श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 699 जैतसरी मः ४ ॥ रसि रसि रामु रसालु सलाहा ॥ मनु राम नामि भीना लै लाहा ॥ खिनु खिनु भगति करह दिनु राती गुरमति भगति ओुमाहा राम ॥१॥ हरि हरि गुण गोविंद जपाहा ॥ मनु तनु जीति सबदु लै लाहा ॥ गुरमति पंच दूत वसि आवहि मनि तनि हरि ओमाहा राम ॥२॥ नामु रतनु हरि नामु जपाहा ॥ हरि गुण गाइ सदा लै लाहा ॥ दीन दइआल क्रिपा करि माधो हरि हरि नामु ओुमाहा राम ॥३॥ जपि जगदीसु जपउ मन माहा ॥ हरि हरि जगंनाथु जगि लाहा ॥ धनु धनु वडे ठाकुर प्रभ मेरे जपि नानक भगति ओमाहा राम ॥४॥३॥९॥ {पन्ना 699} पद्अर्थ: रसि = आनंद से। रसालु = (रस+आलय) रसों का घर, रसीला। सालाहा = हम सालाहते हैं। नामि = नाम में। भीना = भीग गया। लाहा = लाभ। करह = हम करते हैं। उमाहा = उत्शाह, चाव।1। जपाहा = हम जपते हैं। जीति = जीत के, वश में कर के। दूत = (कामादिक) वैरी। वसि = वश में। आवहि = आ जाते हैं।2। गाइ = गा के। दीन दइआल = हे दीनों पर दया करने वाले! माधो = हे माया के पति!।3। जगदीसु = जगत का मालिक (जगत = ईश)। जपउ = जपूँ, मैं जपता हूँ। माहा = में। जगंनाथु = जगत का नाथ। जगि = जगत में। धनु धनु = धन्य धन्य, साराहनीय। प्रभ = हे प्रभू!।4। अर्थ: हे भाई! हम बड़े आनंद से रसीले राम की सिफत सालाह करते हैं। हमारा मन राम के नाम-रस में भीग रहा है, हम (हरी-नाम की) कमाई कर रहे हैं। हम हर वक्त दिन-रात परमात्मा की भक्ति करते हैं। गुरू की मति की बरकति से (हमारे अंदर प्रभू की) भगती का चाव बन रहा है।1। हे भाई! हम गोबिंद हरी के गुण गा रहे हैं (इस तरह अपने) मन को शरीर को वश में करके गुरू-शबद (का) लाभ प्राप्त कर रहे हैं। हे भाई! गुरू की मति लेने से (कामादिक) पाँचों वैरी वश में आ जाते हैं, मन में हृदय में हरी-नाम जपने का उत्साह पैदा हो जाता है।2। हे भाई! हरी-नाम रत्न (जैसा कीमती पदार्थ है, हम ये) हरी-नाम जप रहे हैं। परमात्मा की सिफत-सालाह के गीत गा गा के सदा कायम रहने वाली कमाई कमा रहे हैं। हे दीनों पर दया करने वाले प्रभू! मेहर कर, हमारे मन में तेरा नाम जपने का चाव बना रहे।3। हे नानक! (कह–) हे साराहनीय प्रभू! हे मेरे सबसे बड़े मालिक! मैं तुझे जगत के मालिक को अपने मन में सदा जपता रहूँ (क्योंकि) हे हरी! तुझे जगननाथ के नाथ को सदा जपना ही जगत में (असल) लाभ है, (मेहर कर, तेरा नाम) जप के (मेरे अंदर तेरी) भक्ति का उत्शाह बना रहे।4।2।9। जैतसरी महला ४ ॥ आपे जोगी जुगति जुगाहा ॥ आपे निरभउ ताड़ी लाहा ॥ आपे ही आपि आपि वरतै आपे नामि ओुमाहा राम ॥१॥ आपे दीप लोअ दीपाहा ॥ आपे सतिगुरु समुंदु मथाहा ॥ आपे मथि मथि ततु कढाए जपि नामु रतनु ओुमाहा राम ॥२॥ सखी मिलहु मिलि गुण गावाहा ॥ गुरमुखि नामु जपहु हरि लाहा ॥ हरि हरि भगति द्रिड़ी मनि भाई हरि हरि नामु ओुमाहा राम ॥३॥ आपे वड दाणा वड साहा ॥ गुरमुखि पूंजी नामु विसाहा ॥ हरि हरि दाति करहु प्रभ भावै गुण नानक नामु ओुमाहा राम ॥४॥४॥१०॥ {पन्ना 699} पद्अर्थ: आपे = खुद ही। जुगाहा = सारे युगों में। ताड़ी = समाधि। नामि = नाम में (जोड़ के)। ओुमाहा = उमाह, उत्साह।1। दीप = द्वीप, जज़ीरे। लोअ = लोक, भवन (बहुवचन)। दीपाहा = रौशनी करने वाला। मथाहा = मथता है। मथि = मथ के। ततु = तत्व, मक्खन, अस्लियत।2। सखी = हे सहेलियो! मिलि = मिल के। गावाहा = गाएं। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। लाहा = लाभ। द्रिढ़ी = हृदय में पक्की कर ली। मनि = मन में। भाई = प्यारी लगी।3। दाणा = दाना, समझदार। साहा = शाह। पूँजी = राशि। विसाहा = ख़रीदता। प्रभ = हे प्रभू! हरि = हे हरी!।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं ही जोगी है, खुद ही सब युगों में जोग की जुगति है, खुद ही निडर हो के समाधि लगाता है। हर जगह स्वयं ही स्वयं काम कर रहा है, आप ही नाम में जोड़ के सिमरन का उत्साह दे रहा है।1। हे भाई! प्रभू स्वयं ही द्वीप है, स्वयं ही सारे भवन है, खुद ही (सारे भवनों में) रौशनी है। प्रभू खुद ही गुरू है, खुद ही (बाणी का) समुंद्र है, खुद ही (इस समुंद्र को) मथने वाला (विचारने वाला) है। खुद ही (बाणी के समुंद्र को) मथ-मथ के (विचार-विचार) के (इसमें से) मक्खन (अस्लियत) मिलवाता है, खुद ही (अपना) रत्न जैसा कीमती नाम जप के (जीवों के अंदर जपने का) चाव पैदा करता है।2। हे सत्संगियो! इकट्ठे होवो, आओ, मिल के प्रभू के गुण गाएं। हे सत्संगियो! गुरू की शरण पड़ कर हरी का नाम जपो, (यही है जीव का असल) लाभ। जिस मनुष्य ने प्रभू की भक्ति अपने हृदय में पक्की करके बैठा ली, जिसके मन को प्रभू की भगती प्यारी लगने लगी, प्रभू का नाम उसके अंदर (सिमरन का) उत्साह पैदा करता है।3। हे भाई! प्रभू खुद बहुत सयाना बड़ा शाह है। हे भाई! गुरू की शरण पड़ कर उसका नाम-सरमाया एकत्र करो। हे नानक! (कह–) हे हरी! हे प्रभू! (मुझे अपने नाम की) दाति दे, अगर तुझे अच्छा लगे, तो मेरे अंदर तेरा नाम बसे, तेरे गुणों को याद करने का चाव पैदा हो।4।4।10। जैतसरी महला ४ ॥ मिलि सतसंगति संगि गुराहा ॥ पूंजी नामु गुरमुखि वेसाहा ॥ हरि हरि क्रिपा धारि मधुसूदन मिलि सतसंगि ओुमाहा राम ॥१॥ हरि गुण बाणी स्रवणि सुणाहा ॥ करि किरपा सतिगुरू मिलाहा ॥ गुण गावह गुण बोलह बाणी हरि गुण जपि ओुमाहा राम ॥२॥ सभि तीरथ वरत जग पुंन तुोलाहा ॥ हरि हरि नाम न पुजहि पुजाहा ॥ हरि हरि अतुलु तोलु अति भारी गुरमति जपि ओुमाहा राम ॥३॥ सभि करम धरम हरि नामु जपाहा ॥ किलविख मैलु पाप धोवाहा ॥ दीन दइआल होहु जन ऊपरि देहु नानक नामु ओमाहा राम ॥४॥५॥११॥ {पन्ना 699} पद्अर्थ: मिलि = मिल के। संगि गुराहा = गुरू की संगति में। संगि = से। पूंजी = सरमाया। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। विसाहा = खरीदो, इकट्ठा करो। हरि = हे हरी! मधु सूदन = (मधू दैत्य को मारने वाले) हे प्रभू! ओुमाहा = उत्साह।1। स्रवणि = कान से। गावहु = हम गाएं। बोलह = हम बोलें।2। सभि = सारे (बहुवचन)। तुोलाहा = अगर तोलें (अक्षर ‘त’ के साथ दो मात्राएं हैं– ‘ो’ और ‘ु’ असल शब्द है ‘तोलाहा’, यहाँ ‘तुलाहा’ पढ़ना है)। पुजहि = पहुँचते हैं। जपि = जप के।3। किलविख = पाप। दीन जन = निमाणे दास।4। अर्थ: हे वैरियों को नाश करने वाले हरी! (हम जीवों पर) कृपा करें (कि) साध-संगति में मिल के (हमारे अंदर तेरे नाम का) चाव पैदा हो, साध-संगति में मिल के, गुरू की शरण पड़ कर, तेरे नाम का सरमाया एकत्र करें।1। हे हरी! कृपा करके (मुझे) गुरू मिला (ताकि) तेरे गुणों वाली बाणी हम कानों से सुनें, गुरू की बाणी के द्वारा हम तेरे गुण गाएं, तेरे गुण उचारें। तेरे गुण याद कर-कर के (हमारे अंदर तेरी भगती का) चाव पैदा हो जाए।2। हे भाई! अगर सारे तीर्थ (-स्नान), वर्त, यज्ञ और पुन्य (निहित नेक कर्म) (इकट्ठे मिला के) तोलें, ये परमात्मा के नाम तक नहीं पहुँच सकते। परमात्मा (का नाम) तोला नहीं जा सकता, उसका बहुत भारा तोल है। गुरू की मति से जप के (मन में और जपने का) उत्साह पैदा होता है।3। हे नानक! (कह–) हे हरी! अपने निमाणें दासों पर दयावान हो, दासों को अपना नाम दे, (नाम जपने का) उत्साह दे, हम तेरा नाम जपें, तेरा नाम ही सारे (निहित) धार्मिक कर्म हैं, (तेरे नाम की बरकति से) सारे पापों विकारों की मैल धुल जाती है।4।5।11। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |