श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 706 पउड़ी ॥ हरि एकु निरंजनु गाईऐ सभ अंतरि सोई ॥ करण कारण समरथ प्रभु जो करे सु होई ॥ खिन महि थापि उथापदा तिसु बिनु नही कोई ॥ खंड ब्रहमंड पाताल दीप रविआ सभ लोई ॥ जिसु आपि बुझाए सो बुझसी निरमल जनु सोई ॥१॥ {पन्ना 706} पद्अर्थ: निरंजन = निर+अंजन (अंजन = कालिख, माया) माया से निर्लिप। करण = रचा हुआ जगत। करण कारण = सारे जगत का मूल। खिनु = पल। थापि = पैदा करके। उथापदा = नाश कर देता है। खंड = धरती के टुकड़े, बड़े बड़े देश। ब्रहमंड = सारा जगत। दीप = द्वीप। लोई = जगत, लोक। निरमल = पवित्र। सु = सो, वही। अर्थ: जो प्रभू माया से निर्लिप है सिर्फ उसकी ही सिफत सालाह करनी चाहिए, वही सबके अंदर मौजूद है। वह प्रभू सारे जगत का मूल है, सब किस्म की ताकत वाला है, (जगत में) वही कुछ होता है जो वह प्रभू करता है। एक पलक में (जीवों को) पैदा करके नाश कर देता है, उसके बिना (उस जैसा) और कोई नहीं है। सब देशों में, सारे ब्रहमण्ड में, जमीन के नीचे, द्वीपों में, सारे जगत में वह प्रभू व्यापक है। जिस मनुष्य को (ये) समझ खुद प्रभू देता है, उसे समझ आ जाता है और वह मनुष्य पवित्र हो जाता है।1। सलोक ॥ रचंति जीअ रचना मात गरभ असथापनं ॥ सासि सासि सिमरंति नानक महा अगनि न बिनासनं ॥१॥ मुखु तलै पैर उपरे वसंदो कुहथड़ै थाइ ॥ नानक सो धणी किउ विसारिओ उधरहि जिस दै नाइ ॥२॥ {पन्ना 706} पद्अर्थ: जीअ रचना = जीवों की बनावट। रचंति = बनाता है। असथापनं = टिकाता है। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। महा अगनि = (माँ के पेट की) बड़ी आग।1। तलै = नीचे को। कुहथड़ै थाइ = मुश्किल जगह में। धणी = मालिक प्रभू। उधरहि = बचता है। जिस दे नाइ = जिस प्रभू के नाम से।2। अर्थ: जो परमात्मा जीवों की बनतर बनाता है उनको माँ के पेट में जगह देता है, हे नानक! जीव उसको हरेक सांस के साथ-साथ याद करते हैं और (माँ के पेट की) बड़ी ( भयानक) आग उनका नाश नहीं कर सकती।1। हे नानक! (कह– हे भाई!) जब तेरा मुँह नीचे को था, पैर ऊपर की तरफ थे, बड़ी मुश्किल जगह में तू बसता था तब जिस प्रभू के नाम की बरकति से तू बचा रहा, अब उस मालिक को तूने क्यों भुला दिया?।2। पउड़ी ॥ रकतु बिंदु करि निमिआ अगनि उदर मझारि ॥ उरध मुखु कुचील बिकलु नरकि घोरि गुबारि ॥ हरि सिमरत तू ना जलहि मनि तनि उर धारि ॥ बिखम थानहु जिनि रखिआ तिसु तिलु न विसारि ॥ प्रभ बिसरत सुखु कदे नाहि जासहि जनमु हारि ॥२॥ {पन्ना 706} पद्अर्थ: रकतु = खून (इस शब्द के आखिर में सदा ‘ु’ की मात्रा आती है, देखने में पुलिंग प्रतीत होता है, पर है ‘स्त्रीलिंग’, देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। बिंदु = वीर्य। निंमिआ = उगा। उदर = पेट। मझारि = में। उरध = उल्टा। कुचील = गंदा। बिकलु = डरावना। नरकि = नर्क में। गुबारि नरकि = अंधेरे नर्क में। मनि = मन में। तनि = तन में। उर = हृदय। बिखम = मुश्किल। थानहु = जगह से। अर्थ: (हे जीव!) (माँ के) रक्त और (पिता के) वीर्य से (माँ के) पेट की आग में तू उगा। तेरा मुँह नीचे को था, गंदा और डरावना था, (जैसे) एक अंधेरे घोर नर्क में पड़ा हुआ था। जिस प्रभू को सिमर के तू जलता नहीं था- उसको (अब भी) मन से तन से हृदय में याद कर। जिस प्रभू ने तुझे मुश्किल जगह से बचाया, उसको रक्ती भर भी ना भुला। प्रभू को भुलाने से कभी सुख नहीं मिलता, (अगर भुलाएगा तो) मानस जन्म (की बाजी) हार के जाएगा।2। सलोक ॥ मन इछा दान करणं सरबत्र आसा पूरनह ॥ खंडणं कलि कलेसह प्रभ सिमरि नानक नह दूरणह ॥१॥ हभि रंग माणहि जिसु संगि तै सिउ लाईऐ नेहु ॥ सो सहु बिंद न विसरउ नानक जिनि सुंदरु रचिआ देहु ॥२॥ {पन्ना 706} पद्अर्थ: मन इछा = मन की अभिलाषा अनुसार। दान करणं = दान देता है। सरबत्र = हर जगह। कलि = झगड़े।1। हभि = सभ, सारे। माणहि = तू माणता है। जिसु संगि = जिसकी बरकति से। तै सिउ = उसके साथ। बिंद = थोड़ा सा समय भी। न विसरउ = भूल ना जाए (विसरउ = हुकमी भविष्यत, अंन्न पुरख, एक वचन)। जिनि = जिस प्रभू ने। सुंदरु देहु = सोहणा जिस्म (शब्द ‘देहु’ पुलिंग के रूप में प्रयोग किया गया है)। अर्थ: हे नानक! जो प्रभू हमें मन-मांगी दातें देता है जो सब जगह (सब जीवों की) आशाएं पूरी करता है, जो हमारे झगड़े और कलेश नाश करने वाला है उसको याद कर, वह तुझसे दूर नहीं है।1। हे नानक! जिस प्रभू की बरकति से तू सारी मौजें मनाता है, उससे प्रीत जोड़। जिस प्रभू ने तेरा सोहणा शरीर बनाया है, रॅब करके वह तुझे कभी भी ना भूले।2। पउड़ी ॥ जीउ प्रान तनु धनु दीआ दीने रस भोग ॥ ग्रिह मंदर रथ असु दीए रचि भले संजोग ॥ सुत बनिता साजन सेवक दीए प्रभ देवन जोग ॥ हरि सिमरत तनु मनु हरिआ लहि जाहि विजोग ॥ साधसंगि हरि गुण रमहु बिनसे सभि रोग ॥३॥ {पन्ना 706} पद्अर्थ: जीउ = जिंद। रसु = स्वादिष्ट पदार्थ। ग्रिह = गृह, घर। मंदर = सुंदर मकान। असु = अश्व, घोड़े (संस्कृत शब्द ‘अश्व’ है, बहुवचन भी ‘असु’ ही है)। संजोग = भाग्य। सुत = पुत्र। बनिता = स्त्री। साजन मित्र। देवन जोग = जो देने को समर्थ है। हरिआ = खिड़ा हुआ। विजोग = विछोड़े के दुख। रमहु = याद रखो। अर्थ: (प्रभू ने तुझे) जिंद, प्राण, शरीर और धन दिया, और स्वादिष्ट पदार्थ भोगने को दिए। तेरे अच्छे भाग्य बना के, तुझे उसने घर, सुंदर मकान, रथ, घोड़े दिए। सब कुछ देने वाले प्रभू ने तुझे पुत्र, पत्नी, मित्र और नौकर दिए। उस प्रभू को सिमर के मन खिला रहता है, सारे दुख मिट जाते हैं। (हे भाई!) सत्संग में उस हरी के गुण चेते किया करो, सारे रोग (उसको सिमरने से) नाश हो जाते हैं।3। सलोक ॥ कुट्मब जतन करणं माइआ अनेक उदमह ॥ हरि भगति भाव हीणं नानक प्रभ बिसरत ते प्रेततह ॥१॥ तुटड़ीआ सा प्रीति जो लाई बिअंन सिउ ॥ नानक सची रीति सांई सेती रतिआ ॥२॥ {पन्ना 706} पद्अर्थ: जतन = कोशिशें। अनेक उदमह = कई प्रकार के उद्यम। भगति भाव हीणं = बंदगी की तमन्ना से वंचित। प्रेततह = जिन्न भूत।1। तुटड़ीआ = टूट गई। सा = वह। बिअंन सिउ = किसी और से। सची = सदा कायम रहने वाली। रीति = मर्यादा। सेती = से। रतिआ = अगर लीन रहें।2। अर्थ: मनुष्य अपने परिवार के लिए कई कोशिशें करते हैं, माया की खातिर अनेकों उद्यम करते हैं, पर प्रभू की भक्ति की तमन्ना से वंचित रहते हैं, और हे नानक! जो जीव प्रभू को बिसारते हैं वे (मानो) जिंन भूत हैं।1। जो प्रीति (प्रभू के बिना) किसी और के साथ लगाई जाती है, वह आखिर में टूट जाती है। पर, हे नानक! अगर सांई प्रभू में लीन रहें, तो ऐसी जीवन-जुगति सदा कायम रहती है।2। पउड़ी ॥ जिसु बिसरत तनु भसम होइ कहते सभि प्रेतु ॥ खिनु ग्रिह महि बसन न देवही जिन सिउ सोई हेतु ॥ करि अनरथ दरबु संचिआ सो कारजि केतु ॥ जैसा बीजै सो लुणै करम इहु खेतु ॥ अकिरतघणा हरि विसरिआ जोनी भरमेतु ॥४॥ {पन्ना 706} पद्अर्थ: जिसु बिसरत = जिस जिंद के विछोड़े से। भसम = राख। प्रेतु = अपवित्र हस्ती। सभि = सारे लोग। सोई हेतु = इतना प्यार। अनरथ = बुरे काम। दरबु = धन। संचिआ = इकट्ठा किया। करि = करके। केतु कारजि = (उस जिंद के) किस काम की? लुणै = काटता है। इहु = ये शरीर। करम खेतु = कर्मों का खेत। अकिरतघणा = (कृतघ्न) किए को भुलाने वाला। अर्थ: जिस जिंद के विछुड़ने से (मनुष्य का) शरीर राख हो जाता है, सारे लोग (उस शरीर) को अपवित्र कहने लग जाते हैं; जिन संबन्धियों से इतना प्यार होता है, वे एक पलक के लिए भी घर में रहने नहीं देते। पाप कर करके धन एकत्र करता रहा, पर उस जिंद के किसी काम में ना आया। ये शरीर (किए) कर्मों की (जैसे) खेती है (इसमें) जैसा (कर्म रूपी बीज कोई) बीजता है है वही काटता है। जो मनुष्य (प्रभू के) किए (उपकारों) को भुलाते हैं वे उसको बिसार देते हैं (आखिर) जूनियों में भटकते हैं।4। सलोक ॥ कोटि दान इसनानं अनिक सोधन पवित्रतह ॥ उचरंति नानक हरि हरि रसना सरब पाप बिमुचते ॥१॥ ईधणु कीतोमू घणा भोरी दितीमु भाहि ॥ मनि वसंदड़ो सचु सहु नानक हभे डुखड़े उलाहि ॥२॥ {पन्ना 706} पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। अनिक = अनेकों। सोधन = स्वच्छता रखने वाले साधन। रसना = जीभ (से)। सरब = सारे। बिमुचते = नाश हो जाते हैं।1। ईधणु = ईधन। मू = मैं। घणा = बहुत सारा। भोरी = रक्ती भर। दितीमु = मैंने दी। भाहि = आग। मनि = मन में। हभे = सारे ही। डुखड़े = कोझे दुख। उलाहि = दूर हो जाते हैं।2। अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य जीभ से प्रभू का नाम उचारते हैं, उनके सारे पाप नाश हो जाते हैं, सो उन्होंने, मानो करोड़ो (रुपए) दान कर लिए, करोड़ों बार तीर्थ स्नान कर लिए हैं और अनेकों स्वच्छता व पवित्रता के साधन कर लिए हैं।1। मैंने बहुत सारा ईधन एकत्र कर लिया और उसे थोड़ी सी आग लगा दी (वह सारा ईधन जल के राख हो गया, इसी तरह) हे नानक! अगर मन में सच्चा साई बस जाए तो सारे कोझे दुख उतर जाते हैं।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |