भ्रमि = भटक भटक के। तुम चे = तेरे। चे = के। रे = रे भाई! कुनु = कौन? जी = हे (प्रभू) जी! आला = आलय, घर, जगत के जंजाल। ते = से। निवारणा = बचा ले। जम कारणा = जमों (के डर) के कारण।

नोट: शब्द ‘आला’ का अर्थ कई सज्जन ‘आया’ करते हैं। इस शब्द ‘आला’ को वे धातु ‘आ’ का ‘भूतकाल’ मानते हैं। मराठी बोली में किसी धातु से ‘भूतकाल’ बनाने के लिए पिछेत्तर ‘ला’ का प्रयोग किया जाता है। पर धातु ‘आ’ से मराठी में ‘आला’ भूतकाल नहीं बनता। ‘आ’ और ‘ला’ के बीच ‘इ’ भी प्रयोग में लाई जाती है। ‘आ’ का भूतकाल बनेगा ‘आइला’; जैसे;

“गरुड़ चढ़े गोबिंदु आइला” (नामदेव जी)

शब्द ‘ते’ के लिए वे सज्जन ‘और’ अर्थ करते हैं। ये भी गलत है। ‘ते’ के अर्थ हैं ‘से’। ‘अते’ (और) के लिए पुरानी पंजाबी में शब्द ‘तै’ है।3।

अर्थ: पहले पुरुष (अकाल पुरख) प्रगट हुआ (“आपीनै् आपु साजिओ, आपीनै रचिओ नाउ”)। फिर अकाल-पुरख से माया (बनी) (“दुयी कुदरति साजीअै”)। इस माया का और उस अकाल-पुरख का (मेल हुआ) (“करि आसणु डिठो चाउ”)। (इस तरह ये संसार) परमात्मा का एक सुंदर सा बाग़ (बन गया है, जो) ऐसे नाच रहा है जैसे (कूएं की) टिंडों में पानी नाचता है (भाव, संसार के जीव माया में मोहित हो के दौड़-भाग कर रहे हैं, माया के हाथों में नाच रहे हैं)।1। रहाउ।

पहले पहल (जो जगत बना वह, मानो) कमल फूलों का खेत है, सारे जीव-जंतु उस (कमल के फूलों के खेत) के हंस हैं। परमात्मा की ये रचना नाच कर रही है। ये प्रभू की माया (की प्रेरणा) से समझो।1।

सि्त्रयां-मर्द सब नाच रहे हैं, (पर इन सबमें) परमात्मा के बिना और कोई नहीं है। (हे भाई! इस में) शक ना कर, (इस संबंध में) भ्रम दूर कर दे। हरेक स्त्री-मर्द में परमात्मा के बचन ही एक-रस हो रहे हैं (भाव, हरेक जीव में परमात्मा खुद ही बोल रहा है)।2।

(हे भाई! जीव-) टिंडें (जैसे रहट के डिब्बे पानी में डुबकियां लेते हैं) संसार-समुंद्र में डुबकियां ले रही हैं। हे प्रभू! भटक-भटक के मैं तेरे दर पर आ गिरा हूँ। हे (प्रभू) जी! (अगर तू मुझसे पूछे) तू कौन है? (तो) हे जी! मैं नामा हूँ। मुझे जगत के जंजाल से, जो कि जमों (के डरों) का कारण है, बचा ले।3।4।

शबद का भाव: माया का प्रभाव और इसका इलाज।

ये सारी मायावी रचना प्रभू से ही उत्पन्न हुई है, प्रभू सब में व्यापक है। पर जीव प्रभू को बिसार के माया के हाथ में नाच रहे हैं। प्रभू की शरण पड़ कर ही इससे बचा जा सकता है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh