श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जैतसरी महला ५ ॥ चात्रिक चितवत बरसत मेंह ॥ क्रिपा सिंधु करुणा प्रभ धारहु हरि प्रेम भगति को नेंह ॥१॥ रहाउ ॥ अनिक सूख चकवी नही चाहत अनद पूरन पेखि देंह ॥ आन उपाव न जीवत मीना बिनु जल मरना तेंह ॥१॥ हम अनाथ नाथ हरि सरणी अपुनी क्रिपा करेंह ॥ चरण कमल नानकु आराधै तिसु बिनु आन न केंह ॥२॥६॥१०॥ {पन्ना 702}

पद्अर्थ: चात्रिक = पपीहा। चितवत = चितवता रहता है। बरसत मेंह = (कि) बरसात हो, वर्षा का होना। सिंधु = समुंद्र। क्रिपा सिंधु = हे कृपा के समुंद्र! करुणा = तरस, दया। कौ = का। नेंह = नेह, प्रेम, लगन, शौक।1। रहाउ।

चाहत = चाह। अनद = आनंद, सुख। पेखि = देख के। देंह = दिन। आन = (अन्य) और ही। मीना = मछली। तेंह = उसका। मरना = मौत।1।

नाथ = हे नाथ! करेंह = कर। नानकु आराधै = नानक आराधता रहे। तिसुबिनु = उस (आराधना) के बिना। आन = आन। केंह = कुछ भी।2।

अर्थ: जैसे पपीहा (हर वक्त) बरसात का होना चितवता रहता है (वर्षा चाहता है), वैसे ही, हे कृपा के समुंद्र! हे प्रभू! (मैं चितवता रहता हूँ कि मेरे पर) तरस करो, मुझे अपनी प्यार भरी भक्ति की लगन बख्शो।1। रहाउ।

हे भाई! चकवी (अन्य) अनेकों सुख (भी) नहीं चाहती, सूरज को देख के उसके अंदर पूर्ण आनंद पैदा हो जाता है। (पानी के बिना) अन्य अनेकों उपाय करके भी मछली जीवित नहीं रह सकती, पानी के बिना उसकी मौत हो जाती है।1।

हे नाथ! (तेरे बिना) हम निआसरे थे। अपनी मेहर कर, और हमें अपनी शरण में रख। (तेरा दास) नानक तेरे सोहाने चरणों की आराधना करता रहे, सिमरन के बिना (नानक को) और कुछ अच्छा नहीं लगता।2।6।10।

जैतसरी महला ५ ॥ मनि तनि बसि रहे मेरे प्रान ॥ करि किरपा साधू संगि भेटे पूरन पुरख सुजान ॥१॥ रहाउ ॥ प्रेम ठगउरी जिन कउ पाई तिन रसु पीअउ भारी ॥ ता की कीमति कहणु न जाई कुदरति कवन हम्हारी ॥१॥ लाइ लए लड़ि दास जन अपुने उधरे उधरनहारे ॥ प्रभु सिमरि सिमरि सिमरि सुखु पाइओ नानक सरणि दुआरे ॥२॥७॥११॥ {पन्ना 702}

पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। मेरे प्रान = मेरे प्राणों का आसरा प्रभू! करि = कर के। साधू = गुरू। संगि = संगति में। भेटे = मिल गए। पूरन = सर्व गुण भरपूर। पुरख = सर्व व्यापक।1। रहाउ।

ठगउरी = ठग बूटी,वह बूटी जो खिला के राहियों को लूट लेते हैं। कउ = को। पीअउ = पी लिया। ता की = उस (रस) की। कुदरति = ताकत।1।

लड़ि = पल्ले से। उधरे = बचा लिए। उधरनहारे = बचाने की स्मर्था वाले हरी ने। सिमरि = सिमर के। दुआरे = दर पर।2।

अर्थ: हे भाई! मेरे प्राणों के आसरे प्रभू जी मेरे मन में मेरे हृदय में बस रहे हैं। वह सर्व गुण समपन्न, सर्व व्यापक, सबके दिलों की जानने वाले प्रभू जी (अपनी) मेहर कर कि मुझे गुरू की संगति में मिल जाए।1। रहाउ।

हे भाई! जिन मनुष्यों को (गुरू से परमात्मा के) प्यार की ठॅगबूटी मिल गई है, उन्होंने नाम-रस अघा-अघा के पी लिया। उस (नाम-जल) की कीमति बताई नहीं जा सकती। मेरी क्या ताकत है, (कि मैं उस नाम-जल का मूल्य बता सकूँ) ?।1।

हे नानक! प्रभू ने (सदा) अपने दास अपने सेवक अपने साथ लगा लगा के रखे हैं, (और, इस तरह) उस बचाने की स्मर्था वाले प्रभू ने (सेवकों को संसार के विचारों से सदा के लिए) बचाया है। प्रभू के दर पर आ के, प्रभू की शरण पड़ कर, सेवकों ने प्रभू को सदा-सदा सिमर के (हमेशा) आत्मिक आनंद लिया है।2।7।11।

जैतसरी महला ५ ॥ आए अनिक जनम भ्रमि सरणी ॥ उधरु देह अंध कूप ते लावहु अपुनी चरणी ॥१॥ रहाउ ॥ गिआनु धिआनु किछु करमु न जाना नाहिन निरमल करणी ॥ साधसंगति कै अंचलि लावहु बिखम नदी जाइ तरणी ॥१॥ सुख स्मपति माइआ रस मीठे इह नही मन महि धरणी ॥ हरि दरसन त्रिपति नानक दास पावत हरि नाम रंग आभरणी ॥२॥८॥१२॥ {पन्ना 702}

पद्अर्थ: भ्रमि = भटक के। उधरु = बचा ले। देह = शरीर, ज्ञानेंद्रियां । अंध = अंधा, अंधेरा। कूप = कूँआं। ते = सैं 1। रहाउ।

गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। धिआनु = जुड़ी सुरति। करमु = धर्म के काम। न जाना = मैं नहीं जानता। करणी = कतव्र्य, आचरण। कै अंचलि = के पल्ले से। बिखम = मुश्किल। जाइ तरणी = तैरी जा सके।1।

संपति = धन। महि = में। त्रिपति = अघाना, संतोष। आभरणी = आभूषण, गहने।2।

अर्थ: हे प्रभू! हम जीव कई जन्मों से भटकते हुए अब तेरी शरण आए हैं। हमारे शरीर को (माया के मोह के) घोर अंधेरे भरे कूएं से बचा ले, अपने चरणों में जोड़े रख।1। रहाउ।

हे प्रभू! मुझे आत्मिक जीवन की समझ नहीं, मेरी सुरति तेरे चरणों में जुड़ी नहीं रहती, मुझे कोई अच्छा काम करना नहीं आता, मेरा आचरण भी स्वच्छ नहीं है। हे प्रभू! मुझे साध-संगति के पल्ले से लगा दे, ता कि ये मुश्किल (संसार-) दरिया को तैरा जा सके।1।

हे नानक! दुनिया के सुख, धन, माया के मीठे स्वाद- परमात्मा के दास इन पदार्थों को (अपने) मन में नहीं बसाते। परमात्मा के दर्शनों से वे संतोष हासिल करते हैं, परमात्मा के नाम का प्यार ही उन (के जीवन) का गहना है।2।8।12।

जैतसरी महला ५ ॥ हरि जन सिमरहु हिरदै राम ॥ हरि जन कउ अपदा निकटि न आवै पूरन दास के काम ॥१॥ रहाउ ॥ कोटि बिघन बिनसहि हरि सेवा निहचलु गोविद धाम ॥ भगवंत भगत कउ भउ किछु नाही आदरु देवत जाम ॥१॥ तजि गोपाल आन जो करणी सोई सोई बिनसत खाम ॥ चरन कमल हिरदै गहु नानक सुख समूह बिसराम ॥२॥९॥१३॥ {पन्ना 702}

पद्अर्थ: हरि जन = हे हरि जनो! हिरदै = हृदय में। अपदा = मुसीबत, विपक्ति। निकटि = नजदीक। पूरन = सफल।1। रहाउ।

कोटि = करोड़ों। बिघन = मुश्किलें, रुकावटें। बिनसहि = नाश हो जाते हैं। निहचलु = सदा कायम रहने वाला। धाम = घर, ठिकाना। कउ = को। जाम = यमराज।1।

तजि = छोड़ के। आन = अन्य। खाम = कमी, कच्ची। गहु = पकड़ रख। सुख समूह = सारे ही सुख। बिसराम = ठिकाना।2।

अर्थ: हे परमात्मा के प्यारो! अपने हृदय में परमात्मा का नाम सिमरा करो। कोई भी विपक्ति प्रभू के सेवकों के निकट नहीं आती, सेवकों के सारे काम सिरे चढ़ते रहते हैं।1। रहाउ।

हे संतजनो! परमात्मा की भक्ति (की बरकति) से (जिंदगी की राह में से) करोड़ों मुश्किलें नाश हो जाती हैं, और, परमात्मा का सदा अटल रहने वाला घर (भी मिल जाता है) भगवान के भक्तों को कोई भी डर सता नहीं सकता, यमराज भी उनका आदर करता है।1।

हे नानक! परमात्मा (का सिमरन) भुला के और जो भी काम किया जाता है वह नाशवंत है और कच्चा (खामियों भरा) है (इस वास्ते, हे नानक!) परमात्मा के सुंदर चरण (अपने) हृदय में बसाए रख, (ये हरी के चरण ही) सारे सुखों के घर हैं।2।9।13।

जैतसरी महला ९    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ भूलिओ मनु माइआ उरझाइओ ॥ जो जो करम कीओ लालच लगि तिह तिह आपु बंधाइओ ॥१॥ रहाउ ॥ समझ न परी बिखै रस रचिओ जसु हरि को बिसराइओ ॥ संगि सुआमी सो जानिओ नाहिन बनु खोजन कउ धाइओ ॥१॥ रतनु रामु घट ही के भीतरि ता को गिआनु न पाइओ ॥ जन नानक भगवंत भजन बिनु बिरथा जनमु गवाइओ ॥२॥१॥ {पन्ना 702}

पद्अर्थ: भूलिओ = (सही जीवन रास्ता) भूला हुआ। उरझाइओ = उलझा हुआ है। लालच = लालच में। लगि = लग के। आपु = अपने आप को। बंधाइओ = बंधा रहा है, फसा रहा है।1। रहाउ।

बिखै रस = विषियों के स्वादों में। जसु = सिफत सालाह। को = का। संगि = साथ। बनु = जंगल। धाइओ = दौड़ता है।1।

भीतरि = अंदर। ता को = उसका। गिआनु = समझ। बिरथा = व्यर्थ।2।

अर्थ: हे भाई! (सही जीवन-राह) भूला हुआ मन माया (के मोह में) फंसा रहता है। (फिर, ये) लालच में फस के जो-जो काम करता है, उनसे अपने आप को (माया के मोह में और) फसा लेता है।1। रहाउ।

(हे भाई! सही जीवन से राह से टूटे हुए मनुष्य को) आत्मि्क जीवन की समझ नहीं होती। विषियों के स्वाद में मस्त रहता है, परमात्मा की सिफत सालाह भुलाए रहता है। परमात्मा (तो इसके) अंग-संग (बसता है) उसके साथ गहरी सांझ नहीं डालता, जंगल में ढूँढने के लिए दौड़ पड़ता है।1।

हे भाई! रत्न (जैसा कीमती) हरी-नाम हृदय के अंदर ही बसता है (पर भूला हुआ मनुष्य) उससे सांझ नहीं बनाता। हे दास नानक! (कह–) परमात्मा के भजन के बिना मनुष्य अपना जीवन व्यर्थ गवा लेता है।2।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh