श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 701 जैतसरी महला ५ घरु ४ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ अब मै सुखु पाइओ गुर आग्यि ॥ तजी सिआनप चिंत विसारी अहं छोडिओ है तिआग्यि ॥१॥ रहाउ ॥ जउ देखउ तउ सगल मोहि मोहीअउ तउ सरनि परिओ गुर भागि ॥ करि किरपा टहल हरि लाइओ तउ जमि छोडी मोरी लागि ॥१॥ तरिओ सागरु पावक को जउ संत भेटे वड भागि ॥ जन नानक सरब सुख पाए मोरो हरि चरनी चितु लागि ॥२॥१॥५॥ {पन्ना 701} पद्अर्थ: आज्ञि = आज्ञा में। तजी = छोड़ दी है। सिआनप = चतुराई। विसारी = भुला दी है। अहं = अहंकार। तिआज्ञि = त्याग के।1। रहाउ। जउ = जब। देखउ = देखूँ। सगल = सारी दुनिया। मोहि = मोह में। मोहीअउ = फसी हुई है। भागि = भाग के। करि = कर के। तउ = तब। जमि = जम ने। मोरी लागि = मेरा पीछा।1। सागरु = समुंद्र। पावक = आग। को = का। वड भागि = बड़ी किस्मत से। सरब सुख = सारे सुख (शब्द ‘सुखु’ और ‘सुख’ में फर्क है याद रखें)। मेरो चितु = मेरा चिक्त। लागि = लग गया है।2। अर्थ: हे भाई! अब मैंने गुरू की आज्ञा में (चल के) आनंद प्राप्त कर लिया है। मैंने अपनी चतुराई छोड़ दी है, मैंने चिंता भुला दी है, मैंने अहंकार (अपने अंदर से) परे फेंक दिया है।1। रहाउ। हे भाई! जब मैं देखता हूँ (कि) सारी दुनिया मोह में फंसी हुई है, तब मैं भाग के गुरू की शरण जा पड़ा। (गुरू ने) कृपा करके मुझे परमात्मा की सेवा-भक्ति में जोड़ दिया। तब यमराज ने मेरा पीछा छोड़ दिया।1। जब सौभाग्य से मुझे गुरू मिल जाए, मैंने (विकारों की) आग का समुंद्र तैर कर पार कर लिया है। हे दास नानक! (कह–) अब मैंने सारे सुख प्राप्त कर लिए हैं, मेरा मन प्रभू के चरनों में जुड़ा रहता है।2।1।5। जैतसरी महला ५ ॥ मन महि सतिगुर धिआनु धरा ॥ द्रिड़्हिओ गिआनु मंत्रु हरि नामा प्रभ जीउ मइआ करा ॥१॥ रहाउ ॥ काल जाल अरु महा जंजाला छुटके जमहि डरा ॥ आइओ दुख हरण सरण करुणापति गहिओ चरण आसरा ॥१॥ नाव रूप भइओ साधसंगु भव निधि पारि परा ॥ अपिउ पीओ गतु थीओ भरमा कहु नानक अजरु जरा ॥२॥२॥६॥ {पन्ना 701} पद्अर्थ: द्रिढ़िओ = (दिल में) पक्का कर लिया। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। मइआ = दया।1। रहाउ। काल जाल = आत्मिक मौत लाने वाले जंजाल। अरु = और। छुटके = खत्म हो गए। जमहि = जमों के। दुख हरण = दुखों के नाश करने वाले। करुणा = तरस। करुणा पति = तरस का मालिक। गहिओ = पकड़ा है।1। नाव = बेड़ी। नाव रूप भइओ = बेड़ी का रूप बन गया, नाव का काम दे दिया है। रंगु = साथ, संगति। भव निधि = संसार समुंद्र। अपिओ = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। गतु थीओ = चला गया है। अजरु = जरा रहित आत्मिक दर्जा, वह आत्मिक दर्जा जिसे बुढ़ापा नहीं आ सकता। जरा = प्राप्त कर लिया है।2। अर्थ: हे भाई! (जब मैंने) गुरू (के चरणों) का ध्यान (अपने) मन में धरा, परमात्मा ने (मेरे पर) मेहर की, मैंने परमात्मा का नाम-मंत्र हृदय में टिका लिया, आत्मिक जीवन की सूझ दिल में पक्की कर ली।1। रहाउ। (हे भाई! गुरू की सहायता से) मैं दुखों का नाश करने वाले प्रभू की शरण में आ पड़ा, तरस के मालिक हरी का मैंने आसरा ले लिया। आत्मिक मौत लाने वाले मेरे बंधन (जंजीरें) टूट गए, माया के बड़े जंजाल समाप्त हो गए, जमों का डर दूर हो गया।1। हे भाई्! गुरू की संगति ने मेरे वास्ते नाव का काम किया, (जिसकी सहायता से) मैं संसार-समुंद्र से पार लांघ गया हूँ। हे नानक! (कह–) मैंने आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पी लिया है, मेरे मन की भटकना दूर हो गई है, मैंने वह आत्मिक दर्जा प्राप्त कर लिया है जिसे बुढ़ापा नहीं आ सकता।2।2।6। जैतसरी महला ५ ॥ जा कउ भए गोविंद सहाई ॥ सूख सहज आनंद सगल सिउ वा कउ बिआधि न काई ॥१॥ रहाउ ॥ दीसहि सभ संगि रहहि अलेपा नह विआपै उन माई ॥ एकै रंगि तत के बेते सतिगुर ते बुधि पाई ॥१॥ दइआ मइआ किरपा ठाकुर की सेई संत सुभाई ॥ तिन कै संगि नानक निसतरीऐ जिन रसि रसि हरि गुन गाई ॥२॥३॥७॥ {पन्ना 701} पद्अर्थ: जा कउ = जिन (मनुष्यों) के लिए। सहाई = मददगार। सहज = आत्मिक अडोलता। सगल = सारे। सिउ = साथ। वा कउ = उनको। काई बिआधि = कोई भी रोग।1। रहाउ। दीसहि = दिखते हैं। संगि = साथ। रहहि = रहते हैं। अलेपा = निरलेप, निराले। विआपै = जोर डालती है। ऊन = उनको। माई = माया। रंगि = प्रेम में। तत = अस्लियत। बेते = जानने वाले। ते = से। बुधि = अक्ल।1। माइआ = मेहर। सेई = वही। सुभाई = प्रेम भरे हृदय वाले। भाउ = प्रेम। कै संगि = के साथ, की संगति में। निसतरीअै = पार लांघ जाते हैं। रसि = प्रेम से।2। अर्थ: हे भाई! जिन मनुष्यों के लिए परमात्मा मददगार बन जाता है (उनकी उम्र) आत्मिक अडोलता के सारे सुखों के आनंद से (बीतती है) उन्हें कोई रोग नहीं छूता।1। रहाउ। हे भाई! वे मनुष्य सबके साथ (व्यवहार करते) दिखते हैं, पर वे (माया से) निर्लिप रहते हैं, माया उन पर अपना जोर नहीं डाल सकती। वे एक परमात्मा के प्रेम में टिके रहते हैं, वे जीवन की अस्लियत जानने वाले बन जाते हैं– ये बुद्धि उन्होंने गुरू से प्राप्त कर ली होती है।1। हे नानक! वही मनुष्य प्रेम-भरे हृदय वाले संत बन जाते हैं, जिन पर मालिक प्रभू की कृपा मेहर दया होती है जो मनुष्य सदा प्रेम से परमात्मा के गुण गाते रहते हैं, उनकी संगति में रह के संसार-समुंद्र से पार लांघ जाना है।2।3।7। जैतसरी महला ५ ॥ गोबिंद जीवन प्रान धन रूप ॥ अगिआन मोह मगन महा प्रानी अंधिआरे महि दीप ॥१॥ रहाउ ॥ सफल दरसनु तुमरा प्रभ प्रीतम चरन कमल आनूप ॥ अनिक बार करउ तिह बंदन मनहि चर्हावउ धूप ॥१॥ हारि परिओ तुम्हरै प्रभ दुआरै द्रिड़्हु करि गही तुम्हारी लूक ॥ काढि लेहु नानक अपुने कउ संसार पावक के कूप ॥२॥४॥८॥ {पन्ना 701} पद्अर्थ: गोबिंद = हे गोबिंद! जीवन = जिंदगी। रूप = सुंदरता। अगिआन = अज्ञान, आत्मि्क जीवन के प्रति ना समझी। मगन = डूबे हुए, मस्त। दीप = दीया।1। रहाउ। सफल = फल देने वाला। प्रभ = हे प्रभू! आनूप = बेमिसाल, जिन की उपमा ना हो सके, जिन जैसा और कोई नहीं। करउ = मैं करता हूँ। तिह = उनके (चरनों) को। मनहि = मन ही। चरावउ = चढ़ाऊँ, मैं भेट करता हूँ।1। हारि = थक के। दुआरै = दर पे। द्रिढ़ करि = पक्की करके। गही = पकड़ी। लूक = खतरों से बचने के लिए छुपी हुई जगह, ओट। पावक = आग। कूप = कूआँ।2। अर्थ: हे गोबिंद! तू हम जीवों की जिंदगी है, प्रान है, धन है, सुहज है। जीव आत्मिक जीवन की अज्ञानता के कारण, बहुत ज्सादा मोह में डूबे रहते हैं, इस अंधकार में तू (जीवों के लिए) दीपक है।1। रहाउ। हे प्रीतम प्रभू! तेरा दर्शन जीवन मनोरथ पूरा करने वाला है, तेरे सुंदर चरण बेमिसाल हैं। मैं (तेरे) इन चरणों पर अनेकों बार नमस्कार करता हूँ, अपना मन ही (तेरे चरणों के आगे) भेट करता हूँ, यही धूप अर्पित करता हूँ।1। हे प्रभू! (और आसरों से) थक के (निराश हो के) मैं तेरे दर पर आ गिरा हूँ। मैंने तेरी ओट पक्की करके पकड़ ली है। हे प्रभू! संसार आग के कूँएं में से अपने दास नानक को निकाल ले।2।4।8। जैतसरी महला ५ ॥ कोई जनु हरि सिउ देवै जोरि ॥ चरन गहउ बकउ सुभ रसना दीजहि प्रान अकोरि ॥१॥ रहाउ ॥ मनु तनु निरमल करत किआरो हरि सिंचै सुधा संजोरि ॥ इआ रस महि मगनु होत किरपा ते महा बिखिआ ते तोरि ॥१॥ आइओ सरणि दीन दुख भंजन चितवउ तुम्हरी ओरि ॥ अभै पदु दानु सिमरनु सुआमी को प्रभ नानक बंधन छोरि ॥२॥५॥९॥ {पन्ना 701} पद्अर्थ: सिउ = से। जोरि = जोड़ दे। गहउ = मैं पकड़ लूँ। बकउ = बोलूँ। सुभ = मीठे बोल। रसना = जीभ (से)। अकोरि = भेटा।1। रहाउ। किआरो = क्यारा। सिचै = सींचता है। सुधा = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। संजोरि = अच्छी तरह जोड़ के। इआ रसि महि = इस रस में। मगनु = मस्त। ते = से। बिखिआ = माया। तोरि = तोड़ के।1। दीन दुख भंजन = हे दीनों के दुख दूर करने वाले! चितवउ = मैं चितवता हूँ। ओरि = पासा, ओट। अभै पद = अभय अर्थात निर्भयता की अवस्था। को = का। छोरि = छुड़ा के।2। अर्थ: हे भाई! अगर कोई मनुष्य मुझे परमात्मा (के चरणों) से जोड़ दे, तो मैं उसके चरण पकड़ लूँ, मैं जीभ से (उसके धन्यवाद के) मीठे बोल बोलूँ। मेरे ये प्राण उसके आगे भेटा के तौर पर दिए जाएं।1। रहाउ। हे भाई! कोई विरला मनुष्य परमात्मा की कृपा से अपने मन को शरीर को, पवित्र क्यारा बनाता है, उसमें प्रभू का नाम-जल अच्छी तरह सींचता है, और, बड़ी (मोहनी) माया से (संबंध) तोड़ के इस (नाम-) रस में मस्त रहता है।1। हे दीनों के दुख नाश करने वाले! मैं तेरी शरण आया हूँ, मैं तेरा ही आसरा (अपने मन में) चितवता रहता हूँ। हे प्रभू! (मुझ) नानक के (माया वाले) बंधन छुड़वा के मुझे अपने नाम का सिमरन दे, मुझे (विकारों के मुकाबले में) निर्भैता वाली अवस्था दे।2।5।9। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |