श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 698 जैतसरी महला ४ ॥ सतसंगति साध पाई वडभागी मनु चलतौ भइओ अरूड़ा ॥ अनहत धुनि वाजहि नित वाजे हरि अम्रित धार रसि लीड़ा ॥१॥ मेरे मन जपि राम नामु हरि रूड़ा ॥ मेरै मनि तनि प्रीति लगाई सतिगुरि हरि मिलिओ लाइ झपीड़ा ॥ रहाउ ॥ साकत बंध भए है माइआ बिखु संचहि लाइ जकीड़ा ॥ हरि कै अरथि खरचि नह साकहि जमकालु सहहि सिरि पीड़ा ॥२॥ जिन हरि अरथि सरीरु लगाइआ गुर साधू बहु सरधा लाइ मुखि धूड़ा ॥ हलति पलति हरि सोभा पावहि हरि रंगु लगा मनि गूड़ा ॥३॥ हरि हरि मेलि मेलि जन साधू हम साध जना का कीड़ा ॥ जन नानक प्रीति लगी पग साध गुर मिलि साधू पाखाणु हरिओ मनु मूड़ा ॥४॥६॥ {पन्ना 698} पद्अर्थ: साध = गुरू। चलतो = भटकता, चंचल। अरूड़ा = अस्थिर। अनहत = एक रस, लगातार। धुनि = रौंअ। वाजहि = बजते हैं। अंम्रित धार = आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल की धारा। रसि = प्रेम से। लीड़ा = अघा गया।1। मन = हे मन! गूढ़ा = सोहणा। मनि = मन में। सतिगुरि = गुरू ने। लाइ झपीड़ा = जप्फी डाल के। रहाउ। साकत = परमात्मा से टूटे हुए। बंध भऐ = बंधे हुए। बिखु = (आत्मिक जीवन खत्म करने वाली माया) जहर। संचहि = इकट्ठी करते हैं। जकीड़ा = हठ, जोर। कै अरथि = की खातिर। सिरि = सिर पर। जमकाल पीड़ा = जमकाल का दुख, मौत का दुख।2। हर अरथि = परमात्मा की खातिर। साधू = गुरू। मुखि = मुँह पर। धूड़ा = खाक। हलति = अत्र, इस लोक में। पलति = परत्र, परलोक में। पावहि = पाते हैं, कमाते हैं। रंगु = प्रेम। मनि = मन में।3। हरि = हे हरी! कीड़ा = निमाणा दास, कीट। पग = पैर। मिलि = मिल के। पाखाणु = पत्थर की तरह ना भीगने वाला। मूड़ा = मूर्ख।4। अर्थ: हे मेरे मन! सुंदर परमात्मा का नाम (सदा) जपा कर। हे भाई! गुरू ने मेरे मन में, मेरे हृदय में परमात्मा का प्यार पैदा कर दिया है, अब परमात्मा मुझे जप्फी डाल के मिल गया है। रहाउ। हे भाई! जिस मनुष्य ने बड़े भाग्यों से गुरू की साध-संगति प्राप्त कर ली, उसका भटकता मन टिक गया। उसके अंदर एक-रस रौंअ से (जैसे) सदा बाजे बजते रहते हैं। आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल की धारा प्रेम से (पी-पी के) वह तृप्त हो जाता है।1। हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य माया के मोह में बँधे रहते हैं। वह जोर लगा के (आत्मिक मौत लाने वाली माया) जहर ही इकट्ठी करते रहते हैं। वह मनुष्य उस माया को परमात्मा की राह पर खर्च नहीं कर सकते, (इस वास्ते वे) आत्मिक मौत का दुख अपने सिर पर सहते रहते हैं।2। हे भाई! जिन मनुष्यों ने बड़ी श्रद्धा से गुरू के चरणों की धूड़ अपने माथे पर लगा के अपना शरीर परमात्मा को अर्पित कर दिया, वे मनुष्य इस लोक में परलोक में शोभा कमाते हैं, उनके मन में परमात्मा से गूढ़ा प्यार बन जाता है।3। हे हरी! हे प्रभू! मुझे गुरू मिला, मैं गुरू के सेवकों का निमाणा दास हूँ। हे दास नानक! (कह–) जिस मनुष्य के अंदर गुरू के चरणों का प्यार बन जाता है, गुरू को मिल के उसका मूर्ख पत्थर (की तरह कठोर) मन हरा हो जाता है।4।6। जैतसरी महला ४ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हरि हरि सिमरहु अगम अपारा ॥ जिसु सिमरत दुखु मिटै हमारा ॥ हरि हरि सतिगुरु पुरखु मिलावहु गुरि मिलिऐ सुखु होई राम ॥१॥ हरि गुण गावहु मीत हमारे ॥ हरि हरि नामु रखहु उर धारे ॥ हरि हरि अम्रित बचन सुणावहु गुर मिलिऐ परगटु होई राम ॥२॥ मधुसूदन हरि माधो प्राना ॥ मेरै मनि तनि अम्रित मीठ लगाना ॥ हरि हरि दइआ करहु गुरु मेलहु पुरखु निरंजनु सोई राम ॥३॥ हरि हरि नामु सदा सुखदाता ॥ हरि कै रंगि मेरा मनु राता ॥ हरि हरि महा पुरखु गुरु मेलहु गुर नानक नामि सुखु होई राम ॥४॥१॥७॥ {पन्ना 693} पद्अर्थ: अगम = अपहुँच। अपारा = पार रहित, बेअंत। हमारा = हम जीवों का। हरि = हे हरी! गुरि मिलिअै = अगर गुरू मिल जाए।1। मीत हमारे = हे हीमारे मित्र! उर = हृदय। धारे = टिका के। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाले। परगटु = प्रत्यक्ष।2। मधु सूदन = (मधू राक्षस को मारने वाले) हे प्रभू! माधो = (मा+धव = माया का पति) हे हरी! प्राना = हे मेरी जिंद (के सहारे)! म्नि = मन में। तनि = हृदय में। निरंजनु = निर्लिप (निर+अंजनु। अंजन = माया की कालख)।3। कै रंगि = के प्रेम में। राता = मगन। गुर = हे गुरू! नामि = नाम से।4। अर्थ: हे भाई! उस अपहुँच और बेअंत परमात्मा का नाम सिमरा करो, जिसको सिमरने से हम जीवों का हरेक दुख दूर हो सकता है। हे हरी! हे प्रभू! हमें गुरू महांपुरुष मिला दे। अगर गुरू मिल जाए, तो आत्मिक आनंद प्राप्त हो जाता है।1। हे मेरे मित्रो! परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाया करो, परमात्मा का नाम अपने हृदय में टिकाए रखो। परमात्मा की सिफत सालाह के आत्मिक जीवन देने वाले बोल (मुझे भी) सुनाया करो। (हे मित्रो! गुरू की शरण पड़े रहो), अगर गुरू मिल जाए, तो परमात्मा हृदय में प्रगट हो जाता है।2। हे दूतों के नाश करने वाले! हे माया के पति! हे मेरी जिंद (के सहारे)! मेरे मन में, मेरे हृदय में, आत्मिक जीवन देने वाला तेरा नाम मीठा लग रहा है। हे हरी! हे प्रभू! (मेरे पर) मेहर कर, मुझे वह महापुरुष गुरू मिला जो माया के प्रभाव से ऊपर है।3। हे भाई! परमात्मा का नाम सदा सुख देने वाला है। मेरा मन उस परमात्मा के प्यार में मस्त रहता है। हे नानक! (कह–) हे हरी! मुझे गुरू महापुरुख मिला। हे गुरू! (तेरे बख्शे) हरी-नाम में जुड़ने से आत्मिक आनंद मिलता है।4।1।7। जैतसरी मः ४ ॥ हरि हरि हरि हरि नामु जपाहा ॥ गुरमुखि नामु सदा लै लाहा ॥ हरि हरि हरि हरि भगति द्रिड़ावहु हरि हरि नामु ओुमाहा राम ॥१॥ हरि हरि नामु दइआलु धिआहा ॥ हरि कै रंगि सदा गुण गाहा ॥ हरि हरि हरि जसु घूमरि पावहु मिलि सतसंगि ओुमाहा राम ॥२॥ आउ सखी हरि मेलि मिलाहा ॥ सुणि हरि कथा नामु लै लाहा ॥ हरि हरि क्रिपा धारि गुर मेलहु गुरि मिलिऐ हरि ओुमाहा राम ॥३॥ करि कीरति जसु अगम अथाहा ॥ खिनु खिनु राम नामु गावाहा ॥ मो कउ धारि क्रिपा मिलीऐ गुर दाते हरि नानक भगति ओुमाहा राम ॥४॥२॥८॥ {पन्ना 698} पद्अर्थ: जपाहा = जपो। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। लै = लो। लाहा = फायदा। द्रिढ़ावहु = दृढ़ कर लो, हृदय में पक्की कर लो। ओुमाहा = उमाह, उत्साह, चाव, आनंद (पंजाबी का असल शब्द है ‘ओमाह’। यहाँ दो मात्राएं लगी हैं ‘ु’ को और ‘ो’ की, जिसे पढ़ना है ‘उमाहा’)।1। दइआलु = दया का घर, दया का पुँज। धिआहा = ध्यावो। कै रंगि = के प्रेम में। गाहा = गाओ। जसु = यश, सिफत सालाह। घूमरि = घूम घूम के नाच, मस्त करने वाला नाच। मिलि = मिल के। सतसंगि = सत्संग में।2। सखी = हे सहेलियो! हे सत्संगियो! मेलि = मिलाप में, चरनों में। मिलाहा = मिलो। सुणि = सुन के। हरि = हे हरी! गुरि मिलिअै = अगर गुरू मिल जाए।3। करि = करके। कीरति = कीर्ती, सिफत सालाह। अथाहा = गहरी, गहरे जिगरे वाली। खिनु खिनु = हर छिन, हर वक्त। मो कउ = मुझे। कउ = को। गुर = हे गुरू!।4। अर्थ: हे भाई! सदा ही परमात्मा का नाम जपा करो। गुरू की शरण पड़ कर सदा परमात्मा के नाम की कमाई करते रहो। हे भाई! परमात्मा की भक्ति अपने हृदय में पक्की करके टिका लो। परमात्मा का नाम (मनुष्य के मन में) आनंद पैदा करता है।1। हे भाई! परमात्मा दया का श्रोत है, उसका नाम सदा सिमरते रहो। परमात्मा के प्रेम-रंग में टिक के उसके गुण गाते रहो। हे भाई! सदा परमात्मा की सिफत सालाह करते रहो (सिफत सालाह मन को मस्त करने वाला नृत्य है, ये) नाच नाचो। हे भाई! साध-संगति में मिल के आत्मिक आनंद लिया करो।2। हे संत सगियो! आओ, मिल के प्रभू के चरणों में जुड़ें। हे सत्संगियो! परमात्मा के सिफत सालाह की बातें सुन के परमात्मा के नाम-सिमरन की कमाई करते रहो। (प्रभू-दर पे अरदास करो-) हे प्रभू! मेहर कर, (हमें) गुरू मिलवा। हे सत्संगियो! अगर गुरू मिल जाए, तो (हृदय में) आनंद पैदा हो जाता है।3। हे भाई! उस अपहुँच और गहरे जिगरे वाले परमात्मा की सिफत सालाह करके, यश करके, हर समय उसका नाम जपा करो। हे नानक! (कह–) हे नाम की दाति देने वाले गुरू! मेरे पर मेहर कर, मुझे मिल, (तेरे मिलाप की बरकति से मेरे अंदर) भगती करने का चाव पैदा हो।4।2।8। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |